सनातन परंपरा की समृद्ध परंपरा में देवी पूजा ऐसा विधान है, जिसमें हम मातृशक्ति का सम्मान करते हैं और उसकी पूजा करते है. नवरात्रि का पांचवां और छठवां दिन मातृशक्ति के समर्पण का दिन है जहां हम देख सकते हैं कि मां कैसे एक बच्चे को संसार में लाती है, उसका पोषण करती है, उसे चुनौतियां सहने की क्षमता देती है और जब तक वह इसमें पूरी तरह परिपक्व न हो जाए उसकी सुरक्षा भी करती है.
देवी स्कंदमाता और देवी कात्यायनी के स्वरूप में यही भाव दिखाई देता है. पांचवा दिन देवी स्कंद माता को समर्पित है, जिसमें उनकी गोद में छह मुख वाले कार्तिकेय बैठे है. स्कंद कार्तिकेय का ही एक नाम है और देवी ने उनका सृजन संसार की रक्षा के लिए ही किया था. देवी के इस स्वरूप का सीधा अर्थ जीवन में मां की भूमिका से है.
वहीं छठवें दिन की देवी कात्यायनी हैं. बिहार में लोक संस्कृति का पर्व जो छठ पूजा मनाई जाती है उसकी आराधिका देवी यही हैं, और कृत्तिका जिनकी संख्या छह है उस रूप में भी वह बच्चों का पालन ही करती हैं, हालांकि देवी कात्यायनी के हाथ में भाला, तलवार या त्रिशूल दिखाए जाते हैं, लेकिन उनका रूप सौम्य ही दिखता है, जो एक चेतावनी हो सकती है कि माता रक्षा के लिए हर स्थिति के लिए तैयार हैं.
मां की भूमिका: संरक्षण और प्रेरणा का प्रतीक
एक मां अपने बच्चे को जन्म देती है, पालन-पोषण करती है और फिर उसे जीवन में आने वाली हर चुनौती से निपटने के लिए तैयार करती है. जब तक संतान इसके लिए तैयार न हो जाए, मातृशक्ति खुद उसकी हर तरह से सुरक्षा करती है. देवी स्कंदमाता की प्रतिमा में दिखता है कि उन्होंने उस बालक को गोद में बिठा रखा है, जो देवताओं के सेनापति हैं (या आगे जाकर बनने वाले हैं) यह इस तथ्य का जीता-जागता प्रतीक है कि संतान की उपलब्धियां उसकी मां की वजह से ही उसमें आती हैं. संतान कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो, मां के सामने गोद में ही होता है.
ललिता देवी: स्कंदमाता और कात्यायनी का आध्यात्मिक रूप
देवी स्कंदमाता और देवी कात्यायनी के इसी स्वरूप को अध्यात्म में ललिता देवी के नाम से पुकारा गया है. इसी देवी को त्रिपुरसुंदरी या षोडशी के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसी दिव्य शक्ति हैं जो सौंदर्य, शक्ति और ज्ञान का अनुपम संगम हैं. दस महाविद्याओं में से एक होने के नाते, वे त्रिदेवी (सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती) का भी अभिन्न अंग हैं और श्री विद्या तंत्र की मूल देवी मानी जाती हैं. उनका स्वरूप 16 वर्षीय युवती के रूप में दिखता है, जो चार भुजाओं से सुसज्जित हैं, इनमें फंदा, अंकुश, गन्ना धनुष और फूलों के तीर धारण किए हुए वह कमल पर विराजमान हैं.
कभी हंस या कभी तोते की सवारी करने वाली यह देवी पवित्रता, विवेक और आध्यात्मिक जागृति का प्रतीक हैं. ललिता देवी की आराधना न केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति कराती है, बल्कि आत्मिक मुक्ति का मार्ग भी दिखाती है. देवी ललिता की पौराणिक कथाएं ब्रह्मांड पुराण, कालिका पुराण और देवी महात्म्य जैसे ग्रंथों में वर्णित हैं. कालिका पुराण के अनुसार, वे दो भुजाओं वाली, गौर वर्ण की और रक्तिम कमल पर विराजमान हैं, तथा दक्षिणमार्गी शाक्तों में चंडी के समान स्थान रखती हैं.
