देश के वे नेता जिनके लिए 2025 तो उपलब्धियों भरा रहा...

2025 में राजनीतिक उपलब्धियों के हिसाब से देखें तो नीतीश कुमार का मुकाबला नहीं है. बिहार से ही आने वाले नितिन नबीन भी उनको जोरदार टक्कर देते हैं. रेखा गुप्ता भी अपनी कैटेगरी में टॉपर ही नजर आती हैं, और जाते हुए साल ने तो एकनाथ शिंदे और अजित पवार की झोली में भी कुछ न कुछ डाला ही है.

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नीतीश कुमार और नितिन नबीन के लिए 2025 बेहतरीन रहा, और उपराष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन की निजी उपलब्धि भी बीजेपी के नाम रही. (Photo: PTI) नीतीश कुमार और नितिन नबीन के लिए 2025 बेहतरीन रहा, और उपराष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन की निजी उपलब्धि भी बीजेपी के नाम रही. (Photo: PTI)

मृगांक शेखर

  • नई दिल्ली,
  • 25 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 2:07 PM IST

2025 में भी अगर उपलब्धियों का जिक्र हो तो नेताओं में नंबर 1 पोजीशन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही आते हैं. लेकिन, ये सिलसिला तो 2014 से लगातार बना हुआ है. हां, पिछले साल के आम चुनाव में जोर का एक झटका जरूर लगा था, लेकिन बाद में हिसाब-किताब लगभग बराबर हो गया.

अब अगर बिहार में नीतीश कुमार और दिल्ली में रेखा गुप्ता की उपलब्धियों का जिक्र करेंगे तो ये सब भी दर्ज तो मोदी के खाते में ही होगा. दिल्ली में सरकार बनाना बीजेपी के लिए साल दर साल मुश्किल होता जा रहा था. एक बार किरन बेदी को सीएम उम्मीदवार बनाए जाने के बाद तो हर चुनाव में चेहरा मोदी ही रहे, और मोदी के नाम पर ही कामयाबी भी मिली. 

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वैसे ही बिहार में नीतीश कुमार कभी सेहत को लेकर, कभी ऊल-जुलूल हरकतों को लेकर तो कभी काननू-व्यवस्था को लेकर सवालों के घेरे में रहे - लेकिन 2020 की ही तरह 2025 में भी नीतीश की जीत परचम लहराने में सबसे बड़े मददगार तो मोदी ही रहे. 

दिल्ली चुनाव में भी बीजेपी की जीत की गारंटी तो मोदी ने ही पक्की की थी. जब मोदी ने दिल्लीवालों को भरोसा दिलाया कि पहले से चल रही कोई भी सरकारी कल्याणकारी योजना बंद नहीं की जाएगी, तब जाकर अरविंद केजरीवाल के वे दावे बेअसर हो गए जिसमें वो कहते फिर रहे थे कि सत्ता में आने पर बीजेपी उनकी सरकार की योजनाएं बंद कर देगी. 

1. नीतीश कुमार ने 2025 में जबरदस्त बाउंसबैक किया है

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए 2025 का विधानसभा चुनाव भी 2020 की ही तरह मुश्किलों भरा ही रहा. लेकिन, जिस तरह नीतीश कुमार बिहार में एनडीए की जीत के सूत्रधार बने, वो बेमिसाल है. 

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बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से 202 एनडीए के नाम करा देना, बड़ी उपलब्धि तो है ही. और, विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल को 25 सीटों पर समेट देना भी नीतीश कुमार के लंबे अनुभव और राजनीतिक मुश्किल दाव-पेच की बदौलत ही संभव हो पाया है. 

चुनाव से पहले जो राजनीतिक विरोधी जेडीयू के पूरी तरह खत्म हो जाने के दावे करते रहे, नीतीश कुमार ने पांच साल बाद बीजेपी की बराबरी में लाकर खड़ा कर दिया है - और बीजेपी सहित अपने सारे विरोधियों को 'निर्विकल्पम् निरीहम्' वाले मोड में ला दिया है. 

2. नितिन नबीन की ताजपोशी परिवारवाद की राजनीति पर बीजेपी के जवाब जैसी

नितिन नबीन को बीजेपी के उस दावे को मजबूती देता है, जिसमें कहा जाता है कि एक मामूली कार्यकर्ता को भी पार्टी का सर्वोच्च पद मिल सकता है. ये बात एक बार अमित शाह ने समझाने की कोशिश की थी, और उस लिहाज से तो नितिन नबीन भी कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं थे, लेकिन ऐसी भी स्थिति नहीं थी जो धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव या अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं को पछाड़कर लंबी छलांग लगा सकें. 

बिहार चुनाव के दौरान परिवारवाद की राजनीति पर खूब बातें हुईं. कांग्रेस नेता शशि थरूर ने परिवारवाद की राजनीति पर अपने लेख में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव को टॉपर बनाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी नेताओं को पहले ही ऐसी चीजों से आगाह कर चुके थे. तमाम चर्चाओं के बावजूद नीतीश कुमार ने अपने बेटे निशांत की राजनीति में एंट्री नहीं होने दी. 

