अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सरप्राइजिंग सीजफायर ऐलान के छह घंटे बाद खबर आई कि इजरायल के बीरशेवा शहर पर ईरानी मिसाइल गिरने से 9 लोगों की मौत हो गई है. फिर ईरान की ओर से भी इजरायल पर सीजफायर उल्लंघन का आरोप लगाया गया. दोनों ओर से जारी हमलों के बाद लगा कि ट्रंप के सीजफायर को कोई पक्ष मानने को तैयार नहीं है. उधर ट्रंप ने भी इजरायल के रवैये के प्रति नाखुशी जाहिर कर दी. फिर फिर धीरे धीरे दोनों ओर से खामोशी अख्तियार की गई. लेकिन, मंगलवार को ही अमेरिकी खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट से अमेरिकी खासकर ट्रंप खेमे में खलबली मच गई कि अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर जो हमला किया है, उससे कुछ खास नुकसान नहीं हुआ है. इस रिपोर्ट को सिरे से खारिज करते हुए ट्रंप ने कहा कि हमने ईरान के परमाणु प्रोग्राम को ध्वस्त कर दिया. जबकि इजरायली सेना प्रमुख ने कहा कि उनके देश को इस बात की पुख्ता पड़ताल में वक्त लगेगा. हां, ईरान के परमाणु और मिसाइल प्रोग्राम को कुछ वर्ष पीछे जरूर धकेल दिया गया है. इधर, ईरान में जीत का जश्न मनाया जा रहा है. कहा जा रहा है कि ईरानी जज्बे के आगे अमेरिका और इजरायल को सीजफायर के लिए मजबूर होना पड़ा है. कुल मिलाकर ईरान और इजरायल-अमेरिकी गठजोड़ के बीच 12 दिन तक चला युद्ध बेनतीजा खत्म तो हो गया. लेकिन, इसने कई बड़े संग्राम के बीज बो दिये हैं. सीजफायर की घोषणा करके ट्रंप अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. लेकिन, उन्हें न इजरायल में इज्जत मिल रही है और न ही ईरान में. ऐसे में मिडिल-ईस्ट के बाकी देशों को भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित होना लाजमी है.
नेतन्याहू ने ट्रंप को जैसे फंसाया, वैसे ही वो बच निकले
ईरान-इजरायल युद्ध की शुरुआत और कथित खात्मे के बैकग्राउंड को एक बार समझते हैं. ओमान में जब ईरान और अमेरिका के बीच परमाणु संधि को लेकर बातचीत चल रही होती है, उसी दौरान इजरायल तेहरान पर हवाई हमले कर देता है. जिसमें ईरान के सेनाध्यक्ष और कई परमाणु वैज्ञानिकों को मार दिया जाता है. इजरायल दावा करता है कि परमाणु संधि की बातचीत ईरान का एक छलावा है, जिसकी आड़ में वह परमाणु बम बनाने की करीब पहुंचता जा रहा है. नतीजा यह होता है कि न चाहते हुए भी ट्रंप को इजरायल की इस कार्रवाई का समर्थन करना पड़ता है और यह घोषणा करनी पड़ती है कि इजरायली हमले की उसे जानकारी थी और यह उनके समर्थन से हुआ है.
दुनिया में डीलमेकर और पीसमेकर (शांति के मसीहा) बनने की चाह लिए घूम रहे डोनाल्ड ट्रंप के लिए इजरायल-ईरान युद्ध चौंकाने वाला था. यह उनके लिए किसी पेपर में आउट ऑफ सिलैबस वाला मामला था. नेतन्याहू की चली चाल में ट्रंप फंस चुके थे. इधर कुआं, उधर खाई वाली हालत. समझ नहीं आ रहा था कि यदि वे इस युद्ध में पूरी तरह शामिल हुए तो हासिल क्या कर लेंगे?
