भारत इजरायल के साथ इश्क तो करता है लेकिन उसके साथ रिश्ता कायम नहीं करना चाहता. ये बात लंबे समय तक इजरायल और भारत के संदर्भ में कही जाती रही. जब इजरायल का एक स्वतंत्र देश के तौर पर जन्म हुआ था तो भारत ने उसे मान्यता तक नहीं दी थी.
1948 में यहूदी एजेंसी के प्रमुख डेविड बेन गुरियन ने इजरायल राष्ट्र के
बनने की घोषणा की थी. बेन गुरियन यहूदी राष्ट्र इजरायल के पहले प्रधानमंत्री बने थे.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र की फलस्तीन के लिए दो राष्ट्र की योजना के खिलाफ वोट
किया था. हालांकि, बहुमत इजरायल के निर्माण में पड़ा और फलस्तीन से दो
स्वतंत्र राज्य बन गए.
1917 के बाल्फर घोषणापत्र का अमेरिका ने समर्थन किया था जिसमें फलस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग की गई थी. हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूसोवेल्ट ने 1945 में अरब को यह आश्वासन दिया कि अमेरिका फलस्तीन क्षेत्र में रह रहे यहूदियों और अरबी लोगों की सलाह लिए बिना इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा.
फलस्तीन के बंटवारे के लिए ब्रिटेन को जिम्मेदार ठहराया जाता है. मिस्त्र और जॉर्डन को छोड़कर किसी भी अरब या मुस्लिम देश ने आज तक इजरायल के साथ राजनयिक संबंध नहीं बनाए हैं. अधिकतर इस्लामिक देश इजरायली और यहूदियों के अपने देश में आने पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं.
इजरायली नेताओं को ये उम्मीद कम ही थी कि कभी भारत और इजरायल करीबी दोस्त बनेंगे.
इजरायल को अन्य देशों से मान्यता मिलने के लिए जरूरी था कि वह भारत को अपने साथ खड़ा कर
सके. उस वक्त एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश से मुक्त होकर कई स्वतंत्र
राज्य बन रहे थे. इजरायल ने यहूदी राज्य को मान्यता दिलाने के लिए संशय में
पड़े भारत को मनाने की कई कोशिशें कीं. यहां तक कि वैश्विक यहूदी समुदाय
के सबसे प्रमुख चेहरे अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहर लाल नेहरू को खत भी लिखा था.
आइंस्टीन स्वघोषित यहूदी राष्ट्रवादी थे. आइंस्टीन का मानना था कि यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र दुनिया भर के
प्रताड़ित और पीड़ित यहूदियों के लिए एक शरणस्थली बन सकता है.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू यहूदियों
के इतिहास से पूरी तरह परिचित थे और यूरोप में यहूदियों पर हुए अत्याचार के मुद्दे पर संवेदनशील भी. नेहरू ने सहानुभूति के साथ यूरोप में यहूदियों की दयनीय स्थिति पर
लिखा.
इजरायल पर नेहरू का संशय बिल्कुल स्पष्ट था. उन्होंने लिखा कि फलस्तीनी अरबी सदियों से
फलस्तीन में रह रहे हैं और एक यहूदी राष्ट्र के निर्माण के लिए
उन्हें उनकी जमीन से हटाना बहुत ही अनुचित होगा. उन्होंने यह भी जिक्र किया
कि फलस्तीन में सदियों से यहूदी भी रह रहे हैं.
नेहरू फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ थे. नेहरू के दिल पर भारत के विभाजन का घाव अभी भी ताजा था.
13 जून 1947 को आइंस्टीन ने नेहरू को 4 पन्नों का एक खत लिखा था जिसमें
उन्होंने छुआछूत हटाने के लिए भारत की तारीफ की. उन्होंने आगे कहा कि यहूदी
लोगों के साथ भी लंबे समय से भेदभाव होता रहा है.
आइंस्टीन ने नेहरू को राजनीतिक और आर्थिक चेतना का चैंपियन करार
दिया था. आइंस्टीन ने न्याय और बराबरी की वकालत करते हुए कहा कि हिटलर के
उदय से बहुत पहले जियोनिजम के उद्देश्य को मैंने अपना उद्देश्य बना लिया
क्योंकि मुझे इसमें अतीत में यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय को सही करने का जरिया नजर आया.
आइंस्टीन ने अपने खत में लिखा था, हिटलर के वक्त लाखों यहूदियों को
प्रताड़ित किया गया...और दुनिया में किसी भी जगह पर उन्हें संरक्षण नहीं
मिल सका.
नेहरू के संशय को समझते हुए आइंस्टीन ने लिखा, फलस्तीन
के अरबी लोगों से यहूदियों को आर्थिक तौर पर बहुत फायदा मिला है लेकिन वह एक विशेष
संप्रभु राष्ट्र चाहते हैं जैसे सऊदी अरब, इराक, लेबनान और ईरान जैसे देशों
को हासिल है. यह वैध और प्राकृतिक चाह है और न्याय इसे संतुष्ट करने की
मांग करता है. यह चाह एक फलस्तीनी राज्य के तौर पर पूरी होगी.
