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बिजनेस

क्या सरकार के सुधारों से ही हो रहा है अर्थव्यवस्था का बंटाधार?

क्या सरकार के सुधारों से ही हो रहा है अर्थव्यवस्था का बंटाधार?
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अगर सरकारी बैंकों का विलय इतना ही क्रांतिकारी है तो फिर बाजार यह क्यों कह रहा है कि यह अगले कुछ वर्ष तक बैंकों पर बड़ा भारी पड़ेगा? अगर इलेक्ट्रिक वाहनों की इतनी जरूरत है तो फिर नीति और रियायतों के ऐलान के बाद सरकार को क्यों लगा कि जल्दबाजी ठीक नहीं है? वक्त की समझ ही नीतियों को सुधार बनाती है. (Photo: Getty)
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बैंकों का विलय
बैंकों का महाविलय अभी क्यों प्रकट हुआ? यह फाइल तो वर्षों से सरकार की मेज पर है. बैंकों को कुछ पूंजी देकर एक चरणबद्ध विलय 2014 में ही शुरू हो सकता था. या फिर स्टेट बैंक (सहायक बैंक) और बैंक ऑफ बड़ौदा (देना बैंक) के ताजा विलय के नतीजों का इंतजार किया जाता. इस समय मंदी दूर करने के लिए सस्ते बैंक कर्ज की जरूरत है लेकिन अब बैंक कर्ज बांटने की सुध छोड़कर बहीखाते मिला रहे हैं और घाटा बढ़ने के डर से कांप रहे हैं.
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नुकसान घटाने के लिए कामकाज में दोहराव खत्म होगा यानी नौकरियां जाएंगी. बैंकों के पास डिपॉजिट पर ब्याज की दर कम करने का विकल्प नहीं है, जमा टूट रही है तो फिर वह रेपो रेट के आधार पर कर्ज कैसे देंगे? यह सुधार भी बैंकों के हलक में फंस गया. (Photo: Getty)
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मंदी की वजह से रेरा बेदम  
रियल एस्टेट रेगुलेटरी बिल (रेरा) एक बड़ा सुधार था. लेकिन यह आवास निर्माण में मंदी के समय प्रकट हुआ. नतीजतन असंख्य प्रोजेक्ट बंद हो गए. डूबा कौन? ग्राहकों का पैसा और बैंकों की पूंजी. अब जो बचेंगे वे मकान महंगा बेचेंगे. रिजर्व बैंक ने यूं ही नहीं कहा कि भारत में मकानों की महंगाई सबसे बड़ी आफत है और यह बढ़ती रहेगी, क्योंकि कुछ ही बिल्डर बाजार में बचेंगे.
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जल्दबाजी में डूबा ऑटो सेक्टर?
ऑटोमोबाइल की मंदी गलत समय पर सही सुधारों की नुमाइश है. मांग में कमी के बीच डीजल कारें बंद करने और नए प्रदूषण के नियम लागू किए गए और जब तक यह संभलता, सरकार बैटरी वाहनों की दीवानी हो गई. इन सबकी जरूरत थी लेकिन क्या सब एक साथ करना जरूरी था? नतीजे सामने हैं. कई कंपनियां बंद होने की तरफ बढ़ रही हैं.
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शेयर बाजार पर टैक्स का बोझ
एक और ताजा फैसला. जब शेयर बाजार, अर्थव्यवस्था की बुनियाद दरकने से परेशान था तब उस पर टैक्स लगा दिए गए. बाजार पर टैक्स पहले भी कम नहीं थे लेकिन बेहतर ग्रोथ के बीच उनसे बहुत तकलीफ नहीं हुई. सरकार जब तक गलती सुधारती तब तक विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकाल कर रुपए को मरियल हालत में ला चुके थे. (Photo: Getty)
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बिना तैयारी पर प्लास्टिक पर प्रहार
सिंगल यूज प्लास्टिक बंद होना चाहिए लेकिन विकल्प तो सोच लिया जाता. इस मंदी में केवल प्लास्टिक ही एक सक्रिय लघु उद्योग है. यह फैसला इस कारोबार पर भारी पड़ेगा.

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वक्त-वक्त की बात है
वैट या वैल्यू एडेड टैक्स, आज के जीएसटी का पूर्वज था. उसे जिस समय लागू किया गया (2005) तब देश की अर्थव्यवस्था बढ़त पर थी. सुधार सफल रहा. खपत बढ़ी और राज्यों के खजाने भर गए. लेकिन जीएसटी जब अवतरित हुआ तब नोटबंदी की मारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह घिसट रही थी, जीएसटी खुद भी डूबा और कारोबारों व बजट को ले डूबा. इसलिए ही तो मंदी में टैक्स सुधार उलटे पड़ते हैं.
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सुधार के लिए सही वक्त का इंतजार
सुधार की सामयिकता का सबसे दिलचस्प सबक रुपए के अवमूल्यन के इतिहास में दर्ज है. आजादी के बाद रुपए का दो बार अवमूल्यन हुआ. एक 6.6.66 को जब इंदिरा गांधी ने रुपए का 57 फीसद अवमूल्यन किया. 1965 के युद्ध के बाद हुआ यह फैसला उलटा पड़ा और अर्थव्यवस्था टूट गई और असफल इंदिरा गांधी लाइसेंस परमिट राज की शरण में चली गईं. दूसरा अवमूल्यन 1991 में हुआ वह भी 72 घंटे में दो बार. उसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मुड़कर नहीं देखा. (Photo: Getty)
(देश की अर्थव्यवस्था को लेकर यह रिपोर्ट इंडिया टुडे हिंदी के एडिटर अंशुमान तिवारी की है. जिसे हमने उनके 'अर्थात्' कॉलम से लिया है)

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