करवा चौथ... यह पर्व अब केवल सदियों पुरानी परंपरा नहीं रह गया है, बल्कि प्रेम, समर्पण और उत्सव का एक भव्य आधुनिक रूप ले चुका है. यह दिन न केवल पत्नी के अपने पति की लंबी उम्र और खुशहाली के लिए रखे गए उपवास का प्रतीक है, बल्कि यह पति-पत्नी के अटूट बंधन को एक नए उत्साह के साथ जीने का अवसर भी बन गया है.
बीते कुछ सालों में, फिल्मों, सीरियलों और विज्ञापनों ने करवा चौथ को एक रोमांटिक और यादगार उत्सव के रूप में ढालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज करवा चौथ न केवल परंपरा का प्रतीक है, बल्कि प्यार, विश्वास और साथ निभाने की सुंदर कहानी भी है.
करवा चौथ को लेकर कहा जाता है कि यह पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है और चंद्रमा के दर्शन के बाद पति का दीदार कर उनकी आरती उतारकर पूजा करनी चाहिए. लेकिन असल में यह व्रत सिर्फ यही और इतना भर नहीं है.

नारद पुराण में है करवा चौथ का विस्तार से वर्णन
कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि को करवा चौथ व्रत के नाम से जाना जाता है. इसे पुराणों में इसे करक चतुर्थी कहा गया है और इस व्रत के नाम, फल, करने की विधि आदि का विस्तार से वर्णन नारद पुराण में आता है. यहां देवर्षि नारद वर्ष भर की चतुर्थी तिथियों का महत्व बता रहे होते हैं, इस कड़ी में वह कहते हैं कि सभी चतुर्थी तिथियों के स्वामी श्रीगणेश हैं. इसलिए सौभाग्य, ऐश्वर्य, विजय और सफलता के लिए उनकी पूजा और ध्यान का व्रत धारण किया जाना चाहिए.
नारद जी ने बताया है चतुर्थी व्रत का महत्व
इसी दौरान वह यह भी बताते हैं कि किस महीने की चतुर्थी को गणेशजी के किस स्वरूप और नाम का व्रत करके ध्यान करना चाहिए. नारद मुनि ने यह भी बताया है कि किस महीने की चतुर्थी का व्रत किसके द्वारा किया जाना चाहिए. इनमें से कुछ व्रत पति-पत्नी को साथ में, कुछ व्रत पुरुषों के लिए मान्य और कुछ व्रत स्त्रियों के लिए मान्य बताए हैं.
कार्तिक मास का महत्व और इस माह के शुभ संयोग
इसी क्रम में जब वह कार्तिक माह की चतुर्थी के बारे में बताना शुरू करते हैं तो इस तिथि और माह की विशेष प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह माह तो सौभाग्यवती स्त्रियों (जिनका विवाह हुआ हो) के लिए बहुत शुभ है. इस माह में उनके लिए कई संयोग बताए गए हैं. कार्तिक माह शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का विशेष माह हैं, जिन्हें स्कंद कहा जाता है और इस माह में देवी पार्वती की मौजूदगी रहती है. इस माह में चंद्र कला कृत्तिका नक्षत्र में होती है.
सभी तरह के सौभाग्य देने वाला है कार्तिक मास
कृत्तिका देवी ने कार्तिकेय का पालन किया था इसलिए वह खुद में प्रकृति हैं. चतुर्थी तिथि 'कपर्दि गणेश' की तिथि है जो कार्तिकेय के भाई हैं और देवी उमा के लाडले हैं. इसलिए यह माह सौभाग्य, संपदा, संतान, कीर्ति, विजय, तंत्र, सिद्धि और साधना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और जिस उद्देश्य से जो भी सकारात्मक कार्य किया जाए वह जरूर पूरा होता है. यही वजह है कि कार्तिक में ही करक चतुर्थी, अहोई अष्टमी, धन त्रयोदशी, दीपावली की महारात्रि और कार्तिक पूर्णिमा की पूर्णता की रात्रि आती है. सिर्फ सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए ही नहीं, बल्कि साधकों, विद्यार्थियों और शोध कर्ताओं के लिए भी यह माह बहुत लाभकारी होता है.
नारद पुराण में करवा चौथ का वर्णन
अब करवा चौथ पर लौटते हैं... नारद पुराण में करवा चौथ का वर्णन कैसे किया गया है, जस का तस यहां देखिए.
देवर्षि नारद कहते हैं कि- 'कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को 'कर्काचतुर्थी' (करवा चौथ) का व्रत बताया गया है. इस व्रत में सौभाग्यवती स्त्रियों का ही विशेष अधिकार है. स्त्री स्नान करके वस्त्र और आभूषणों से विभूषित होकर गणेशजी की पूजा करें. उनके आगे पकवान से भरे हुए दस करवे रखें और भक्ति से पवित्र चित्त होकर उन्हें देवों में देव गणेशजी को समर्पित करे. समर्पण के समय यह कहना चाहिए कि 'भगवान् कपर्दि गणेश मुझ पर प्रसन्न हों.'
