बीजेपी को सूफी मत के लोग इसलिए भी पसंद हैं क्योंकि वे सारे मुस्लिम नहीं हैं. वैसे बीजेपी को मतलब सिर्फ सूफी मुस्लिमों से है. जैसे अब तक पसमांदा मुस्लिमों को लेकर देखने को मिली है. पसमांदा मुस्लिमों से बीजेपी की करीबी की वजह उनका पिछड़े वर्ग से होना है. देखें तो बीजेपी पसमांदा मुस्लिमों के प्रति उतनी ही सदाशयता दिखाती है, जितना OBC को लेकर कांग्रेस और INDIA खेमे के नेता और राजनीतिक दलों की है - और इस तरह सूफी मुसलमानों के जरिये बीजेपी अब विपक्षी वोट बैंक में सेंध लगाकर तोड़ फोड़ मचाना चाहती है.
बीजेपी ने अभी अभी जो सूफी संवाद अभियान कार्यक्रम किया है, उसका मकसद साफ तौर पर यूपी में विपक्षी एकजुटता की कवायद में बाधा डालना है. केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के दो साल बाद 2016 में दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय सूफी सम्मेलन भी हुआ था जिसमें, 'भारत माता की जय' के नारे भी लगे थे - और मोदी का भाषण भी हुआ था.
लखनऊ के कार्यक्रम में भी एक खास नारा लगा है, "ना दूरी है ना खाई है, मोदी हमारा भाई है!" ये नारा बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे की तरफ से उत्तर प्रदेश के 100 दरगाहों से आये 200 सूफी लोगों से लगवाया गया.
लगे हाथ सूफी मत मानने वालों से अपील की गयी कि वे पूरे देश के मुस्लिम समुदाय के बीच केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों और सरकारी योजनाओं के बारे में बतायें. लखनऊ की ही तरह बीजेपी देश भर में ऐसे कई कार्यक्रम करने जा रही है. इसके लिए 22 राज्यों में बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा की तरफ से समितियां बनायी गयी हैं - और इस तरह 10 हजार दरगाह प्रमुखों तक पहुंचने का प्रयास किया जाना है.
अव्वल तो सूफी मत को मानने वालों मुस्लिम समुदाय के अलावा बाकी धर्मों के लोग भी शामिल हैं, लेकिन उत्तर भारत में मुस्लिम सबसे ज्यादा हैं. Pew research 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर भारत के 37 फीसदी मुसलमान खुद को सूफी मानते हैं. 2024 के आम चुनाव में बीजेपी की कोशिश उत्तर भारत की सीटें बरकरार रखते हुए हारी हुई सीटों को अपनी झोली में डालने की कोशिश है, तो दक्षिण भारत में कर्नाटक से आगे भी पांव जमाने का प्रयास है. ऐसे में भाजपा का यह ताजा चुनावी सूफी संगीत नए वोटर आकर्षित कर सकता है.
सूफी मुसलमानों से क्या चाहती है बीजेपी?
सूफी महासंवाद कार्यक्रम 12 अक्टूबर को लखनऊ के बीजेपी दफ्तर में कराया गया. कार्यक्रम के दौरान सूफी लोगों को समझाया गया कि कैसे उनको अपने लोगों के बीच पहुंच कर बीजेपी सरकार का कामों को पेश करना है.
बीजेपी ये चाहती है कि मुस्लिम समुदाय के बीच विपक्षी दल जो गलतफहमियां फैलाते हैं, उसे भी दूर करने की कोशिश हो - और सूफी संवाद कार्यक्रम में बुलाये गये मेहमानों से एक बड़ी अपेक्षा ये भी रही.
बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के नेताओं ने बताया कि सूफी विचारधारा की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा ही तारीफ की है, और सूफी विचारधारा की वजह से देश के अंदर अमन चैन बढ़ी है. लगे हाथ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का जिक्र करते हुए ये भी समझाया गया कि दोनों दलों के नेता लगातार मुस्लिम सुमदाय को भटकाने का काम कर रहे हैं. और इस तरह बहुत बड़ी खाई खोदी गयी है, जिसे पाटने की बीजेपी कोशिश कर रही है.
