उत्तर प्रदेश का दक्षिण-पूर्वी ज़िला प्रतापगढ़ (Pratapgarh) अपने विटामिन-सी से भरपूर फल आंवले के लिए देश-दुनिया में मशहूर है. सूबे की सरकार ने आंवले को 'एक ज़िला, एक उत्पाद (One District One Product)' स्कीम में शामिल किया है, जिसके तहत सरकार आंवला किसानों को कई तरह की सहूलियत और मदद मुहैया करवाने का दावा करती है. इसके इतर, पिछले दिनों संसद में बजट सत्र (Budget Session 2025) के दौरान प्रतापगढ़ लोकसभा सीट से सांसद एसपी सिंह पटेल ने आंवला किसानों के सामने आने वाली परेशानियों का ज़िक्र किया. इसके साथ ही उन्होंने सरकार के सामने कुछ डिमांड्स भी रखी.
समाजवादी पार्टी से सांसद एसपी सिंह पटेल ने 03 अप्रैल 2025 को बजट सत्र के दौरान संसद में कहा था, "मैं सरकार का ध्यान आंवला उत्पादन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर आकर्षित करना चाहता हूं. ज़िले में आंवला प्रोसेसिंग के लिए उद्योग या फ़ैक्ट्री स्थापित नहीं है, जिससे किसानों को मजबूरी में अपनी उपज को कम दामों में बेचना पड़ता है. इसलिए मैं सरकार से गुज़ारिश करता हूं कि प्रतापगढ़ में एक आंवला आधारित फ़ैक्ट्री और उद्योग स्थापित करने की दिशा में त्वरित एक्शन लिया जाए."
आंवले को बिना पूंजी का व्यवसाय माना जाता है क्योंकि आंवले का पेड़ एक बार लगा देने से कई साल तक फल देता है. लेकिन मौजूदा हालात ये हैं कि बड़े स्तर पर खेती करने वाले कई किसानों ने आंवले के सैकड़ों पेड़ कटवा दिए. प्रतापगढ़ के आंवला किसानों को सामने कई तरह की मुश्किलें हैं:
प्रतापगढ़ में साल 1975 के आस-पास गोंडे के निवासी आंवला किसान ज्वाला सिंह के घर से आंवले की खेती शुरू हुई थी. उनके पास मौजूदा वक़्त में क़रीब 36 एकड़ ज़मीन में आंवले की बाग़ है.
ज्वाला सिंह ने 'aajtak.in' के साथ बातचीत में कई तरह की चुनौतियों का ज़िक्र किया. वे कहते हैं, “बिचौलियों की वजह से आंवले की मंडी ख़स्ता-हाल में है. मैंने अपनी क़रीब बीस बीघे की आंवले की बाग़ कटवा दी. बिचौलियों के मन मुताबिक आंवले का रेट तय होता है, वे चाहते हैं कि हम कम से कम दाम में फ़सल बेच दें.”
क़रीब 4 बीघे ज़मीन में आंवले की खेती करने वाले किसान राज यादव कहते हैं, “पहले किसान आंवले की खेती की कमाई से अपने बच्चों की शादी किया करते थे, लेकिन मौजूदा वक़्त में हालात बदल गए हैं. व्यावसायिक स्तर पर आंवले की स्थिति पहले जैसी नहीं रही, सिर्फ़ पेपर पर दावे किए जा सकते हैं, ज़मीन पर हालात ख़राब हैं. आंवले का प्रोडक्शन, बाग़ान और इससे जुड़े कारोबार में 90 फ़ीसदी मंडी, आढ़त और बिचौलिए कैप्चर कर लेते हैं. किसान को उसके हक़ का मूल्य नहीं मिल पाता है.”
किसानों ने बताया कि बड़ी मुश्किल से तो आंवले की फ़सल तैयार होती है लेकिन इसके बाद भी उन्हें क़िल्लत झेलनी पड़ती है. आंवला किसान गंगा प्रसाद कहते हैं, “हमें आंवला तोड़ने के लिए मज़दूर नहीं मिलते हैं. अगर लेबर मिल भी जाते हैं, तो उनको मज़दूरी देने के बाद हमको फ़ायदा नहीं मिलता है. स्थिति बहुत ही ख़राब है.”
वहीं, ज्वाला सिंह बताते हैं कि जब आंवला 6 रुपए किलो था, तो मज़दूरी 200 रुपए थी. आज भी आंवला 6 रुपए किलो है और मज़दूरी 500 रुपए हो गई है. पहले मज़दूर पांच टोकरा आंवले तोड़ते थे लेकिन अब तीन टोकरा ही तोड़ते हैं, ऊपर से मज़दूरी भी बढ़ गई है.
