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एक वाजिब फांसी जो वतन के लिए अजाब बन गई

गुरुवार सुबह जल्दी उठ गया फिर भी आदत के मुताबिक टीवी नहीं खोली. हाथ बार-बार रिमोट पर जाता और लौट आता. सुबह-सुबह एक फांसी की खबर देखने का मन नहीं कर रहा था.

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याकूब मेमन की फाइल फोटो
याकूब मेमन की फाइल फोटो

गुरुवार सुबह जल्दी उठ गया फिर भी आदत के मुताबिक टीवी नहीं खोली. हाथ बार-बार रिमोट पर जाता और लौट आता. सुबह-सुबह एक फांसी की खबर देखने का मन नहीं कर रहा था. ऐसा नहीं है कि यह पता न हो कि भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अपराधी के लिए विरल से विरलतम मामले में जब तक फांसी की सजा का प्रावधान है, तब तक उसका इस्तेमाल भी होगा.

वैसे भी, अगर 250 लोगों के हत्यारे के मामले में इस सजा को अमल में नहीं लाया जाएगा तो और कब लाया जाएगा. मौजूदा सांवैधानिक और कानूनी निजाम में यह एकदम उचित सजा है. हां, कल कानून बदल लेंगे तो सजा भी बदल जाएगी. तो फिर खबर देखने सुनने से डर क्यों.

शायद इसलिए कि हम पूरी जिंदगी, जीवन बचाने, संवारने और लहलहाने के संस्कारों में पले-बढ़े हैं. वहां कभी हत्या का संस्कार नहीं दिया जाता. नैतिक शिक्षाओं के जरिए हमारे अंत:करण को गहराई तक प्रभावित करने वाली धार्मिक मान्यताओं में क्षमा की महिमा दंड से बड़ी है. दूसरी तरफ हमारी परंपरा में जान पर खेल जाने वाली मिसालों की भरमार है. किसी मुद्दे पर जान न्योछावर करने वाले प्रसंगों की भी तारीफ है. युद्ध में अपने बैरी का सिर काटकर नेचे पर घुमाने वाले योद्धाओं की पूजा भी है. और हमारे दशावतार तो पापियों का संहार करने की बड़ी मशीन जैसे हैं. लेकिन ध्यान दीजिए कि पुरानी कहानियों में मृत्युदंड भी ऐसे सुनाई देंगे, जैसे ऑन द स्पॉट फैसला हो रहा हो. ऐसी मिसालें कम मिलेंगी जब बंदी को लंबे समय कैद में रखकर बाद में मृत्युदंड दिए जाने की महिमा का वर्णन किया गया हो. ठंडे दिमाग से किए गए कत्ल को भारतीयता में हमेशा नीची निगाह से देखा गया है.

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आई गौरी और चौहान की याद
यहां पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के प्रसंग की बरबस याद आती है. ऐतिहासिक तौर पर पहली लड़ाई चौहान ने जीती और गौरी भाग निकला, वहीं दूसरी लड़ाई गौरी ने जीती और चौहान मारे गए. लेकिन लोक ने इस ऐतिहासिक तथ्य को अपने मानस में दूसरे ढंग से बुना. वहां पृथ्वीराज चौहान सात बार मुहम्मद गौरी को हराते हैं और हर बार उसे माफ कर देते हैं. वहीं, आठवीं बार जब गौरी जीतता है तो चौहान को कैद में रखता है और तिल-तिल कर मारता है. और क्लाईमेक्स में आंखें फोड़ दिए जाने के बावजूद जंजीरों में जकड़े राय पिथौरा शद्ब्रदभेदी बांण से गौरी को मार गिराते हैं.

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘हिंदुस्तान की कहानी’ में इस प्रसंग को कुछ इस तरह समझाया है- एक इतिहास वह होता है, जिसमें घटित घटना दर्ज होती है. दूसरा इतिहास लोक इतिहास होता है, इसमें असल इतिहास के बजाय घटना का वह वर्णन होता है जिसमें लोक की तमन्ना प्रतिबिंबित होती हैं. लोक चौहान के रूप में अपने नायक को वीर, दयालु और विजेता दिखाना चाहता था और उसने वैसा ही किया. नेहरू जी के मुताबिक असली इतिहास की तुलना में लोकमन में घटित यह काल्पनिक इतिहास समाजों का भविष्य तय करता है. यानी भारतीय समाज सात बार गौरी को माफ करने वाले चौहान को वीर और महान मान रहा है, मूर्ख और अकुशल रणनीतिकार नहीं तो वह इसलिए कि भारतीय समाज के संस्कार में क्षमा और दरियादिली, सजा और बदले से बड़ी चीज है.

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लेकिन आज याकूब मेमन की फांसी के वक्त यह हजार साल पुराना प्रसंग हमारी कितनी मदद कर पाएगा? क्योंकि बंबई बम कांड का दोषी मेमन न तो चौहान की श्रेणी में आता है और न ही गौरी की. और इस समय यह दलील देना, कि बंबई बम कांड की पृष्ठभूमि में चार महीने पहले का बाबरी मस्जिद ध्वंस भी था और बाबरी कांड के कुछ दागी आज केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल जैसे पदों पर बैठे हैं, भी बेमानी है.

आखिर कोई फैसला तो अंतिम होना था...
याकूब की फांसी अपरिहार्य हो गई थी, क्योंकि अगर वह न होती तो सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जैसी सांवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता भी शक के दायरे में आ जाती है. आखिर कोई फैसला तो अंतिम फैसला होना ही था. यह सजा एक राष्ट्र अपने गुनहगार को दे रहा था, न कि कोई व्यक्ति‍, किसी व्यक्ति‍ को. यानी आतंकवाद के खिलाफ कड़ा संदेश देने वाले राष्ट्र के पास भावुकता की गुंजाइश नहीं थी. ऐसे कठिन मौकों पर राष्ट्र मशीन की तरह सख्त हो जाता है. लेकिन जनता ऐसा नहीं कर सकती. क्योंकि हर तरह की अति से अरुचि भारतीयता की दूसरी बड़ी खासियत है. उसे बड़े से बड़े अपराध पर गुस्सा आता है तो सख्त सजा देते वक्त उसका दिल पसीजने लगता है. समाज सोचने लगता है कि चलो जो हुआ सो हुआ. और जब हुआ तब हुआ. 20 साल पहले का गुनहगार क्या आज भी उतना ही खतरनाक है. अगर उसे जिंदा छोड़ देंगे तो क्या गजब हो जाएगा.

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बेहतर होता राष्ट्र अपनी प्रजा को इस अमानवीय अजाब से बचाता. उसे कोई जरूरत नहीं थी कि फांसी की सजा की इतने पहले से घोषणा करता. उसके बाद उस पर एक पखवाड़े तक टीवी पर सनसनीखेज बहस होने देता. इसे एक महान राष्ट्रवादी जश्न या एक मध्ययुगीन बर्बरता के तौर पर प्रचारित किए जाने के विकल्प खुले छोड़ता.

राष्ट्र को एक फोड़े की तरह इसका चुपचाप ऑपरेशन करना चाहिए था, ताकि जब किसी दिन लोग टीवी खोलते तो अचानक खबर आती कि एक गुनहगार को फांसी दे दी गई. तब लोगों के मन में यह अनावश्यक अपराधबोध नहीं होता कि वे सुबह टीवी खोलेंगे तो अपने आप ही एक राष्ट्र नियोजित हत्या को रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाने का अपराध बोध खुद पर लाद लेंगे.

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