तत्पश्चात् सुवासित स्त्रियों और ब्राह्मणों को इच्छानुसार आदरपूर्वक उन करवों को बांट दे. इसके बाद रात में चंद्रोदय होने पर चन्द्रमा को विधिपूर्वक अर्घ्य दें. व्रत की पूर्ति के लिए स्वयं भी मिष्ठान्न और भोजन करें. इस व्रत को सोलह या बारह वर्ष तक करके नारी इसका उद्यापन करें. उसके बाद वह इसे छोड़ दें या फिर स्त्री को चाहिए कि सौभाग्य की इच्छा से वह जीवन भर इस व्रत को करती रहें, क्योंकि इस व्रत के समान सौभाग्यदायक तीनों लोकों में दूसरा कोई नहीं है.'
गणेश जी को 10 करवे में पकवानों का लगता है भोग
यह करवा चौथ के बारे में कही गई नारद मुनि की पूरी बात है. इसमें तीन बातें मुख्य हैं. पहली यह कि यह गणेशजी के कपर्दीश्वर स्वरूप की पूजा का व्रत है. उन्हें मिठाइयों और पकवान से भरे दस करवों (टोंटीदार कलश) में भोग लगता है, जो खुद भी श्रीगणेश का ही प्रतीक हैं. इसलिए इसे करवा चौथ कहते हैं और यह व्रत अपनी इच्छा के अनुसार किया जाना है कि स्त्रियां कब तक इसे करना चाहती हैं. इसके बाद इसका भी अन्य व्रत और अनुष्ठानों की तरह उद्यापन करना होता है.

करवाचौथ की अलग-अलग कहानियां
यह विशुद्ध रूप से गणेशजी की पूजा है, जो कि लोकनायक और लोकदेवता हैं. इस दौरान कही जाने वाली कहानियों में भी दो प्रमुख कहानी गणेशजी से संबंधित हैं. इसके बाद सती करवा नाम की एक महिला की लोककथा है, फिर एक कथा आती है एक साहूकार उसके सात बेटों और एक पुत्री की, जिसका पति मर जाता है और वह श्रीगणेश की कृपा से जी उठता है. फिर एक पंजाब की लोककथा है, जिसमें वीरावती नाम की कन्या किसी वजह से चौथ व्रत भूल जाती है और चौथ माता उससे नाराज हो जाती हैं. पांचवीं कहानी के तौर पर कुछ जगहों पर अर्जुन और द्रौपदी की कथा भी कही जाती है और इस आधार पर बताया जाता है कि द्रौपदी ने करक चतुर्थी व्रत किया था.
लोककथाओं से आया पति के लिए व्रत रखने का कॉन्सेप्ट
कहीं-कहीं सावित्री-सत्यवान की कथा भी कही जाती है, लेकिन सावित्री-सत्यवान की कथा असल में जेठ महीने की दुपहरी में होने वाली वट सावित्री पूजा की कथा है, करवाचौथ की नहीं. संभवतः ऐसी ही कथाओं के कारण करवा चौथ के साथ पति की लंबी आयु की कामना और पति पूजा का कॉन्सेप्ट इस व्रत से जुड़ता चला गया होगा, जिसे फिल्मों और बाजार ने आगे चलकर खूब भुनाया और ये फायदे का सौदा भी साबित हुआ.
बहुत सादगी से हुआ करता था करवा चौथ का व्रत
लेकिन इस सौदे से नुकसान सनातन की लोक परंपरा का हुआ है, जहां करवा चौथ के व्रत से पहले द्वार से या खेत से मिट्टी के पांच ढेले माताएं उठा लाती थीं. उन्हें गंगाजल के छीटों से पवित्र करती थीं. उस माटी में लोकदेवता गणेश की मौजूदगी की कल्पना करती थीं. उनके साथ एक गौरा माई की आकृति बनाती थीं और इस पूजा के जरिए वह घर-परिवार, पड़ोस-पर्यावरण सभी के लिए मनौची मांग लिया करती थीं.
यही वजह है कि हमारे यहां कहावतों में भी माटी के माधव, गोबर गणेश, मिट्टी के शेर, जैसे वाक्यांश प्रचलित हैं, क्योंकि शक्ति और सामर्थ्य का स्त्रोत तो प्रकृति ही है. गणेश इसी प्रकृति के प्रतीक और नायक भी हैं और चतुर्थी उनकी प्रधान तिथि है. इसीलिए करवा चौथ का व्रत किया जाता रहा है. धीरे-धीरे यह लोक पर्व बन गया.