भारत ने इस हफ्ते दो अहम मिशन पूरे किए- एक मिशन के तहत भारत के अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला 10 जून को एक्सिओम के निजी अंतरिक्ष मिशन पर जाने के लिए तैयार हैं तो दूसरा भारतीय मिशन अभी अभी वाशिंगटन डीसी में समाप्त हुआ है- यह कोई वैज्ञानिक नहीं बल्कि एक रणनीतिक मिशन था. ऑपरेशन सिंदूर के बाद पिछले कुछ हफ्तों में भारतीय सांसदों, राजनयिकों और रणनीतिक विचारकों का सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल अमेरिका की राजधानी पहुंचा.
लंबे समय से सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ भारत की प्रतिक्रिया नपी-तुली रही है. पश्चिमी देशों के नजरिए से कहें तो, यह प्रतिक्रिया आसानी से नजरअंदाज की जाने वाली रही है. लेकिन इस बार नहीं. इस बार, भारत ने साफ कर दिया है कि आतंक का जवाब दिया जाएगा, उसके स्पॉन्सर्स को बेनकाब किया जाएगा और कहकर बदला लिया जाएगा.
इस ऑपरेशन की जानकारी अमेरिका समेत दुनियाभर के देशों में देने गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल की बैठकें महज टिक-बॉक्स डिप्लोमेसी नहीं थी बल्कि वो सॉलिड, हाई लेवल की थी और उनका संदेश साफ था. अमेरिकी सीनेट की विदेश संबंध समिति, सदन की सशस्त्र सेवा समिति, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों के वरिष्ठ सीनेटरों और उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के साथ बातचीत में भारत की उपस्थिति मजबूत थी और उसका संदेश साफ तौर से तीखा था.
अमेरिका जाना समर्थन मांगना नहीं बल्कि...
भारत का अमेरिका के पास जाना समर्थन मांगना नहीं बल्कि अपनी भू-राजनीतिक स्थिति को पुख्ता करना था. दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, हिंद-प्रशांत स्थिरता में एक रणनीतिक साझेदार और एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में, भारत अमेरिका में एक साधारण सच्चाई के साथ गया कि जब वो कोडर, अंतरिक्ष यात्री और नई चीजें निर्यात कर रहा है, पाकिस्तान दशकों से केवल चरमपंथ का निर्यात करता रहा है.
वाशिंगटन डीसी के नेशनल प्रेस क्लब में डॉ. शशि थरूर और राजदूत तरनजीत सिंह संधू सहित भारत के सबसे बड़े बुद्धिजीवियों ने भारत के रुख को बड़े ही साफ शब्दों में पेश किया- लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे अलग-अलग बैनरों के तहत काम करने वाले आतंकी नेटवर्क का कनेक्शन पाकिस्तान से रहा है. ये पुराने आरोप नहीं हैं बल्कि ये तथ्य हैं जिनके सबूत भी हैं. ओसामा बिन लादेन संयोग से एबटाबाद में नहीं आया था. वॉल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकार डेनियल पर्ल के हत्यारे अचानक गायब नहीं हो गए, उन्हें पनाह दी गई थी. 2008 का मुंबई हमला जिसमें छह अमेरिकी नागरिक मारे गए थे, उन आतंकी समूहों ने किया था जो आज भी पाकिस्तान में खुलेआम काम करते हैं.
भारत की नकल करने चला था पाकिस्तान, औंधे मुंह गिरा
जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल अमेरिका में था, पाकिस्तान हताशा में कूटनीतिक जवाबी हमला करने की कोशिश कर रहा था. बिलावल भुट्टो जरदारी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल, जो पाकिस्तान की त्रासदी और अव्यवस्था दोनों का प्रतीक है, डीसी में एक परिचित रणनीति के साथ उतरा: हमले को कम करके आंकना, ध्यान भटकाना और आतंक को स्पॉन्सर करने से इनकार करना. लेकिन इस बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान का स्वागत बेहद ही ठंडे मिजाज के साथ संदेहपूर्ण तरीके से हुआ.
अमेरिका-दक्षिण एशिया संबंधों में शामिल रहे अमेरिकी सांसद ब्रैड शेरमन ने भुट्टो के साथ बैठक में उनकी बातें सुनने के बजाए जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर दी जिससे साफ हो गया कि पाकिस्तान की विश्वसनीयता किस हद तक गिर चुकी है.
