केंद्र सरकार ने अपने नये विधेयक में 30 दिन तक किसी गंभीर आरोप में जेल में रहे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री को पद से हटाने की व्यवस्था दी गई है. इस बिल ने अचानक जन लोकपाल आंदोलन की याद दिला दी है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ था. ये बात अलग है कि आंदोलन के आर्किटेक्ट रहे अरविंद केजरीवाल ने बाद में खुद ही दूरी बना ली - और ये भी देखने को मिला कि दिल्ली के मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार के आरोप में ही तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा.
जो कानून लाए जाने की कोशिश हो रही है उसके दायरे में प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री तक आएंगे. जन लोकपाल बिल में भी बिल्कुल ऐसे ही प्रधानमंत्री तक को कानून के दायरे में लाने का प्रस्ताव था. कालांतर में लोकपाल का गठन तो हो गया, लेकिन वे चीजें नहीं शामिल की गईं.
नए कानून के तहत गंभीर आपराधिक आरोपों में अगर आरोपी को महीना भर हिरासत या जेल में रहना पड़ा तो पदच्युत होना पड़ेगा. कानून बन जाने पर जेल या हिरासत के 31वें दिन आरोपी अपने आप पद के अयोग्य हो जाएगा.
सबसे बड़ा सवाल ये है कि ऐसे कानून को लाने की जरूरत क्यों पड़ रही है?
क्या प्रावधान हैं नये कानून में
रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तीनों विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने के लिए लोकसभा में प्रस्ताव भी पेश दिया है. ये प्रस्तावित विधेयक हैं - केंद्र शासित प्रदेश (संशोधन) विधेयक 2025, संविधान (130वां संशोधन) विधेयक 2025 और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2025.
1. केंद्र शासित प्रदेश (संशोधन) विधेयक, 2025 लाए जाने की खास वजह ये मानी जा रही है कि मौजूदा कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है जिसके तहत मुख्यमंत्री या मंत्री को गंभीर आपराधिक आरोपों में हिरासत की अवधि में हटाया जा सके - और इसी कारण कानून की धारा 45 में संशोधन कर सख्त कानूनी प्रावधान करने की कोशिश है.
2. संविधान (130वां संशोधन) विधेयक, 2025 लाए जाने का मकसद भी करीब करीब वैसा ही है. संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239AA में संशोधन करने के बाद प्रधानमंत्री या केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री या राज्यों के मंत्री को 5 साल या उससे अधिक अवधि की सजा वाले अपराध के लिए लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रखा जाता है तो आरोपी को पद से हटाया जा सकता है.
3. ठीक वैसे ही, जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025 के तहत मौजूदा कानून की धारा 54 में संशोधन कर नया खंड (4A) जोड़ा जाएगा, ताकि मुख्यमंत्री या मंत्री को गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तारी और हिरासत की स्थिति में हटाया जा सके.
अब अगर कोई आरोपी हिरासत में ले लिये जाने के बाद भी 30 दिनों तक खुद अपना पद नहीं छोड़ता है, तो 31वें दिन उसे हटा दिये जाने का नए कानून में प्रावधान होगा. जम्मू-कश्मीर की ही तरह केंद्र और राज्य सरकारों के लिए भी प्रस्तावित विधेयकों में 31वें दिन हटा दिये जाने का प्रावधान कर दिया जाएगा.
धारा 356 के रहते ऐसी जरूरत क्यों
वैसे तो केंद्र सरकार के पास धारा 356 के तहत किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का अधिकार भी है. संवैधानिक संकट की स्थिति में राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य सरकार को राष्ट्रपति की मंजूरी से बर्खास्त किया जा सकता है. लेकिन, 2016 में ऐसे दो मामले देखे गए, जिसमें केंद्र सरकार को बाद में फजीहत झेलनी पड़ी थी. क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की रिपोर्ट और बाकी परिस्थितियों को देखने के बाद सरकार को बहाल कर दिया था. ऐसा एक मामला अरुणाचल प्रदेश का था, और दूसरा उत्तराखंड का.
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ऐसे दो केस हुए जिसमें झारखंड और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों को प्रवर्तन निदेशालय ने जेल भेज दिया था. झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन ने तो जेल जाने से पहले राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया था, लेकिन आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल तो अपने हिसाब से तिहाड़ जेल से ही दिल्ली की सरकार चलाते रहे. अदालतों से तो दोनों ही नेता जमानत पर छूट गये, लेकिन जनता की अदालत से फैसला अलग अलग आया.