सीजफायर का ऐलान करना कैसे ट्रंप की मजबूरी बन गया था
हर हाल में इजरायल की हर तरह से मदद करना अमेरिका की स्थायी नीति रही है. चाह कर भी डोनाल्ड ट्रंप इससे किनारा नहीं कर सकते थे. ऐसे में 12 दिन के युद्ध में इजरायल को अमेरिका हथियारों और उसके युद्धक विमानों को हमले के दौरान अमेरिका हवा में रिफ्यूलिंग करता रहा. फिर ईरान के परमाणु ठिकानों पर अपने B-2 बॉम्बर विमानों से हमला करके युद्ध में शामिल भी हुआ. जिसका जवाब ईरान ने इराक और कतर स्थित अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर मिसाइल हमला कर दिया. लेकिन, रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि इन दोनों ही हमलों में किसी का कुछ खास नहीं बिगड़ा. न तो ईरानी परमाणु कार्यक्रम को कोई स्थायी नुकसान पहुंचा और न ही ईरानी हमलों से यूएस के सैन्य ठिकानों पर किसी तरह की हानि हुई. सीजफायर को लेकर ट्रंप ने सोशल मीडिया पर जिस तरह कमेंट किया है, उससे लगता है कि जैसे यूएस के सैन्य ठिकानों पर ईरान के मिसाइल हमले बड़ी फिक्सिंग का हिस्सा थे. ईरान ने इन हमलों से पहले यूएस को बता दिया था. जिससे खुश होकर ट्रंप ने सीजफायर का ऐलान कर दिया.
नेतन्याहू की आक्रामक नीति के चलते ईरान के साथ युद्ध में अमेरिका जिस तरह फंसा था, उससे निकलने के लिए ट्रंप को जो मौका मिला, उन्होंने दोनों हाथ से पकड़ लिया. ईरान पर हमले के बाद अपनी पीठ थपथपा रहे ट्रंप अब सीजफायर का क्रेडिट लेने के लिए पूरी दुनिया से मुखातिब हैं और सबको बधाई दे रहे हैं. जाहिर है कि डोनाल्ड ट्रंप ने तात्कालिक रूप से तो खुद को इस युद्ध से दूर कर दिया, लेकिन क्या वाकई वे मिडिल-ईस्ट को शांत कर पाए हैं?
अमेरिका की जान छुड़ाकर ट्रंप मिडिल-ईस्ट में कई जानें फंसा गए
ईरान-इजरायल के बीच का युद्ध धीरे-धीरे ईरान-अमेरिका का युद्ध होता जा रहा था. क्योंकि, इजरायली हमलों से ईरान को वैसा नुकसान नहीं हो रहा था जिसका प्लान नेतन्याहू बनाकर बैठे थे. अकेले इजरायल के बस में नहीं था कि वे ईरान का नेतृत्व परिवर्तन (regime change) करवा पाते और न ही वहां के परमाणु और मिसाइल प्रोग्राम को मुकम्मल हानि पहुंचा पाते. लेकिन, अमेरिका के B-2 बमवर्षक विमानों ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को थोड़ी चोट तो पहुंचाई, लेकिन खुद अमेरिकी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उसके परमाणु कार्यक्रम को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है. हां, परमाणु बम बनाने की गति थोड़ी धीमी जरूर पड़ेगी. लेकिन, ईरान में सत्ता परिवर्तन तो छोडि़ए इजरायल और अमेरिकी हमलों का डंटकर सामना करने के बाद आयातुल्ला खामेनेई की ताकत और सुदृढ़ हुई है. ईरान ने यह साबित कर दिया है कि वह इजरायल पर हवाई हमले न कर पाया हो, लेकिन उसने अपनी मिसाइलों के दम पर अपने दुश्मनों को सीजफायर के मुकाम तक आने के लिए मजबूर कर दिया.
ईरान के नेतृत्व और उसके इरादों को और मजबूत बना गए ट्रंप
सीजफायर का ऐलान करके ट्रंप की राजनीति को अल्पकालीन फायदा होता तो दिख रहा है. लेकिन, क्या ये ईरान, इजरायल और मिडिल-ईस्ट के बाकी देशों के बीच की दुश्मनी को मिटाने के लिए काफी है? क्या अब मिडिल-ईस्ट में खूनखराबा रुक जाएगा? ईरान में नेतृत्व परिवर्तन (regime change) के मंसूबे को कोई कामयाबी मिलेगी? क्या ईरान मिडिल-ईस्ट में हमास, हिजबुल्ला और हूती जैसे प्रॉक्सी को मदद देना बंद करेगा? क्या ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम बंद कर देगा? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है- नहीं.
आइए, मिडिल-ईस्ट के भविष्य से जुड़े इन सवालों का बारी-बारी से आंकलन करते हैं...