आध्यात्मिक महत्व: ऊर्जा और मुक्ति का स्रोत
देवी महात्म्य में उनकी कथा राक्षसी शक्तियों पर विजय की है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है. त्रिपुरासुर नामक राक्षस ने तीन लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी, जिसके विरुद्ध देवी ललिता ने सूक्ष्म रूप से शिव के भीतर रहकर युद्ध किया. वह उन बाणों की शक्ति बन गईं, जिनसे शिवजी ने त्रिपुर का संहार किया. इसलिए शिव सदाशिव त्रिपुरारी कहलाए और देवी कहलाईं त्रिपुरसुंदरी.
यह कथा अज्ञान से आत्मज्ञान की यात्रा दर्शाती है, जहां देवी का सौम्य स्वरूप भी संहारकारी शक्ति का वाहक बनता है. ललितोपाख्यान में वर्णित है कि वे शिव की अर्धांगिनी के रूप में सृष्टि की लीला रचती हैं. इन कथाओं से स्पष्ट है कि ललिता देवी सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार की मूल शक्ति हैं. ललिता देवी का महत्व असीम है.
वे शुद्ध चेतना में वास करती हैं और कुंडलिनी ऊर्जा के रूप में अंतःस्थल में विद्यमान रहती हैं. साधना द्वारा उनकी जागृति से साधक असीम ऊर्जा का अनुभव करता है, जो मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और बाधाओं से मुक्ति प्रदान करती है. तंत्र-मंत्र परंपरा में उन्हें "शिवा" कहा जाता है, जो शिव के साथ एकात्मता का प्रतीक हैं. उनकी आराधना से चार पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—की सिद्धि होती है. भक्तों को सांसारिक सुख, समृद्धि, साहित्यिक उत्कृष्टता और साहस प्राप्त होता है.
ललिता देवी सौम्य देवियों जैसे भुवनेश्वरी और मातंगी का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो नैतिकता और सदाचार सिखाती हैं. उनकी कृपा से जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है और समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं. आज के युग में, जहां तनाव व्याप्त है, उनकी साधना हृदय में प्रेम और भक्ति का संचार करती है, जिससे जीवन आनंदमय बनता है.
पूजा विधि और आराधना: सरलता और समर्पण
देवी ललिता की पूजा सरल है, उपांग ललिता पंचमी (आषाढ़ शुक्ल पंचमी), गुप्त नवरात्रि का तीसरा दिन और ललिता जयंती (माघ पूर्णिमा) उनकी पूजा के खास दिन हैं. देवी की मुख्य आराधना ललिता सहस्रनाम पर आधारित है, जिसमें देवी के 1000 नामों का पाठ किया जाता है, जैसे "अम्बिका", "त्रिपुरसुंदरी" और "रम्भा". यह पाठ मानसिक शांति और सफलता प्रदान करता है. दुर्लभ मंत्र "ॐ श्री महा त्रिपुर सुंदरी महामन्त्राय नमः" या षोडशी मंत्र "ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः" का 108 बार जप करें. साधना के लिए शांत स्थान चुनें, लाल वस्त्र बिछाएं, चंदन-कुमकुम से तिलक लगाएं. दूध, शहद, गुलाबजल से अर्घ्य अर्पित करें. ब्रह्म मुहूर्त में जप से सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है. व्रत में फलाहार करें और दान दें.
आराधना में समर्पण और पवित्रता आवश्यक है. नियमित साधना से धन-ऐश्वर्य, भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है. देवी ललिता की पूजा जीवन को दिव्य ऊर्जा से भर देती है. उनकी कथाएं प्रेरणा देती हैं, महत्व जीवन दिशा प्रदान करता है, और आराधना मुक्ति का द्वार खोलती है. भक्तों को उनकी कृपा से सुख-समृद्धि और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है.