सामने आई मायावती की चुनावी रणनीति - ईद के मौके पर नागपुर से फील्ड में

बीएसपी का चुनाव कैंपेन शुरू होने के बाद मायावती भी मैदान में उतर रही हैं, और सीधे RSS के गढ़ नागपुर का रुख किया है. यूपी में वो पहली रैली 14 अप्रैल को करेंगी. साथ ही, बीएसपी के 'सर्वजन' से बहुजन की तरफ लौटने के भी संकेत मिल रहे हैं - ये मायावती की चुनावी रणनीति में बड़ा बदलाव है.

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जड़ों की तरफ लौट रहीं मायावती लोकसभा चुनाव कैंपेन नागपुर से शुरू कर रही हैं जड़ों की तरफ लौट रहीं मायावती लोकसभा चुनाव कैंपेन नागपुर से शुरू कर रही हैं

मृगांक शेखर

  • नई दिल्ली,
  • 11 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 4:39 PM IST

मायावती ने अपने उम्मीदवारों को नागपुर पहुंच कर ही ईदी देने का फैसला किया था, तभी तो यूपी की राजनीति में जमीन तलाश रहीं बीएसपी नेता सीधे नागपुर पहुंच जाती हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय होने के चलते नागपुर मौजूदा राजनीति में अहम स्थान बन चुका है. 

11 अप्रैल को ईद के मौके पर मायावती महाराष्ट्र के नागपुर के इन्दौरा इलाके के बेजोनबाग मैदान में लोकसभा चुनाव 2024 के लिए पहली चुनावी रैली कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में कैंपेन की शुरुआत के लिए मायावती ने अंबेडकर जयंती का मौका चुना है. 14 अप्रैल को मायावती की चुनावी रैली उत्तर प्रदेश के  सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में होगी.

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सवाल ये है कि मायावती ने आखिर संघ के इलाके नागपुर में घुसपैठ की कोशिश क्यों की है? 

ये ठीक है कि मायावती की छवि कुछ दिनों से बीजेपी की मददगार की बनती जा रही है, लेकिन ऐसा तो है नहीं कि नागपुर पहुंच कर वो बीजेपी के लिए वोट मांग सकती हैं - वोट तो वो बीएसपी उम्मीदवारों के लिए ही मांगेंगी. और उनके भाषण में कांग्रेस और बीजेपी के लिए नागनाथ और सांपनाथ जैसे उदाहरण भी शामिल होंगे ही. 

असल में 2019 के आम चुनाव के बाद से ही मायावती पर भीतर ही भीतर बीजेपी को मदद पहुंचाने की तोहमत लगती रही है. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में तो इसे साफ साफ महसूस भी किया गया - और जो रही सही कसर बची थी, उसे आजमगढ़ लोकसभा सीट पर उपचुनाव में पूरा कर दिया. माना जाता है कि दिनेशलाल यादव निरहुआ की जीत पक्की करने में बीएसपी उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली की महत्वपूर्ण भूमिका थी. 

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क्या मायावती वो धब्बा मिटाने की कोशिश कर रही हैं, या बीजेपी से कोई नाराजगी हो गई है - या फिर पुरानी रणनीति का ही ये कोई एडवांस वर्जन है?

मायावती से पहले उनके भतीजे आकाश आनंद यूपी में बीएसपी के चुनाव कैंपेन की शुरुआत कर चुके हैं, और उनकी पहली रैली नगीना इलाके में हुई थी. खास बात ये है कि नगीना लोकसभा सीट से भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद रावण आजाद समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे हुए हैं. 2019 में बीएसपी ने नगीना सीट जीती थी, लेकिन इस बार बाकी जगहों की तरह नगीना में भी बदल दिया है. 

नगीना में बीएसपी की पहली रैली की वजह तो चंद्रशेखर ही रहे होंगे, और उनको लेकर बीजेपी से नाराजगी की भी एक खास वजह है. बीजेपी सरकार ने चंद्रशेखर को वाई-कैटेगरी की सुरक्षा दी हुई है. मायावती नहीं चाहतीं कि उनके सामने कोई नया दलित नेता खड़ा होकर उनको चैलेंज करे. ध्यान देने वाली बात ये है कि चंद्रशेखर भी दलितों में जाटव समुदाय से आते हैं, और मायावती भी.

मायावती ने बदली बीएसपी की रणनीति

मायावती 2007 में सोशल इंजीनियरिंग की वजह से अपने बूते पहली बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी थीं, और 2019 में अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन की मदद से बीएसपी की लोकसभा सीटों को शून्य से 10 तक पहुंचा दिया था - लेकिन इस बार पुराने प्रयोगों का नया कॉम्बो पेश करने की कोशिश लग रही है. 

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नागपुर में मायावती पहले भी रैली कर चुकी हैं, और संघ को चेतावनी देने के साथ ही 'बुद्धं शरम् गच्छामि' जैसी घोषणा भी कर चुकी हैं. 2019 में भी मायावती ने नागपुर में रैली की थी, और एक महत्वपूर्ण बात ये कही थी कि सही वक्त आने पर वो बौद्ध धर्म का अनुयायी बन सकती हैं. 

