एक देश एक चुनाव पर लॉ कमीशन के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस बलबीर सिंह चौहान ने कहा कि आयोग ने इस बाबत विस्तृत वर्किंग डाक्यूमेंट भी जारी किया था. आयोग चाहता था कि इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों, संविधान और विधि विशेषज्ञों के साथ-साथ आम जनता से भी सीधे विचार लिए जाएं, ताकि सबकी सहमति से जो रास्ता निकले उसे ही सिफारिश का हिस्सा बनाया जाए.
आजतक से खास बातचीत के दौरान जस्टिस चौहान ने कहा कि एक देश एक चुनाव आज के ज़माने और लोकतंत्र में जरूरी ही नहीं बल्कि संविधान के मुताबिक भी है. इससे देश के संघीय ढांचे पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा. उनका मानना है कि इस गंभीर मुद्दे पर व्यापक बहस की जरुरत है.
चौहान का कहना है कि राजनीतिक दल और विशेषज्ञ ऐसा संवैधानिक रास्ता निकालें कि अगर चुनाव के बाद हंग हाउस यानी त्रिशंकुल सदन हो और राजनीतिक दल किसी एक व्यक्ति को सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रीबनाने पर सहमत ना हों तो वैसी स्थिति में क्या किया जाए. यानी ऐसी संवैधानिक व्यवस्था हो कि जिस तरह सदन स्पीकर का चुनाव करता है वैसे ही सदन के नेता का भी चुनाव करे. वही नेता प्रधानमंत्री या फिर मुख्यमंत्री बनाया जाए. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अगर सदन स्पीकर की तरह नेता चुनने को राजी ना हों तो क्या होगा.
'वन नेशन वन इलेक्शन' में यह है पेंच
उनका कहना है कि इसके अलावा एक और पेंच है. अगर लोकसभा या विधानसभा में मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए तो क्या होगा. ऐसे में अगर जरूरत पड़ने पर मिडटर्म पोल हो भी तो बाकी बची हुई अवधि के लिए हो. चौहान का कहना है कि ऐसी व्यवस्था कई देशों में लागू भी है. सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए तो रचनात्मक हो. यानी संसद या सदन ये इंतजाम करे कि सकारात्मक अविश्वास प्रस्ताव आए. ताकि ये तय हो जाय कि अगर मौजूदा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पर सदन का भरोसा नहीं हो तो अगला व्यक्ति कौन होगा जिस पर सदन भरोसा करे. ये फैसला भी लगे हाथों ही होना जरूरी है.
जस्टिस चौहान का कहना है कि इसे लागू करने में सबसे बड़ी अड़चन आ रही है संविधान के अनुसूची 10 से. यह राजनीतिक दलों को व्हिप जारी करने का अधिकार देता है. व्हिप के जरिए ही राजनीतिक दल अपने विधायकों या सांसदों को आदेश जारी करते हैं कि उन्हें वोट के लिए सदन में अनिवार्य रूप से हाजिर रहना जरूरी है और ये भी कि वोट किसे करना है. लेकिन सदन में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव हो तो फिर व्हिप का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.
2002 में बनी थी कॉन्स्टिट्यूशन रिव्यू कमेटी
चौहान ने बताया कि एक देश एक चुनाव का मुद्दा तो काफी पुराना है. 2002 में कन्स्टिट्यूशन रिव्यू कमेटी बनाई गई थी. इसमें जस्टिस वेंकटचलैया, सुभाष कश्यप और के पराशरन भी शामिल थे. उसमें भी एक देश एक चुनाव के समर्थन में सिफारिश की गई थी, लेकिन तब भी 10वीं अनुसूची का मामला उठा था. इसके अलावा विचार विमर्श के दौरान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 85 में संशोधन की ज़रूरत पर भी जोर दिया गया था. क्योंकि यही अनुच्छेद विधानसभा और लोकसभा के कार्यकाल तय करता है. इस अनुच्छेद के मुताबिक निचले सदन की पहली बैठक से ठीक पांच साल तक का कार्यकाल होगा. अब संविधान में सदन का कार्यकाल कम करने का प्रावधान तो सरकार के पास है लेकिन एक्सटेंशन देने का नहीं. यह आपातकाल में ही छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है.