बात साल 1927 की है, जब उर्दू में छपी एक किताब को लेकर भारत में धर्म पर हिंसा की आग भड़की और ये आग इतनी खतरनाक थी कि किताब के पब्लिशर की दुकान में घुसकर हत्या कर दी गई. ये किताब भी उस वक्त पब्लिश हुई थी, जब लाहौर (पहले भारत का हिस्सा था) सांप्रदायिक विवादों को लेकर चर्चा में था. इस किताब से देश के हालात इतने खराब हो गए कि अंग्रेजों को भारत में ईशनिंदा कानून लागू करना पड़ा. जानिए पूरी कहानी...
ये कहानी इस वक्त इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि उदयपुर के कन्हैया लाल केस पर बनी फिल्म 'उदयपुर फाइल्स' की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है. दरअसल, तीन साल पहले उदयपुर में कन्हैया लाल एक दर्जी (टेलर) की हत्या के पीछे धार्मिक उन्माद और सोशल मीडिया पर एक पोस्ट को लेकर उपजा विवाद था. कन्हैया लाल पर आरोप था कि उन्होंने अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल से उस पोस्ट को फॉरवर्ड किया था, जिसमें पैगंबर मोहम्मद पर दिए गए विवादित बयान का समर्थन किया गया था.
फिलहाल, अब फिल्म का मामला कोर्ट में है. इस मामले में 21 जुलाई को सुनवाई होनी है.
किस किताब की हो रही है बात...
अब बात उस किताब की, जिसने 'ईशनिंदा' कानून को अस्तित्व में लाया. ये उर्दू भाषा में किताब है- 'रंगीला रसूल'. इस किताब के प्रकाशक थे- महाशय राजपाल. 1920 के दशक में छपी इस किताब को लेकर काफी विवाद हुआ था. बात यहां तक पहुंच गई कि किताब को लेकर 'धर्म युद्ध' का ऐलान कर दिया गया. जुलाई 1927 में तो दिल्ली की जामा मस्जिद में इसे लेकर विरोध हो रहा था और इस विरोध में मौलाना मोहम्मद अली ने कहा था, 'अगर आप रसूल के लिए जेहाद करने को तैयार हैं तो अल्लाह के आदेश का इंतजार करें... ' जो एक धर्म युद्ध के ऐलान की तरह ही था.
दो साल से भी कम समय में अप्रैल 1929 में ही मौलाना अली की बयानबाजी सच साबित हुई. दरअसल, लाहौर में एक मस्जिद के पास भारी भीड़ 'हिंदू पब्लिशर' के खिलाफ नारे लगा रही थी, उसी वक्त 19 साल का इल्म-उद-दीन वहां से गुजरा. उस वक्त उसने सुना कि एक शख्स ने कहा- 'राजपाल ने अपनी किताब से हमारे प्यारे पैगम्बर मुहम्मद का अपमान करने की कोशिश की है.'
इस बात से 19 साल का ये युवक इतना भड़क गया कि उसने ऐसा कदम उठाया, जो हैरान कर देने वाला था. उस युवक ने किताब की दुकान में घुसकर महाशय राजपाल की चाकू मारकर हत्या कर दी गई.
हर तरफ थी अशांति...
साल 1924 में 'रंगीला रसूल' का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ था, जब पंजाब और विशेषकर लाहौर, सांप्रदायिक विवादों का केंद्र बना हुआ था. आर्य समाज ने इस्लाम समेत रूढ़िवादिता का विरोध किया था. इसके जवाब में मुस्लिम विद्वानों और प्रकाशकों ने आर्य समाज की ओर से इस्लाम की निंदा का जवाब देने के लिए अपमानजनक और भड़काऊ भाषा का प्रयोग करते हुए पुस्तकें प्रकाशित कीं.
किताबों के शीर्षक और विषय-वस्तु में हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान किया गया. तनाव इतना बढ़ गया था कि मालाबार, बॉम्बे, बिहार, ओडिशा और बंगाल में झड़पें और दंगे हुए थे.
बीआर अंबेडकर ने 1945 में अपनी पुस्तक 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में लिखा था कि साल 1927-28 में अप्रैल की शुरुआत और सितंबर 1927 के अंत के बीच कम से कम 25 दंगे हुए. इनमें से 10 संयुक्त प्रांत में छह बॉम्बे प्रेसीडेंसी में और दो-दो पंजाब, मध्य प्रांत, बंगाल, बिहार और ओडिशा में और एक दिल्ली में हुआ.
अंबेडकर ने आगे कहा, इनमें अधिकांश दंगे दोनों समुदायों में से किसी के त्योहार मनाने के दौरान हुए, जबकि कुछ दंगे मस्जिदों के आसपास हिंदुओं द्वारा संगीत बजाने या मुसलमानों द्वारा गायों की हत्या के कारण हुए. इन दंगों में 103 लोग मारे गए और 1,084 घायल हुए थे. इस माहौल में 'रंगीला रसूल' ने सूखी घास पर माचिस का काम किया.
किताब में ऐसा क्या लिखा था?
इस किताब में पैंगबर मुहम्मद और उनके विवाह समेत कई व्यक्तिगत जानकारी लिखी गई थी. यह पुस्तक पंडित चम्पोवती के छद्म नाम से लिखी गई थी. खास बात ये है कि ये अभी भी सामने नहीं आया और कई धमकियों के बावजूद पब्लिशर ने किताब के वास्तविक लेखक का नाम बताने से इनकार कर दिया था.
इस किताब को लेकर काफी विवाद हुआ और मामला कोर्ट में गया. मई 1927 में लाहौर हाईकोर्ट के जज दलीप सिंह ने फैसला सुनाया कि राजपाल पर मौजूदा कानून के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
उस समय धर्म से जुड़े अपमान से संबंधित कोई कानूनी प्रावधान ही नहीं था. भारत के कई इलाकों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल और बदले की धमकियां सामने आईं. बढ़ते विवाद को देखते हुए ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय दंड संहिता में संशोधन किया.
इसके बाद साल 1927 में धारा 295A लागू की गई, जिसके तहत जानबूझकर और दुर्भावनापूर्वक धार्मिक विश्वासों का अपमान करना एक आपराधिक अपराध बना दिया गया. इस तरह भारत में ईशनिंदा पर कानून लागू हो गया.