प्रतिस्पर्धी खेलों में सबसे खतरनाक शब्द हार नहीं होता, उसका डर होता है. भारतीय क्रिकेट टीम के कोच गौतम गंभीर जिस तरह लगातार टूटती-बिखरती पिचों पर खेलने की वकालत कर रहे हैं, वह दरअसल टीम की रणनीतिक उलझन और मानसिक झिझक का संकेत है.
दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ पहले टेस्ट की अंतिम पारी में भारत के एक और ढहने के बाद गंभीर ने फिर दोहराया- हमें इसी तरह की पिच चाहिए. उनकी दलील है कि ऐसी पिचें टॉस का असर कम कर देती हैं.लेकिन इस सोच की खामियां कहीं गहरी हैं.
गंभीर का यह एग्रो-स्टाइल आत्मविश्वास भले बाहर से रणनीति जैसा दिखे, पर भीतर यह एक तरह का रणनीतिक समर्पण है. पूरी त्रुटि दो हिस्सों में बंटी है.
1. गंभीर कहते हैं कि ये ‘रैंक टर्नर्स’ (बहुत अधिक घूमने वाली पिचें) टॉस को बेअसर कर देते हैं. सच इसके विपरीत है- ऐसी पिचें टॉस को सबसे निर्णायक फैक्टर बना देती हैं.
जब विकेट पहले दिन से ही टूटने लगे, तो चौथी पारी में बल्लेबाजी करना लगभग असंभव हो जाता है. यानी अगर भारत टॉस हार जाए, तो वह खुद ही ऐसी सतह पर अंतिम पारी खेलने को मजबूर होता है, जो उसकी हार को तेज कर देती है.
हालात यही बता रहे हैं- भारत टॉस हारता है, चौथी पारी में संघर्ष करता है, और ढह जाता है. इसके बावजूद गंभीर अपनी ही ‘तर्कहीन जिद’ पर अड़े हुए हैं.
2. दूसरी और कहीं गंभीर समस्या है मानसिकता की. इस रणनीति का मूल संदेश सीधा है- हम चौथी पारी में पीछा नहीं कर सकते.'
पुरानी भारतीय क्रिकेट सोच क्या थी? पहली पारी में जितना संभव हो उतना बड़ा स्कोर और फिर विपक्ष को ढहा दो.
इसने पीढ़ियों तक भारतीय बल्लेबाज़ों-बॉलरों को अपने खेल का मालिक बनाया, न कि पिच का गुलाम.
गंभीर की सोच इस दर्शन को उलट रही है. अब खेल का नियंत्रण बैटर से हटकर पिच के हाथ में चला गया है. मतलब- हमारे बल्लेबाज नहीं कर पाएंगे, इसलिए पिच कर देगी.
यह विचारधारा पूरी तरह से आधुनिक, निडर मानसिकता के विपरीत है, जिसे बैजबॉल ( (क्रिकेट की एक आक्रामक और तेज खेल शैली) के रूप में जाना जाता है. इंग्लैंड जैसी टीमें हर चुनौतीपूर्ण लक्ष्य को हमले का अवसर मानती हैं, रन रेट के जरिए पिच को बेअसर करती हैं और विपक्षी टीम की आत्मा तोड़ देती हैं.
गंभीर की सोच डर पर टिकी है और डर किसी भी टेस्ट मैच को नहीं जीतता
कमजोर होते बल्लेबाज, बढ़ता जोखिम
रणनीति की उलझन तब और आश्चर्यजनक लगती है जब भारतीय बल्लेबाजी के पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े सामने आते हैं.
2013 से 2020 के बीच भारत घर में लगभग अजेय था- 34 में 28 टेस्ट जीते, सिर्फ एक हार. लेकिन पिछले 6 घर के टेस्ट में भारत 4 बार हारा है. दो जीतें भी एक कमजोर वेस्टइंडीज के खिलाफ आईं.
यह गिरावट मुख्य रूप से बल्लेबाजी के कारण आई है.
2013–2020 के दौरान भारतीय बल्लेबाज़ 44.05 रन प्रति विकेट औसतन बनाते थे. 2024 तक यह एवरेज 34 से भी नीचे चला गया, सभी बड़ी टीमों में सबसे खराब गिरावट.
2024 में न्यूजीलैंड सीरीज के दौरान सिर्फ दो भारतीय बल्लेबाज 40 से ऊपर औसत पर थे- वॉशिंगटन सुंदर (दो बार नाबाद रहने के कारण) और ऋषभ पंत.
मिचेल सैंटनर ने 13 विकेट 12 की औसत से निकाले, जबकि एजाज पटेल ने 15 विकेट 23 की औसत से हासिल किए. यानी डरावने स्पिनर भी नहीं-साधारण गेंदबाज भारत को तोड़ रहे हैं.
अब स्पिन खेल ही नहीं पा रहे
तथ्य साफ हैं- 2021 के बाद भारत के लगभग हर मुख्य बल्लेबाज ने स्पिन को बेहद खराब खेला है. ESPN की एक स्टडी के अनुसार, 2016–2020 में भारतीय टॉप-7 बल्लेबाज़ों का घरेलू एवरेज- 54.43 रहा. 2021 के बाद यही औसत गिरकर 38.30 पर जा टिका.स्पिन के खिलाफ औसत 63.36 से गिरकर 37.56- यानी 40% की गिरावट.
यह गिरावट सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं—यह भारतीय क्रिकेट की आत्मा पर चोट है. जब बल्लेबाज़ ही स्पिन नहीं खेल पा रहे, तब पिच को और मुश्किल बनाना किस तर्क का हिस्सा है?
(संदीपन शर्मा, हमारे अतिथि लेखक. क्रिकेट, सिनेमा, संगीत और राजनीति पर लिखते हैं. उनका मानना है कि ये सभी क्षेत्र आपस में गहराई से जुड़े हैं.)