जून का महीना आते ही सूर्य देव अपनी सारी एनर्जी धरती पर खर्च करने लगे हैं. ऐसे में भड़कते सूरज और कड़कती धूप को मिटाने का यही खालिस देशी अंदाज रास आता है.
गर्मी के ताप ने मोहल्ले की गलियां भले ही सूनी कर रखी हों, लेकिन नदिया किनारे नजारा गुलजार है.
क्या इंसान, क्या जानवर गर्मी से सबका हाल बेहाल है.
गर्मी के इस आलम में घर से बाहर निकलने के लिए दो चीज़ें अनिवार्य हैं. पहला काम है हौसला जुटाना. और दूसरा, सर ढंक कर निकलना ताकि गर्म हवाओं के थपेड़ों से खुद की हिफाजत की जा सके.
बढ़ती गर्मी और बिजली की रुसवाई के बीच लंबे-लंबे दिन काटे नहीं कटते.
जून के महीने में सूरज जब आग उगलता है तो पापी पेट के लिए भी बाहर निकलना खलता है. और जब सारी एनर्जी खत्म हो जाती है तो आराम करने का यह जुगाड़ देश के हर कोने में नजर आता है.
तन से बहे पसीना खारी...क्या होगा राम. बोला गीदड़ आग लगी है...कहां करें विश्राम.
क्लीयर है...गर्मी सबको लगती है, गला सबका सूखता है.
सिर्फ बिजली ही नहीं, ट्रेनों की लेटलतीफी से भी लोग 'सफर' कर रहे हैं. ऊपर से सवारी गाड़ी में पानी नहीं हो, तो कोई क्या करे!
बिजली बिना एसी और कूलर वैसे भी डब्बे समान ही हैं. तो इस विकल्प में क्या हर्ज है जनाब?
उफ्फ ये गर्मी! गर्म हवाओं से झुलसे चेहरों को तरोताजा रखने की कवायद.
गर्मी से राहत पाने की जुगत में बच्चे...