बिहार चुनाव से ठीक पहले संघ की तरफ से एक खास सुझाव आया है. पूरे 10 साल बाद. इस बार संविधान की प्रस्तावना की समीक्षा की बात है, 2015 में आरक्षण की समीक्षा की बात थी. तब जो हुआ सभी देख चुके हैं. फर्क ये है कि इस बार कांग्रेस को निशाना बनाते हुए संघ की सलाह आई है, लेकिन मुश्किल ये है कि दायरे में कांग्रेस और उसके विपक्षी साथी भी आसानी से आ जाते हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने संविधान की प्रस्तावना में बाद में शामिल किये गये दो शब्दों की समीक्षा की सलाह दी है. ये दो शब्द हैं - 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष'. दत्तात्रेय होसबले ने कहा है, 'अब इस पर विचार करना चाहिए कि ये शब्द रहने चाहिए या नहीं.'
देश में इमरजेंसी लागू किये जाने की 50वीं वर्षगांठ को बीजेपी ने 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया है, जिसे लेकर बीजेपी और कांग्रेस ने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. संघ को भी उसी बात से आपत्ति है, जिसे लेकर बीजेपी संविधान हत्या दिवस मना रही है - कांग्रेस और विपक्षी दलों का हाथों में संविधान की कॉपी लिये संसद पहुंचना. और, राहुल गांधी का ज्यादातर कार्यक्रमों में हाथ में संविधान की कॉपी लेकर बीजेपी का विरोध करना.
इमरजेंसी पर हुए एक कार्यक्रम में दत्तात्रेय होसबोले ने कांग्रेस या राहुल गांधी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन निशाने पर वे साफ साफ नजर आ रहे थे, 'जिन लोगों ने आपातकाल लगाया था, वे आज संविधान की प्रतियां लेकर घूम रहे हैं... आज तक उन्होंने देश के लोगों से माफी नहीं मांगी है... आपने एक लाख से ज्यादा लोगों को जेल में डाला, ढाई सौ से ज्यादा पत्रकारों को जेल में रखा, मौलिक अधिकारों का हनन किया और साठ लाख भारतीयों को नसबंदी के लिए मजबूर किया... आपने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म कर दिया... क्या ऐसा करने वाले लोगों ने देश से माफी मांगी है? अगर ये आपके पूर्वजों ने किया तो आपको उनके नाम पर माफी मांगनी चाहिए.'
संविधान पर संघ की सलाह
RSS महासचिव दत्तात्रेय होसबले का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द आपातकाल के दौरान शामिल किये गए थे. ये कभी भी भीमराव आंबेडकर के संविधान का हिस्सा नहीं थे.
दत्तात्रेय होसबले ने कहा, बाबा साहेब आंबेडकर ने जो संविधान बनाया उसकी प्रस्तावना में ये शब्द कभी नहीं थे... आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार नहीं थे... संसद काम नहीं कर रही थी... न्यायपालिका पंगु हो गई थी... तब ये शब्द जोड़े गए.
संघ का ये कदम सही क्यों नहीं है
बेशक मूल संविधान में दोनों शब्दों का जिक्र नहीं था, जिनकी बात दत्तात्रेय होसबले कर रहे हैं. भारत सदियों से सेक्युलर है. और संविधान की बात करें तो इन शब्दों को शामिल न किये जाने के बावजूद 1947 से 1975 तक भारत सेक्युलर और सोशलिस्ट ही था. ये भी ठीक है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में दोनों शब्दों को (42वें संविधान संशोधन में, 1976) जोड़ा, और ये भी है कि इस मुद्दे पर तब बहस भी नहीं हो पाई, और वो पूरी तरह गलत भी है - लेकिन, 50 साल बाद नये सिरे से उस बात को घसीटना भी बेकार की बात है.
संविधान सभा के सदस्य प्रोफेसर केटी शाह ने संविधान में इन शब्दों को शामिल कराने के लिए कई बार कोशिश की. प्रोफेसर केटी शाह का तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष शब्द को स्पष्ट रूप से शामिल करने से भारत की धार्मिक निष्पक्षता की प्रतिबद्धता जाहिर होगी, और समाजवादी शब्द राज्य की आर्थिक विषमताओं को दूर करने की मंशा को दिखाएगा. और, एचवी कामथ और हसरत मोहानी जैसे सदस्यों ने प्रोफेसर केटी शाह की दलील का समर्थन किया था.
लेकिन डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने का विरोध किया था. आंबेडकर का मानना था कि समाजवाद एक अस्थायी नीति है, कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं. आंबेडकर का विचार था कि ऐसी नीतियों का भविष्य समय और तत्कालीन सरकार पर छोड़ दिया जाना चाहिए. आंबेडकर का तर्क था कि प्रस्तावना में समाजवाद को एक अटल सिद्धांत के रूप में दर्ज किये जाने पर लोकतांत्रिक लचीलापन खत्म हो सकता है. डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, "राज्य की नीति क्या होनी चाहिए... ये ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें वक्त और हालात के हिसाब से जनता को खुद ही तय करना चाहिए.