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राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नितिन नबीन की नियुक्ति ने बीजेपी में हाई-कमांड कल्चर पर भी बहस को आगे बढ़ाया है. और, इसके साथ ही ये भी साफ हो गया है कि मोदी और अमित शाह का फैसला ही बीजेपी में आम सहमति का प्रतीक है. 

3. रेखा गुप्ता को तो बीजेपी ने खाक से उठाकर फलक पर बैठा दिया

रेखा गुप्ता का पहली बार विधायक बनते ही, मुख्यमंत्री बन जाना दिल्ली में पहली बार नहीं हुआ है. दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकीं आतिशी को भी ये उपलब्धि हासिल हो चुकी है. लेकिन मुख्यमंत्री बनने से पहले रेखा गुप्ता की तरह आतिशी कोई गुमनाम चेहरा नहीं थीं. रेखा गुप्ता तो दिल्ली नगर निगम की पार्षद थीं, और स्थानीय स्तर पर काम कर रही थीं.

फिर भी रेखा गुप्ता को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना, बीजेपी के खाक से उठाकर फलक पर बैठा देने जैसा ही लगता है. रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया जाना बीजेपी की उसी परिपाटी की अगली कड़ी है, जिसमें मोहन यादव, भजनलाल शर्मा और विष्णुदेव साय     को, कई सीनियर नेताओं को दरकिनार कर, पहले भी बड़ी जिम्मेदारी दी गई.

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को काउंटर करने के लिए बीजेपी किरण बेदी और मनोज तिवारी से लेकर प्रवेश वर्मा तक को आजमाती रही, लेकिन बाजी मार ली रेखा गुप्ता ने. किस्मत से कुछ मिल जाए, तो कायम रखने के लिए हुनर की जरूरत होती है. 

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4. सीपी राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना बीजेपी विरोधियों को राजनीतिक जवाब है

उपराष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन को चुनाव में उम्मीदवार बनाकर ही बीजेपी ने अपने राजनीतिक विरोधियों का मुंह बंद कर दिया था. जगदीप धनखड़ के स्वास्थ्य कारणों से अचानक इस्तीफा देने के बाद पूरा विपक्ष बीजेपी के खिलाफ आक्रामक हो गया था, और कई बीजेपी नेता और राज्यपाल भी कतार में थे, लेकिन कामयाब सीपी राधाकृष्णन ही रहे.

बीजेपी को एक ऐसे उम्मीदवार की जरूरत थी जो राजनीति के हर हिसाब से फायदेमंद साबित हो. तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके सीपी राधाकृष्णन के उपराष्ट्रपति के लिए चुने जाने में तमिलनाडु में होने जा रहे चुनाव की भी भूमिका रही. तमिलनाडु में 2026 में विधानसभा के चुनाव होने हैं. 

5. जाते साल ने एकनाथ शिंदे और अजित पवार के अच्छे दिन के संकेत दिए

बीजेपी के आगे अजित पवार ने तो पहले ही सरेंडर कर दिया था, लेकिन एकनाथ शिंदे लगातार लड़ते रहे हैं. भले ही एकनाथ शिंदे को बीजेपी ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया, लेकिन एकनाथ शिंदे ने कभी हथियार नहीं डाले - और नगर निकाय चुनावों में शिंदे सेना का जोरदार प्रदर्शन बीजेपी के लिए परेशान करने वाला है. 

हाल में हुए नगर परिषद और नगर पंचायत चुनावों में कुल 288 निकायों में से सत्ताधारी गठबंधन महायुति ने 215 अध्यक्ष पदों पर कब्जा जमाया है. नगर निकाय चुनाव में बीजेपी का स्ट्राइक रेट 63.1 फीसदी दर्ज किया गया है, और एकनाथ शिंदे थोड़ा ही पीछे नजर आ रहे हैं. 

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निकाय चुनावों में एकनाथ शिंदे की शिवसेना का स्ट्राइक रेट 54.9 दर्ज किया गया है, जो बीजेपी से थोड़ा ही कम है. और, ये महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों जैसा तो नहीं ही है. वैसे ही अजित पवार की पार्टी एनसीपी का स्ट्राइक रेट 44.3 फीसदी आया है - और ये आंकड़े दोनों ही नेताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. 

विधानसभा चुनाव का संदेश था कि एकनाथ शिंदे के पास ही असली शिवसेना है, और और नगर निकाय चुनावों का मैसेज है कि एकनाथ शिंदे को खारिज करना मुश्किल है - 15 जनवरी, 2026 को होने जा रहे बीएमसी चुनाव के नतीजे पूरी तस्वीर साफ कर देंगे. 

2025 ऐसे सभी नेताओं के लिए महज एक कैलेंडर में दर्ज साल नहीं था, बल्कि ऐसी उपलब्धियों का सुखद समय चक्र रहा जो उनके राजनीतिक परिपक्वता हासिल करने का इम्तिहान था, और किसी ने अपनी अनुभव से, किसी ने संगठन में मेहनत से तरक्की की, तो किसी ने गठबंधन राजनीति की परिभाषा बदली - 2025 में बड़ी उपलब्धियां हासिल करने वाले नेताओं के लिए 2026 में भी तमाम संभावनाएं यूं ही बढ़ जाती हैं. 

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