और उससे करीब दो साल पहले 2017 में मायावती ने संघ प्रमुख मोहन भागवत के हिंदू राष्ट्र को लेकर दिये गये बयान पर कड़ी आपत्ति जताई थी. मायावती ने साफ शब्दों में कहा था कि संघ को दलित विरोधी मुहिम बंद कर देनी चाहिये. 

लेकिन नागपुर में मायावती की रैली का मकसद तो मुस्लिम वोटर को रिझाने की ही लगती है. जाहिर है मुस्लिम वोटों को बीएसपी के पक्ष में करने की कोशिश होगी - लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि मुस्लिम वोटों को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के पक्ष में जाने से रोकना है? अगर वास्तव में ऐसा होता है तो फायदे में तो बीजेपी ही रहेगी?

क्या मायावती जड़ों की तरफ लौटने लगी हैं

2007 के बाद हाल फिलहाल मायावती का सबसे बढ़िया प्रयोग 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन था. 2014 बीएसपी का खाता खोल पाने में भी चूक गईं मायावती ने 2019 में 10 लोकसभा सीटें जीत ली थी - लेकिन चुनाव नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही मायावती ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी. 

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अखिलेश यादव मन मसोस कर रह गये थे. तब मायावती ने वोट ट्रांसफर न होने की पुरानी बात ही दोहराई थी, जबकि घाटे में तो समाजवादी पार्टी ही रही थी. भला इससे बड़ा नुकसान क्या हो सकता था कि डिंपल यादव ही चुनाव हार जायें?

तभी से मायावती अकेले ही चुनाव मैदान में उतरने की बात करती रही हैं. 2022 के यूपी विधानसभा में भी ऐसा ही किया था, और इस बार लोकसभा चुनाव में भी बीएसपी अकेले ही चुनाव लड़ रही है. 

बीएसपी के बीजेपी की मददगार बनने की तोहमत तो अपनी जगह है ही, ये भी देखने में आ रहा है कि पार्टी का वोट शेयर लगातार घटता जा रहा है. 2019 के आम चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर जहां 19.3 फीसदी था, 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में घट कर 12.88 फीसदी रह गया. 

2007 के सोशल इंजीनियरिंग के बाद से मायावती लगातार प्रयोग करती आ रही हैं. तब दलितों के साथ ब्राह्मणों को जोड़कर मायावती सत्ता हासिल करने में सफल रहीं, लेकिन 2012 में चूक गईं, और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गये. 

पांच साल लगातार एक्सपेरिमेंट के बावजूद मायावती 2017 में भी सत्ता में वापसी करने में नाकाम रहीं, और बीजेपी के योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गये. और अब तो नौबत ये आ गई है कि विधानसभा में बीएसपी के प्रतिनिधित्व के लिए सिर्फ एक विधायक है. 

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2017 के लिए मायावती ने दलित और मुस्लिम गठजोड़ पर खूब काम किया था. पश्चिम यूपी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट साधने के लिए मायावती ने खासे प्रयोग किये थे. तब पश्चिम यूपी में मायावती के खास सहयोगी नसीमुद्दीन सिद्दीकी हुआ करते थे, और पूर्वी यूपी के लिए मायावती ने माफिया डॉन मुख्तार अंसारी को सुधरने का मौका देने के नाम पर साथ लिया था. यहां तक कि 2019 में मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी को गाजीपुर से सांसद भी बनवा दिया - लेकिन 2022 आते आते उन तमाम चीजों से तौबा कर लिया, जिसे वो गलतियां मानने लगी थीं. 

लोकसभा चुनाव में इस बार मायावती एक बार फिर मुस्लिम वोटर के साथ दलितों के गठजोड़ की कोशिश में हैं, लेकिन मुश्किल तो ये है कि वक्त बचा ही नहीं है. चुनाव के पहले चरण की नामांकन प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद, और वोटिंग से हफ्ता भर पहले तो वो चुनाव प्रचार के लिए घर से बाहर निकली हैं. 

चुनावी रणनीतियों में ताजा बदलाव का संकेत मिला है मायावती की चुनावी रैलियों को लेकर बीएसपी की तरफ से जारी किये गये प्रेस नोट में. 2007 के बाद से मायावती बीएसपी और उसके संस्थापक कांशीराम के जमाने के स्लोगन से परहेज करती देखी गई थीं - और 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' जैसी बातें की जाने लगी थीं, लेकिन अब ये लाइन बदल गई है. 

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बीएसपी अब अपनी जड़ों की तरफ लौटने की कोशिश में बहुजन समाज की बात करने लगी है. प्रेस नोट में पुराने स्लोगन 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' पर खास जोर दिया गया है. निश्चित तौर पर ये बीएसपी के खिसकते जनाधार को संभालने की कोशिश हो सकती है. 

जैसे मुलायम सिंह के जमाने में समाजवादी पार्टी के साथ ओबीसी वोट बैंक भी साथ हुआ करता था, लेकिन अखिलेश यादव के दौर में सिर्फ यादव वोटर साथ बच गया है, मायावती के साथ भी अब उनका जाटव वोटर ही रह गया है - और उसमें चंद्रशेखर आजाद रावण सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं. 

भला मायावती को बीजेपी की नई पसंद चंद्रशेखर आजाद रावण कैसे हजम हो रहे होंगे - और बीएसपी की ताजा कवायद में उसी का असर देखा जा सकता है.

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