हेमंत सोरेन जहां झारखंड चुनाव में जीत हासिल कर फिर से मुख्यमंत्री बन गये, लेकिन अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गए. दिल्ली के लोगों ने अरविंद केजरीवाल की जगह बीजेपी को सत्ता सौंप दी, और रेखा गुप्ता दिल्ली की नई मुख्यमंत्री बन गईं.
प्रस्तावित बिल के कानून बन जाने की सूरत में कोई भी मुख्यमंत्री आगे से अरविंद केजरीवाल की तरह जेल से सरकार नहीं चला पाएगा. दिल्ली शराब नीति केस में सुनवाई के दौरान अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद न छोड़ने का मामला भी उठाया गया, लेकिन कानूनी प्रावधान न होने से उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं हो सका.
दागी नेताओं के खिलाफ फिलहाल कानूनी प्रावधान यही है कि अगर किसी मामले में किसी नेता को कोई अदालत दो साल या उससे अधिक की सजा सुना देती है, तो उसकी लोकसभा या विधानसभा की सदस्यता अपने आप खत्म हो जाएगी. ऐसा कई नेताओं के साथ हो चुका है, जिसमें राहुल गांधी भी शामिल हैं. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के सजा सस्पेंड कर दिये जाने की वजह से वो 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने में सफल रहे.
असली मकसद तो कुछ और ही लगता है
ये तो साफ है कि कानूनों में संशोधन का मकसद सिर्फ अपराधी को सजा दिलाना भर नहीं है, निश्चित तौर पर ये प्रस्तावित बिल राजनीतिक मकसद हासिल करने के लिए लाये जा रहे हैं - और ये सब बीते दशक के राजनीतिक घटनाक्रम के आधारह पर ही प्लान किया गया है.
1. प्रस्तावित कानून में कुछ लोचा भी है, और वो साफ तौर पर नजर आ रहा है. अगर मुख्यमंत्री जेल या हिरासत के 31वें दिन पद से बेदखल हो जाता है, तो भी सरकार बची रहेगी. सत्ताधारी पार्टी का विधायक दल नया नेता चुन लेगा, और वो मुख्यमंत्री बन जाएगा. ऐसा होने पर कानून का मकसद, पूरा न सही लेकिन कुछ हद तक तो हासिल हो ही जाएगा.
2. सत्ताधारी पार्टी नया मुख्यमंत्री भले ही ला दे, लेकिन नेतृत्व बदलने से झगड़ा बढ़ेगा. पार्टी पर दबाव पड़ेगा ही, और पार्टी टूट भी सकती है. कुछ हद तक ये मकसद भी हासिल हो सकता है.
3. झारखंड में हेमंत सोरेन तो इस्तीफा देकर जेल गये थे, लेकिन पार्टी तो टूटी ही. हेमंत सोरेन के लौटने पर चंपाई सोरेन ने कुर्सी तो छोड़ दी, लेकिन पार्टी छोड़ दिये. ज्यादा फायदा तो चंपाई सोरेन को भी नहीं हुआ, लेकिन हेमंत सोरेन का का तात्कालिक नुकसान उनके राजनीतिक विरोधियों के लिए फायदेमंद ही रहा.
4. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तो मुख्यमंत्री रहते ही जेल गये थे, जमानत पर छूटने के बाद ही इस्तीफा दिया था - फिर भी आम आदमी पार्टी के कई नेता साथ तो छोड़ ही दिये.
बीजेपी सरकार का प्रस्तावित कानून तो पॉलिटिकल एनकाउंटर के लिए टूल जैसा ही लगता है. जैसे आंतकवादियों को ट्रायल के दौरान जमानत न मिले, उसके लिए टाडा और पोटा जैसे कानून लाए गये थे, लेकिन बाद में हटा भी दिये गये.
कानून अपराधी को सजा देने के लिए बनाए गये हैं. अपराधी की पृष्ठभूमि चाहे कुछ भी हो. वो चाहे पेशेवर अपराधी हो या राजनीति और अपराध के गठजोड़ की उपज या नतीजा हो या फिर, भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया हो. जब आतंकवाद से निबटने में टाडा और पोटा जैसे कानून बेअसर साबित हुए तो, भला प्रस्तावित कानून कितना प्रभावी हो सकता है. जमानत न दिए जाने जैसे इंतजाम तो प्रवर्तन निदेशालय की गिरफ्तारी की सूरत में भी किये गये हैं - कुल मिलाकर कानून के नये फॉर्मैट का मकसद साफ सुथरा तो बिल्कुल नहीं लगता.
मृगांक शेखर