कुछ भारतीय आलोचकों ने सवाल किया कि क्या भारत को अमेरिका से बातचीत के जरिए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल को वाशिंगटन आने से नहीं रोकना चाहिए था? शायद ऐसा हो सकता था. लेकिन डिप्लोमेसी थियेटर नहीं है. यह गति और स्मृति है, और गुरुवार को भारत ने दोनों को ही अपने कब्जे में ले लिया.
अमेरिका में भारत की कूटनीतिक मौजूदगी के केंद्र इंडियन हाउस में आयोजित एक हाई-प्रोफाइल डिनर में भारत की सॉफ्ट पावर की ताकत दिखी. अमेरिकी कांग्रेस के अठारह सांसद, व्हाइट हाउस के वरिष्ठ कर्मचारी और पश्चिमी मीडिया के प्रमुख लोग, जिनमें सीएनएन के वुल्फ ब्लिट्जर भी शामिल थे, औपचारिकता के लिए नहीं, बल्कि खुलकर बातचीत के लिए जमा हुए. यह सम्मान का प्रदर्शन था. यह अमेरिकी नीति इकोसिस्टम में भारत के हाई स्टेटस का संकेत था.
और जब पिछला सप्ताह समाप्त होने वाला था, भारत ने एक और कूटनीतिक कदम उठाया. शुक्रवार को प्रतिनिधिमंडल ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सबसे अनुभवी खिलाड़ियों में से एक, उप विदेश मंत्री लैंडौ से मुलाकात की. उन्होंने आतंक के खिलाफ भारत की प्रतिक्रिया के लिए अमेरिकी समर्थन की पुष्टि की. यह उनका समर्थन भर नहीं था बल्कि यह बताना भी था कि भारत-अमेरिका रणनीतिक रूप से साथ हैं.
दो देशों की कहानी जो बिल्कुल अलग हैं
वाशिंगटन में जो कुछ हुआ वह द्विपक्षीय बैठकों से कहीं अधिक था. यह दो देशों की कहानी थी, जो विपरीत दिशाओं में जा रहे थे.
पहला देश जो कि उभरता हुआ लोकतांत्रिक ताकत है, जो सितारों तक पहुंच रहा है, निजी मिशनों पर अंतरिक्ष यात्री भेज रहा है, नए तकनीक पर काम कर रहा है और ग्लोबल साउथ की पॉलिटिक्स में लीडर की भूमिका निभा रहा है. वहीं, दूसरा एक ऐसा असफल देश है जिसपर सेना के जनरल शासन कर रहे हैं, जो रणनीतिक ब्लैकमेल का आदी है, और आतंकवाद के पुराने हथियार से चिपका हुआ है.
पहला देश नैतिक अधिकार, आर्थिक ताकत और रणनीतिक दृष्टि के साथ सामने आया. दूसरा बहाने और दोष का चोला ओढ़कर आया.
वाशिंगटन में भारत का संदेश सिर्फ पाकिस्तान के बारे में नहीं था. यह वैश्विक मंच पर भारत की बदलती स्थिति के बारे में भी था. भारत रणनीतिक स्पष्टता की ओर बढ़ रहा है जो आतंक के स्पॉन्सर देश का खुलेआम नाम लेता है, पारस्परिक भागीदारी की मांग करती है, और बहुपक्षीय जगहों पर दोयम दर्जे की भूमिका निभाने से इनकार करता है.
यह परिवर्तन सिर्फ कूटनीतिक नहीं है. यह मनोवैज्ञानिक है. यह एक घोषणा है कि भारत अपनी रेड लाइन तय करेगा, जवाबी कार्रवाई करेगा और अब कश्मीर, काबुल या कैपिटल हिल के गलियारों का नैरेटिव कब्जाने नहीं देगा.
जब शुभांशु शुक्ला पृथ्वी के ऊपर शून्य गुरुत्वाकर्षण में तैरने की तैयारी कर रहे थे, तब भारत की कूटनीतिक मशीनरी जमीन पर कमाल कर रही थी. भारत ने अब कानाफूसी करना बंद कर दिया है. अब भारत बोल रहा है और दुनिया, खास तौर पर पश्चिमी देश आखिरकार इसे सुन रहे हैं. आप पाकिस्तान? उसके पास न तो वक्त बचा है, न पैसा और न ही कहानियां.
(रोहित शर्मा वाशिंगटन डीसी में रहने वाले एक पुरस्कार विजेता पत्रकार हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)