चिलबिला के निवासी ‘आंवला उत्पादक संघ’ के अध्यक्ष और आढ़त चलाने वाले अतेंद्र सिंह कहते हैं, "अगर बिचौलिए ना रहें, तो काम ही ठप हो जाएगा. किसान अपना माल कहां ले जाएगा, कोई कंपनी किसानों से डायरेक्ट माल नहीं ख़रीदती है. आंवले की खेती से जुडे़ किसान, व्यापारी और आढ़तियों सभी के लिए बेकारी जैसी स्थिति है."
वे आगे कहते हैं कि आंवले का रेट तय किए जाने के पीछे सीधा संबंध प्रोडक्ट कंपनियों का होता है. कंपनियां जैसा रेट तय करती हैं, उसी के मुताबिक़ हम लोग किसानों से फल ख़रीदकर आगे बेचते हैं.
‘आंवले के दाम के साथ माप इकाई में भी मनमानी…’
भारत में कई तरह की माप इकाइयां उपयोग में लाई जाती हैं. इसी तरह ‘मन’ भी एक पारंपरिक इकाई है. ज्वाला सिंह अपना मलाल ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, “देश में हर जगह चालीस किलोग्राम वजन का एक मन (40KG) होता है लेकिन यहां आंवले की ख़रीदारी के वक़्त बिचौलिए 41 किलोग्राम का एक 'मन' बनाते हैं. ऐसे में किसानों को प्रति 'मन' एक किलो का नुक़सान होता है.”
राज यादव बताते हैं कि आंवले के बिज़नेस में बिचौलिए अच्छा फ़ायदा कमा लेते हैं. वे कई किलोमीटर ज़मीन के आंवले की बाग़ानों को हैंडल करने के लिए किसानों से ख़रीद लेते हैं. फल तैयार होने पर मनमाने दाम में बेचते हैं.
आंवले का दाम फिक्स ना होना प्रतापगढ़ के आंवला किसानों की सबसे बड़ी चुनौती है. ज्वाला सिंह कहते हैं कि अगर आंवले का रेट फिक्स हो जाए, तो प्रतापगढ़ का आंवला किसान ख़ुशहाल हो जाएगा.
साल 2018 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘एक ज़िला, एक उत्पाद (ODOP)’ योजना की शुरुआत की थी. ओडीओपी की ऑफिशियल वेबसाइट के मुताबिक़, योजना लागू करने के लिए यूपी सरकार की तरफ़ से राज्य के बजट में साल 2024-25 में ₹307 करोड़ और 2025-26 के लिए ₹337 करोड़ अलॉट किया गया.
सरकार के मुताबिक़, योजना का मक़सद उत्तर प्रदेश के सभी 75 ज़िलों में प्रोडक्ट-स्पेसिफ़िक ट्रेडिशनल इंडस्ट्रियल हब बनाना है, जो सूबे के ज़िलों के पारंपरिक उद्योगों को बढ़ावा देगा. इसके साथ ही सरकार की तरफ़ से कुछ और बातें भी कही गई थीं, जो इस प्रकार हैं:
इसके उलट आंवला किसानों ने दावा किया कि इस योजना से हमें मुनाफ़ा नहीं मिलता है. आंवला किसान गंगा प्रसाद को सरकार की तरफ़ से शुरू की गई ओडीओपी स्कीम के बारे में नहीं पता है. वे कहते हैं कि सरकार की तरफ़ से कोई मदद नहीं मिलती है. किसान परेशान हैं, वे क्या करें. आंवले से बेहतर है, गेहूं-चावल की खेती कर लें.
अतेंद्र सिंह कहते हैं, "सरकार के दावे हवा-हवाई हैं. इसका कुछ पता नहीं है कि ओडीओपी स्कीम कहां आई और कहां गई. सरकार सिर्फ़ कहती है लेकिन कहीं कुछ होता नहीं है. हर साल डीएम और लखनऊ की तरफ़ से आदेश आता है कि प्रोडक्शन यूनिट वग़ैरह बनेगा लेकिन वास्तव में कुछ नहीं होता है."
‘सरकार का इरादा बहुत अच्छा, लेकिन…’
ज्वाला सिंह कहते हैं, “बिचौलियों की वजह से मंडी डाउन रहती है और फ़ैक्ट्री वाले सस्ते दाम में फल ख़रीद लेते हैं. इस योजना से उन लोगों को फ़ायदा मिला है, जो फ़ैक्ट्री लगाए हुए हैं और प्रोडक्ट्स बनाकर बेच रहे हैं. सरकार का इरादा तो बहुत अच्छा था लेकिन लोकल लेवल पर सब कुछ मंडी के ज़रिए गवर्न हो रहा है. लागत बढ़ी है लेकिन आंवले का दाम नहीं बढ़ा है, हर साल फल का रेट आठ आने घट जाता है."
