भारत में 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था. उस वक्त आपातकाल ने देश की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया, लेकिन इंदिरा द्वारा नसबंदी जैसे सख्त फैसलों ने तो इमरजेंसी को राजनीति के अलावा लोगों के निजी जीवन तक पहुंचा दिया था.
नसंबदी की घर-घर में दहशत फैलने लगी थी. गली-मोहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा थी और वह थी नसबंदी. नसबंदी का फैसला इंदिरा सरकार ने जरूर लिया था लेकिन इसे लागू कराने का जिम्मा छोटे बेटे संजय गांधी को दिया गया.
एक रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 60 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई. इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे.
उस वक्त पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नसबंदी की आलोचना में एक कविता तक लिखी थी. इस कविता के बोल थे, आओ मर्दो, नामर्द बनो. यह कविता काफी चर्चा में रही. पढ़िए पूरी कविता..
आओ! मर्दों नामर्द बनो
मर्दों ने काम बिगाड़ा है,
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फसाद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है.
मर्दों की तूती बन्द हुई.
औरत का बजा नगाड़ा है.
गर्मी छोड़ो अब सर्द बनो.
आओ मर्दों, नामर्द बनो.
गुलछरे खूब उड़ाए हैं,
रस्से भी खूब तुड़ाए हैं,
चूं चपड़ चलेगी तनिक नहीं,
सर सब के गए मुंड़ाए हैं,
उलटी गंगा की धारा है,
क्यों तिल का ताड़ बनाए है,
तुम दवा नहीं, हमदर्द बनो.
आयो मर्दों, नामर्द बनो.
औरत ने काम संभाला है,
सब कुछ देखा है, भाला है,
मुंह खोलो तो जय-जय बोलो,
वर्ना तिहाड़ का ताला है,
ताली फटकारो, झख मारो,
बाकी ठन-ठन गोपाला है,
गर्दिश में हो तो गर्द बनो.
आयो मर्दों, नामर्द बनो.
पौरुष पर फिरता पानी है,
पौरुष कोरी नादानी है,
पौरुष के गुण गाना छोड़ो,
पौरुष बस एक कहानी है,
पौरुषविहीन के पौ बारा,
पौरुष की मरती नानी है,
फाइल छोड़ो, अब फर्द बनो.
आओ मर्दों, नामर्द बनो.
चौकड़ी भूल, चौका देखो,
चूल्हा फूंको, मौका देखो,
चलती चक्की के पाटों में
पिसती जीवन नौका देखो,
घर में ही लुटिया डूबी है,
चुटिया में ही धोखा देखो,
तुम कलां नहीं बस खुर्द बनो.
आयो मर्दों, नामर्द बनो.