1. मिडिल-ईस्ट के देशों के बीच की दरार ईरान-इजरायल युद्ध से और चौड़ी और गहरी ही हुई है. पूरा इस्लामिक उम्मा छिन्न-भिन्न हो गया है. खासतौर पर ईरान के समर्थन को लेकर. इसकी पुष्टि ईरान के कतर और इराक पर हुए हमले के बाद हो गई. कतर की ओर से ईरान को जवाबी कार्रवाई की धमकी भी दी गई. ईरानी हमले के बाद जवाबी कार्रवाई के लिए अमेरिकी विमानों ने सऊदी अरब के अपने एयरबेस का इस्तेमाल किया. तो जाहिर है कि ईरान इसे कभी भूलेगा नहीं.
2. इजरायल-ईरान युद्ध से यह भी स्पष्ट हो गया है कि मिडिल-ईस्ट में अमेरिका के सभी सैन्य ठिकाने ईरानी मिसाइलों के दायरे में हैं और उन पर ईरान अपनी मर्जी से जब चाहे तब खुद या अपने प्रॉक्सी के जरिए हमला कर सकता है. जिस तरह से कतर के अपने बेस पर हमले के बाद ट्रंप ने सीजफायर कर ऐलान किया है, ईरान यह समझ चुका है कि अब अमेरिका कम से कम इजरायल के लिए मिडिल-ईस्ट में अपने हितों को दांव पर नहीं लगाएगा और अमेरिका की यही कमजोर नस ईरान के आक्रामक होने की वजह बनेगी. और सिर्फ ईरान ही क्यों, सीरिया और ईराक में ISIS भी नए सिरे से अपना सिर उठा सकता है.
3. जहां तक ईरान के प्रॉक्सी का सवाल है, सीजफायर के ऐलान से ठीक पहले ईरान के आयातुल्ला खामेनेई ने X पर पोस्ट किया था कि इजरायल के खिलाफ फिलिस्तीनियों की लड़ाई उनके लिए सर्वोच्च प्राथमिकता वाली है. यानी वे हमास और हिजबुल्लाह जैसे संगठनों को मदद जारी रखेंगे. सऊदी अरब की नकेल कसने के लिए हूती लड़ाकों को हथियार सप्लाई भी करते रहेंगे और मिडिल-ईस्ट में खूनखराबा होता रहेगा.
4. ईरान के परमाणु कार्यक्रम के अलावा जिस बात की सबसे ज्यादा चर्चा थी, वह था ईरान का नेतृत्व परिवर्तन. आयातुल्ला की सत्ता को खत्म करना. जो इजरायल को दुनिया के नक्शे से मिटा देने की कसम खाकर बैठे हैं. तो जान लीजिए कि सीजफायर के ऐलान के साथ ट्रंप ने ‘गॉड ब्लेस ईरान’ भी कहा है. वहां की लीडरशिप को सराहा है. इस सबका नतीजा यह हुआ है कि ईरान में आयातुल्ला की सत्ता से जुड़ी अलोकप्रियता खत्म हुई है. इजरायल और अमेरिकी हमलों का डंटकर मुकाबला करने के बाद नेतृत्व की इज्जत और बढ़ गई है.
5. सबसे और सबसे अहम सवाल ईरान के परमाणु कार्यकम से जुड़ा है. जिसे रोकने की गुंजाइश ईरान पर इजरायल और अमेरिकी हमले के बाद खत्म हो गई है. दुनिया में परमाणु कार्यक्रमों की निगरानी करने वाली संस्था IAEA ने कुछ समय पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ईरान के 400 किलो एनरिच यूरेनियम का रिकॉर्ड नहीं मिला है. जो कि 40-40 किलो के दस न्यूक्लियर वॉरहेड बनाने के लिए पर्याप्त है. यकीन मानिए कि ईरान ने यह न्यूक्लियर मैटेरियल उन ठिकानों पर तो बिल्कुल सजा कर नहीं रखा होगा, जहां अमेरिका ने अपने B-2 विमानों से बम गिराए हैं. अब जबकि ईरान के खिलाफ सारी सैन्य कार्रवाई हो चुकी है, तो ईरान के सामने IAEA को निगरानी की मंजूरी देने की मजबूरी नहीं है. वह बेखौफ होकर अब परमाणु बम बनाएगा और यदि ऐसा हो गया तो, जिसकी आशंका बहुत ज्यादा है, तो यकीन मानिए कि मिडिल-ईस्ट को नर्क बनने से कोई नहीं रोक सकता.
ये सीजफायर नहीं, वाइल्ड फायर है. इंटरनेशनल वाइल्ड फायर.
धीरेंद्र राय