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तनाव, व्यस्त जीवनशैली से बढ़ी कृत्रिम गर्भाधान की मांग

इन-विट्रो फर्टीलाइजेशन (आईवीएफ) या कृत्रिम गर्भाधान को पहले मध्यम आयु की महिलाओं में गर्भधारण सम्बंधी परेशानियों के निदान के लिए जाना जाता था. अब तनावपूर्ण जीवन, काम के लम्बे घंटों और देर से विवाह होने के चलते इस पर निर्भर शहरी युवतियों की संख्या बढ़ती जा रही है.

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इन-विट्रो फर्टीलाइजेशन (आईवीएफ) या कृत्रिम गर्भाधान को पहले मध्यम आयु की महिलाओं में गर्भधारण सम्बंधी परेशानियों के निदान के लिए जाना जाता था. अब तनावपूर्ण जीवन, काम के लम्बे घंटों और देर से विवाह होने के चलते इस पर निर्भर शहरी युवतियों की संख्या बढ़ती जा रही है.
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आईवीएफ विशेषज्ञ व स्त्री रोग विशेषज्ञ इंदिरा गणेशन कहती हैं, "पहले मेरी जो मरीज आईवीएफ इलाज करवाती थीं, उनमें 38 से 45 आयु वर्ग की महिलाएं ज्यादा होती थीं लेकिन बीते छह साल में इस इलाज के लिए आने वाली महिलाओ के आयु समूह में बदलाव हुआ है."
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उन्होंने कहा, "आज मेरी 70 प्रतिशत मरीज 23 से 32 वर्ष आयु वर्ग की हैं. शहरी क्षेत्रों में ही यह बदलाव देखा जा रहा है. इस बदलाव की कई वजहें हैं. शहरी दम्पति तनाव में रहते हैं, पति और पत्नी दोनों के काम के घंटे लम्बे हैं. उनके पास एक फलदायक रिश्ता विकसित करने के लिए न तो समय है और न धीरज, वे त्वरित परिणाम चाहते हैं."

आईवीएफ प्रक्रिया के तहत मानव शरीर के बाहर शुक्राणुओं द्वारा अंड कोशिकाओं का निषेचन कराया जाता है. मरीज को हार्मोन सम्बंधी इंजेक्शन दिए जाते हैं ताकि उसके शरीर में अंड कोशिकाएं ज्यादा बनें. अंडाणुओं को अंडकोष से निकाल लिया जाता है और नियंत्रित वातावरण में मरीज के साथी के शुक्राणु से उन्हें निषेचित कराया जाता है. इसके बाद सफल गर्भावस्था के मकसद से निषेचित अंडाणु को मरीज के गर्भाशय में स्थानांतरित किया जाता है.

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गणेशन बताती हैं कि आईवीएफ तकनीक के विकास के कुछ समय बाद ही इसे भारत में अपनाया जाने लगा था. दुनिया के पहले आईवीएफ शिशु लुइस ब्राउन का जन्म 25 जुलाई, 1978 को ब्रिटेन में हुआ था. भारत की पहली आईवीएफ शिशु दुर्गा का भी इसी साल तीन अक्टूबर को जन्म हुआ. करीब तीन दशक से आईवीएफ तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है लेकिन बीते कुछ साल से इसकी मांग तेजी से बढ़ी है.

हार्मोन असंतुलन, नलिकाओं में रुकावट या शुक्राणुओं की पूरी तरह से अनुपस्थिति या अपर्याप्त संख्या बांझपन के मुख्य कारण हैं. अब व्यस्त जीवनशैली के चलते भी दम्पत्तियों के लिए परेशानियां खड़ी हो रही हैं.

गुड़गांव के आर्टिमिस हेल्थ इंस्टीट्यूट की प्रजनन इकाई की प्रमुख इला गुप्ता कहती हैं कि बांझपन की जांच जितनी जल्दी सम्भव हो उतनी जल्दी करा लेनी चाहिए क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ आईवीएफ की सफलता दर भी कम होती जाती है.

उन्होंने कहा, "उम्र बढ़ने के साथ आईवीएफ की सफलता दर कम होती जाती है. एक 30 से 34 साल उम्र की महिला के लिए इसकी सफलता दर 40 से 45 प्रतिशत होती है. 35 साल से अधिक आयु की महिलाओं के लिए यह दर 30 से 35 प्रतिशत होती है. 40 साल की आयु में यह और कम होकर 15 प्रतिशत रह जाती है और इसके बाद तो इसमें केवल पांच प्रतिशत सफलता की सम्भावना होती है."

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