आइंस्टीन के मुताबिक, बैल्फर का 1917 का घोषणापत्र यहूदी लोगों के लिए एक
राष्ट्र का वादा करता है जिससे इतिहास और न्याय में संतुलन स्थापित होगा.
आइंस्टीन ने अपनी आखिरी अपील में नेहरू से राष्ट्रवादी भूख को संतुष्ट करने के बजाय फलस्तीन में नवजागरण को समर्थन देने की मांग की.
नेहरू का जवाब-
नेहरू ने आइंस्टीन के खत का जो जवाब
लिखा, उसमें उनका द्वंद्व साफ झलक रहा था. नेहरू जानते थे कि भारत की नीति
नैतिक दबाव से ज्यादा राजनीति की वास्तविकता से प्रेरित है. नेहरू अरब
देशों को नाराज नहीं करना चाहते थे.
नेहरू ने लिखा, "हर देश अपने
हितों के बारे में सबसे पहले सोचता है. अगर कोई अंतरराष्ट्रीय नीति
राष्ट्रीय हित के सांचे में फिट बैठती है तो देश अंतरराष्ट्रीय समुदाय की
भलाई की बात करने लगता है लेकिन जैसे ही यह राष्ट्रीय हितों के खिलाफ चली
जाती है तो उसे ना मानने के सौ बहाने पैदा हो जाते हैं."
फलस्तीन के विभाजन और यहूदी राष्ट्र के निर्माण के खिलाफ वोट देने के लिए नेहरू ने यही व्याख्या दी थी. भारत इसलिए भी मजबूर था क्योंकि भारत की मुस्लिम आबादी की चेतना भी अन्य मुस्लिम देशों की तरह फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ थी. इसके अलावा 1948 में कश्मीर पर पाकिस्तान के युद्ध के बाद भारत को अरब देशों की मदद की जरूरत थी.
नेहरू ने सतर्कता के साथ लिखा, मैं स्वीकार करता हूं कि यहूदियों के लिए मेरे मन में बहुत सहानुभूति है, मैं अरब के लोगों के लिए भी संवेदना रखता हूं. मुझे पता है कि यहूदियों ने फलस्तीन में बहुत ही शानदार काम किया है और वहां के लोगों के जीवनस्तर को संवारने में योगदान दिया है लेकिन एक सवाल है जो मुझे परेशान करता है. इन सारी उपलब्धियों के बावजूद भी वे अरब के लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब क्यों नहीं हो पाए? वे उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ उन्हें यहूदी राष्ट्र के लिए क्यों मजबूर करना चाहते हैं?
हालांकि, 17 सितंबर 1950 में भारत ने इजरायल को मान्यता दे दी. उस समय नेहरू ने कहा था, हमने इजरायल को बहुत पहले ही मान्यता दे दी होती. इजरायल अब एक सच्चाई है. हम केवल इसलिए दूर रहे क्योंकि हम अरब देशों में अपने दोस्तों की भावनाएं आहत नहीं करना चाहते थे.
नेहरू आइंस्टीन के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसके बावजूद आइंस्टीन उस वक्त
उन्हें नहीं मना पाए थे. हालांकि, कुछ समय बाद नेहरू ने महान वैज्ञानिक की
मांग मान ली.
इजरायल भारत के मुश्किल के वक्त में 4 बार साथ खड़ा हुआ. इजरायल ने
1962, 1965, 1971 और 1999 के युद्ध में हथियारों की आपूर्ति की थी जबकि उस
वक्त कई बड़े देशों ने भारत से मुंह मोड़ लिया था. 1962 में जब चीन के साथ
भारत का युद्ध हुआ तो अरब देशों से समर्थन नहीं मिला जबकि बिना राजनयिक
संबंध के इजरायल तुरंत नेहरू की मदद के तैयार हो गया. हालांकि नेहरू
ने एक शर्त रखी थी कि इजरायल अपने सैन्य जहाजों पर अपना झंडा लगाकर ना
भेजे क्योंकि अब भी इजरायल से रिश्ते को लेकर उहापोह में थे. हालांकि,
इजरायल के शर्त को ठुकराने के बाद नेहरू ने झंडे लगे जहाज के लिए हामी भर
दी.
भारत ने आधिकारिक तौर पर भले ही 1950 में इजरायल को संप्रभु राष्ट्र के तौर पर
मान्यता दे दी थी लेकिन इजरायल के साथ राजनयिक संबंध बनाने में भारत को चार
दशक लग गए. यहां तक कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री को इजरायल का दौरा करने
में 67 साल का लंबा वक्त लग गया.