असल में, बौद्ध बन जाने के बाद आंबेडकर भारत की बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक परंपरा में यकीन करने लगे थे. धर्मनिरपेक्षता को लेकर उनका नजरिया साफ था. ये शब्द अलग से शामिल करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि संविधान पहले से ही मौलिक अधिकारों के जरिये ये गारंटी दे रहा है. ये भी आंबडेकर ने ही साफ कर दिया था कि धर्मनिरपेक्षता, पहले से ही प्रस्तावना के प्रारूप में निहित है, और संविधान की व्यापक संरचना धार्मिक निष्पक्षता सुनिश्चित करती है.
निश्चित तौर पर दत्तात्रेय होसबले संविधान की प्रस्तावना से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद को हटाने के पीछे आंबेडकर का नाम ले रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि ऐन उसी वक्त वो आंबेडकर के तर्कों को नजरअंदाज कर देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी कोशिशों को खारिज कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि समाजवाद और धर्म निरपेक्ष शब्दों को जोड़ा जाना संविधान सम्मत है. डॉक्टर बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) केस में सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट का कहना है, संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जिसे संसद संशोधित कर सकती है.
जस्टिस संजय कुमार ने अपने फैसले में कहा है, 'समय के साथ भारत ने धर्मनिरपेक्षता की अलग तरीके से व्याख्या की है, जिसमें राज्य न तो किसी धर्म का पक्ष लेता है, न ही किसी आस्था के पालन और अभ्यास के लिए दंड देता है. ये सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है, जो धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकते हैं. कानूनों की समान सुरक्षा और सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर की गारंटी देते हैं. प्रस्तावना के मूल सिद्धांत - सम्मान और अवसर की समानता, व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने वाला बंधुत्व जब सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय और विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता के साथ देखे जाएं, तो ये धर्मनिरपेक्ष भावना को पूरी तरह दर्शाते हैं.'
संघ का ये सुझाव बीजेपी के लिए घातक है
कांग्रेस इमरजेंसी लागू किये जाने के आधी सदी बीत जाने के बाद बीजेपी के निशाने पर है. और, बीजेपी के बाद अब संघ ने टार्गेट किया है. लाइन दोनों की बिल्कुल एक जैसी है. बस मुद्दे थोड़े अलग हैं. संघ को भी कांग्रेस के संविधान की कॉपी हाथ में लेकर घूमने से है. बीजेपी ने कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष के संविधान की दुहाई देते हुए हमले को न्यूट्रलाइज करने के लिए ही इमरजेंसी को हथियार बनाया है - और अब उसी बात को संघ अपने तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
लेकिन संघ ने जो बात उठाई है, वो तो बीजेपी के लिए भी मुश्किलें खड़ी करने वाली है. कांग्रेस और विपक्ष तो यही कह रहा है कि ये लोग संविधान बदल देंगे, और संस्थाओं को खत्म कर देंगे. और, अब संघ की भी सलाहियत है कि संविधान के प्रीएम्बल से समाजवाद और धर्म निरपेक्ष शब्द हटा दिये जाने चाहिये. संघ को आपत्ति इस बात से है कि ये शब्द इमरजेंसी के दौरान संविधान संशोधन के जरिये जोड़े गये थे.
सवाल ये है कि संघ अब इस बात पर अब आपत्ति क्यों हो रही है? आखिर 50 साल तक संघ इस मामले में चुप क्यों रहा?
अगर कांग्रेस संविधान खत्म कर देने को लेकर हमले नहीं करती, तो संघ अब तक चुप्पी साधे रखता. अगर कांग्रेस को इमरजेंसी के नाम पर घेरने की जरूरत नहीं होती, तो क्या संघ को प्रस्तावना में जोड़े गये समाजवाद और धर्म निरपेक्ष जैसे शब्दों से आपत्ति नहीं होती.
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की बात और है. कांग्रेस खुद को धर्म निरपेक्ष बताती है, और बीजेपी को सांप्रदायिक. बीजेपी, कांग्रेस और विपक्षी दलों पर तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप लगाती है. तुष्टिकरण और धर्म निरपेक्ष होना दोनों अलग अलग बातें हैं. लेकिन, सवाल ये है कि धर्म निरपेक्ष होना संघ को गलत क्यों लग रहा है?
क्या संविधान को धर्म निरपेक्ष नहीं होना चाहिये. फिर किस धर्म के पक्ष में होना चाहिये.
संघ हिंदुत्व की बात करता है. क्या संघ संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष की जगह हिंदुत्व को देना चाहता है. जैसे कांग्रेस की सरकार ने संविधान संशोधन करके धर्म निरपेक्ष शब्द जोड़ दिया है, क्या आगे चल कर उसकी जगह धर्म विशेष से जुड़ा कोई शब्द या हिंदुत्व उसी तरीके से जोड़ दिया जाएगा?
पहले संविधान हत्या दिवस और फिर संविधान से समाजवाद और धर्म निरपेक्ष शब्द हटाने की सलाह, इमरजेंसी को काउंटर करने के इस तरीके का क्या तुक बनता है.
संसद से सड़क तक में धूमिल की एक कविता है - जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा / हाशिए पर / चुटकुला बन रहा है / क्या मैं व्याकरण की नाक पर / रूमाल लपेटकर / निष्ठा का तुक / विष्ठा से मिला दूं?
मृगांक शेखर