दलित कोटे में कोटा पर जारी है घमासान, BJP के एक फैसले ने कैसे बदली सबकी राजनीति

दलित कोटे में कोटा पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिस तरह शुरू में सभी दलों ने गरमजोशी से स्वागत किया था अब वे पलटने लगे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने इस संबंध में सबसे पहले फैसला लेकर क्या विरोधियों को चित कर दिया है?

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पीएम नरेंद्र मोदी , नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव पीएम नरेंद्र मोदी , नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 12 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 4:57 PM IST

अगस्त महीने के पहले ही दिन सुप्रीम कोर्ट ने एसी-एसटी के कोटे में विभाजन को स्वीकार करके देश में दलित राजनीति पर सरगर्मियां बढ़ा दी थीं. कोर्ट ने कहा था कि इस फैसले से अत्यधिक पिछड़ी जातियों को लाभ पहुंचेगा. जजों का मानना था कि कुछ जातियां सीवर की सफ़ाई काम करती हैं,कुछ बुनकर का काम करती हैं. दोनों ही अनुसूचित जाति में आती हैं और छुआछूत से जूझती हैं. पर अपने काम के हिसाब से कुछ लोग अधिक उत्पीड़न झेलते हैं. कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के आने के बाद बीजेपी ही नहीं विपक्ष भी एक तरह से स्वागत करने का मूड दिखा रहा था.

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कांग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों ने खुलकर इस फैसले का स्वागत किया. पर दलित नेताओं ने शुरू में ही अपना रुख क्लियर कर दिया था कि वो इस फैसले के साथ नहीं हैं. बीएसपी प्रमुख मायावती से लेकर लोजपा (रामविलास) तक सभी दलित नेता इस फैसले के विरोध में दिखाई दे रहे थे. संविधान बचाओ-आरक्षण बचाओ नारे का नुकसान झेल चुकी बीजेपी फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी. फाइनली 9 अगस्त को बीजेपी के एससीएसटी सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. पीएम ने सांसदों को आश्वासन दे दिया कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लागू नहीं किया जाएगा. 9 अगस्त को ही देर रात केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी इस सिलसिले में फैसला ले लिया कि इस फैसले को लागू नहीं किया जाएगा. भारतीय जनता पार्टी के इस फैसले को देखते हुए इंडिया गठबंधन के दलों में हलचल मच गई . कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी आनन-फानन में फैसले लिए . देखते ही देखते दलित सब कोटे पर देश की राजनीति ही बदल गई.

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कांग्रेस का बदला रुख

सुप्रीम कोर्ट ने दलित सब कोटे के फैसले पर जिस दिन मुहर लगाई उसी दिन तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंथ रेड्ड्ी ने फैसले का स्वागत करते हुए घोषणा कि उनके राज्य में भविष्य में होने वाली सभी भर्तियों में कोटे में कोटे के फैसले का पालन किया जाएगा. कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी कहा कि उनके राज्य में जल्द ही इस फैसले का क्रियान्वयन किया जाएगा. इन दोनों में राज्यों में कांग्रेस की सरकारें होने के चलते आम तौर पर यही धारणा बनी कि पार्टी इस फैसले का स्वागत करेगी. पर कांग्रेस पार्टी का अधिकारिक बयान नहीं आया. हो सकता है कि कांग्रेस के नेता पहले भारतीय जनता पार्टी का रुख देखना चाह रहे हों. क्योंकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्राओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके और सेफोलॉजिस्ट के रूप में मशहूर हो चुके योगेंद्र यादव ने इंडियन एक्सप्रेस में एक ऑर्टिकल लिखकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की भूरि-भूरि तारीफ की. यादव के इस लेख के बाद ऐसा माना जा रहा था कि राहुल गांधी भी इस फैसले की जल्द ही तारीफ करेंगे. पर इस बीच 9 अगस्त को बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट के दलित कोटे में कोटा बनाने के फैसले से दूरी बना ली. केंद्र सरकार ने क्लियर कर दिया कि सरकार भीम राव आंबेडकर के बनाए संविधान के हिसाब से आरक्षण लागू करने में विश्वास रखती है. जाहिर था कि कांग्रेस ने आनन-फानन में अपनी पॉलिसी बदली. 10 अगस्त को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी दलित सब कोटे का विरोध कर दिया.

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कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के अंदर उप-वर्गीकरण और ‘क्रीमी लेयर’ संबंधी उच्चतम न्यायालय के फैसले के प्रति विरोध जताते हुए शनिवार को कहा कि सरकार को यह निर्णय आते ही इसे संसद के माध्यम से निरस्त करना चाहिए था.उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर आरक्षण खत्म करने के प्रयास का आरोप लगाया और यह भी कहा कि किसी को क्रीमी लेयर के फैसले को मान्यता नहीं देना चाहिए, तथा जब तक छुआछूत है, तब तक आरक्षण रहना चाहिए.

समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव का गोल-मोल जवाब

समाजवादी पार्टी पर दलित शुरू से आरोप लगाते रहे हैं कि प्रमोशन में आरक्षण का इस पार्टी ने विरोध किया था. यही नहीं दलित महापुरुषों के नाम पर मायावती सरकार के बनाए जिलों और पार्कों के नाम बदलने का आरोप भी लगता रहा है. इसके बावजूद इस साल हुए लोकसभा चुनावों में दलित वोटों के बल पर समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी सफलता अर्जित की है. जाहिर है कि अखिलेश यादव को अपने पीडीए फार्मूले को अगर मजबूत रखने के लिए आगे तो आना ही था. पहले कांग्रेस और बीजेपी की तरह अखिलेश यादव को भी नहीं अहसास हुआ कि दलित समुदाय में इस फैसले का इतना तीव्र विरोध होगा. शायद यही कारण रहा कि 1 अगस्त को फैसला आने के बाद 11 अगस्त तक अखिलेश यादव ने इस फैसले के बारे में कुछ भी न बोला और न ही लिखा. पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बदलते रुख के चलते अखिलेश यादव ने भी वही राह पकड़ना ठीक समझा. 11 अगस्त को उन्होंने एक्स पर लिखा... 

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'किसी भी प्रकार के आरक्षण का मूल उद्देश्य उपेक्षित समाज का सशक्तीकरण होना चाहिए, न कि उस समाज का विभाजन या विघटन, इससे आरक्षण के मूल सिद्धांत की ही अवहेलना होती है.

अनगिनत पीढ़ियों से चले आ रहे भेदभाव और मौकों की गैर-बराबरी की खाई चंद पीढ़ियों में आए परिवर्तनों से पाटी नहीं जा सकती. ‘आरक्षण’ शोषित, वंचित समाज को सशक्त और सबल करने का सांविधानिक मार्ग है, इसी से बदलाव आएगा, इसके प्रावधानों को बदलने की आवश्यकता नहीं है.

भाजपा सरकार हर बार अपने गोलमोल बयानों और मुक़दमों के माध्यम से आरक्षण की लड़ाई को कमज़ोर करने की कोशिश करती है, फिर जब पीडीए के विभिन्न घटकों का दबाव पड़ता है, तो दिखावटी सहानुभूति दिखाकर पीछे हटने का नाटक करती है। भाजपा की अंदरूनी सोच सदैव आरक्षण विरोधी रही है. इसीलिए भाजपा पर से 90% पीडीए समाज का भरोसा लगातार गिरता जा रहा है. आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा की विश्वसनीयता शून्य हो चुकी है। 

पीडीए के लिए ‘संविधान’ संजीवनी है, तो ‘आरक्षण’ प्रायवायु!'

हालांकि अखिलेश यादव के चुप्पी तोड़ने को अभी भी लोग संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि अखिलेश यादव ने बातों को बहुत घुमाफिरा कहा है. उनकी जो शैली है विरोध करने की वो इसमें नहीं दिख रही है. जैसे लग रहा है कि वो मजबूरी में कोई बयान दे रहे हैं.

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बीजेपी को क्यों लेना पड़ा ऐसा फैसला

भारतीय जनता पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू नहीं करने का जो फैसला लिया अचानक का लिया फैसला नहीं कहा जाएगा. हालांकि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलित सब कोटे पर जो राय दी थी वो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप ही था. इसके बावजूद पार्टी ने अपना ऑफिशियल स्टेटमेंट जारी नहीं किया था. बीजेपी को इस मामले में उसके दो प्रमुख सहयोगी जनता दल यूनाइटेड और तेलुगुदेशम पार्टियों का सहयोग मिलना सुनिश्चित था. क्योंकि जनता दल यू और तेलुगुदेशम दोनों ने खुलकर इस फैसले का स्वागत किया था. केवल लोजपा ( रामविलास ) ने ही इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की बात की थी. सहयोगी पार्टियों के एक और दलित चेहरे केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने इस फैसले का न विरोध किया था और न ही समर्थन किया था. उन्होंने मौन रखना ही उचित समझा था. इसके बावजूद अगर भारतीय जनता पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ जाने की हिम्मत नहीं दिखाई तो उसके पीछे कई कारण हैं.

दरअसल सीएसडीएस के सर्वे की माने तो  यूपी में लोकसभा चुनावों में जाटवों ने इस बार पिछली बार से अधिक बीजेपी को वोट दिया था. जबकि गैर जाटव वोट समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ गए थे. यह देखने में मिल रहा था जाटव सबसे अधिक विरोध इस फैसले का कर रहे हैं. दूसरी बात यह भी थी कि पार्टी को पता है कि अगर इस फैसले का समर्थन किया तो विपक्ष दोगुनी शक्ति से संविधान से छेड़छाड़ का आरोप लगाएगी. भारतीय जनता पार्टी जानती है कि संविधान बचाओ के नारे से लोकसभा चुनावों में उसका कितना नुकसान हो चुका है. इसलिए बीजेपी ने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से पहले दलित सब कोटे का विरोध करके इन दलों की दलित राजनीति पर बढ़त लेने की कोशिश की है.

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