राज यादव भी कहते हैं कि सरकार की योजना अच्छी है लेकिन उसका असर ज़मीन पर कहीं नहीं नज़र आता है. सरकार को चाहिए कि इलाक़े का सर्वे करवाकर किसानों तक प्रतिनिधि भेजे, योजाना के बारे में उनको बताए और समस्या सुने. इसके बाद मुमकिन है कि कुछ बदलाव आ सके.
तमाम तरह की चुनौतियां झेल रहे आंवला किसानों के सामने कभी-कभी जलवायु परिवर्तन (Climate Change) भी क़हर बनकर टूट पड़ता है. राज यादव कहते हैं, "प्रतापगढ़ में पचहत्तर फ़ीसदी आंवले की खेती प्रकृति पर ही निर्भर होती है. अगर वक़्त पर बारिश, छीटें और गर्मी पड़ती है, तो आंवले की फ़सल अच्छी होती है. अगर बारिश नहीं होती है, तो गर्मी से फ़सल बर्बाद हो जाती है."
ज्वाला सिंह बताते हैं, "आंवले में कांटे (फूल) निकलने के बाद अगर तेज़ धूप होती है, तो कांटे मर जाते हैं. वहीं, ठंड में अगर ज़्यादा कोहरा पड़ता है, तब भी फ़सल को नुक़सान होता है."
वहीं, गंगा प्रसाद बताते हैं कि आंवले के पेड़ों पर दवा नहीं छिड़कवाई जाती, तो फल नहीं आता है. कम बारिश से आंवले के पेड़ों में लुटुरा (एक तरह का रोग) लग जाता है. पहले आंवले की पत्तियां बड़ी-बड़ी होकर लटकती रहती थीं लेकिन अब पत्तियां छोटी होने लगी हैं."
बारिश होने से पहले आंवले के खेत में उर्वरक डाले जाते हैं. अच्छी बरसात के बाद पत्तियों पर दवा का छिड़काव शुरू किया जाता है. इसके बाद पेड़ में फूल आता है, जो मौसम के साथ देने पर फल बनता है.
ज्वाला सिंह कहते हैं कि आंवले की फ़सल में डाला जाने वाला फर्टिलाइज़र भी क़िल्लत से ही मिल पाता है. उसके लिए ब्लैक मार्केट का शिकार होना पड़ता है.
प्रतापगढ़ के जिला उद्यान अधिकारी सुनील कुमार शर्मा कहते हैं, “आंवले की बिक्री को लेकर किसानों के सामने परेशानी रही है. फल के फ़िक्स रेट की समस्या है. इसके पीछे की वजह है कि महुली में आंवले की मंडी रात के वक़्त लगती है, यहां पर क़रीब दस व्यापारी हैं, वही रेट निर्धारित करते हैं. इसलिए किसानों को जो लाभ मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता है.”
जिला उद्यान अधिकारी ने बताया कि किसानों ने कई बार यह मुद्दा उठाया और हम लोगों ने भी इसके समाधान के लिए डीएम के सामने बात रखी कि जब तक किसानों को सही दाम नहीं मिलेगा, तब तक वे सफल नहीं हो पाएंगे. समस्या के समाधान के लिए जिलाधिकारी के द्वारा एक करोड़ बीस लाख रुपए की लागत से गोंडे इलाके में एक फ़ंक्शनल पैक हाउस का निर्माण करवाया गया है, जिसके संचालन के लिए एसओपी बन रही है, बहुत जल्द उसे शुरू किया जाएगा. इसमें प्रोसेसिंग, ग्रेडिंग और पैकिंग की व्यवस्था की गई है.”
वहीं, आंवला किसान ज्वाला सिंह कहते हैं कि गोंडे में एक प्रोसेसिंग यूनिट खुली तो है लेकिन अभी सिर्फ़ वहां पर ढांचा ही खड़ा दिखाई देता है. रामलीला मैदान और बच्चों के खेलने की जगह भी ख़त्म कर दी गई है लेकिन वहां कोई जाता नहीं है, प्रोसेसिंग के नाम पर अभी वहां कुछ हो नहीं रहा है.
जिला उद्यान अधिकारी सुनील कुमार ने दो योजनाओं- ‘प्रधानमंत्री शुद्ध खाद्य योजना’ और ‘उद्योग निधि 2023 योजना’ का ज़िक्र किया. वे कहते हैं, “प्रधानमंत्री शुद्ध खाद्य योजना के तहत प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए पैंतीस फ़ीसदी या अधिकतम दस लाख रुपए की सब्सिडी का प्रावधान है. इसके अलावा नब्बे फ़ीसदी बैंक लोन मिलता है और दस फ़ीसदी की लागत किसान को लगानी पड़ती है. पिछले दो-तीन साल में क़रीब साढ़े तीन सौ किसानों ने इस योजना का लाभ लिया है."
मोहम्मद साक़िब मज़ीद