लब्बोलुआब ये है कि बीजेपी चाहती है कि सूफी समाज मुस्लिम समुदाय के बीच पहुंच कर बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाये, इसके लिए बीजेपी का खास जोर मुस्लिम बहुल आबादी वाले चुनाव क्षेत्रों पर है. ऐसे इलाकों के मुस्लिम वोटर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बीजेपी यूपी के मदरसों के माध्यम से भी मुस्लिम समुदाय तक पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रही है.
सूफी संवाद कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी की जिस तारीफ का जिक्र किया गया, वो कार्यक्रम दिल्ली में हुआ था. मार्च, 2016 में हुए अंतर्राष्ट्रीय सूफी सम्मेलन में 20 मुल्कों के 200 से ज्यादा सूफी स्कॉलर शामिल हुए थे.
तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'इस्लाम अमन का पैगाम देता है, सूफीज्म उसकी आवाज है... अल्लाह के 99 नाम हैं, इनमें से किसी का भी मतलब हिंसा नहीं है.'
अपने भाषण में मोदी ने कहा था, ''दुनिया को हिंसा और आंतक की लंबी होती छाया ने घेर रखा है... ऐसे अंधेरे माहौल में आप उम्मीद का नूर हो... इजिप्ट और वेस्ट एशिया में अपने उदय के बाद से ही सूफीज्म ने पूरी दुनिया में शांति और मानवता का मैसेज दिया है... सूफी लोगों के लिए खुदा की सेवा का मतलब मानवता की सेवा है.''
हजरत निजामुद्दीन औलिया का हवाला देते हुए मोदी ने कहा था कि अल्लाह उन्हें प्यार करता है जो इंसानियत से प्यार करते हैं.
मुस्लिम वोटर पर बीजेपी इतनी मेहरबान क्यों है?
एक आम धारणा तो यही है कि मुस्लिम मतदाता बीजेपी को वोट नहीं देते. और इसकी दो खास वजह अयोध्या का मंदिर आंदोलन और 2002 के गुजरात के दंगे माने जाते हैं. लेकिन बड़ा सच ये भी है कि बीजेपी का वोटर इसी वजह से एकजुट होता है, और चुनाव दर चुनाव बीजेपी की जीत के साथ ये बात सही साबित होती जा रही है.
जिस वक्त बीजेपी चाहती है कि उसका हिंदू वोट बैंक एकजुट रहे, ऐन उसी वक्त बीजेपी ये भी चाहती कि मुस्लिम वोट जैसे भी संभव हो, बिखर जाये. मतलब, उसके खिलाफ किसी एक राजनीतिक दल को न मिल पाये.
1. जैसे तीन तलाक कानून लाकर बीजेपी सरकार की तरफ से मुस्लिम वोटर के घर में घुसपैठ की कोशिश हुई. मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव को लेकर उनसे सहानुभूति जताते हुए कोशिश तो हुई की मुमकिन हो तो वे बीजेपी के खिलाफ वोट देने की घर परिवार और शौहर के फरमान की मुखालफत करें.
2. यूपी चुनाव 2022 के दौरान बीजेपी नेता अमित शाह ने बीएसपी नेता मायावती की तारीफ की थी, ये बोल कर कि बीएसपी की प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई है. ताकि, मुस्लिम वोट पूरी तरह समाजवादी पार्टी की तरफ ने पोल हो जाये. बाद में ये भी देखा गया कि मायावती ने आजमगढ़ में मुस्लिम उम्मीदवार उतार दिया जो बीजेपी की जीत में मददगार साबित हुआ.
3. प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर पसमांदा मुस्लिम तक बीजेपी की पहुंच बढ़ाने की भी यही वजह है. कुछ ऐसा हो कि मुस्लिम समुदाय में फूट पड़े और वोट बंट जाये. बीजेपी को मिले न मिले, लेकिन किसी भी बीजेपी विरोधी राजनीतिक दल को एकजुट वोट तो नहीं ही मिल पाये.
4. सूफियाने लोगों तक बीजेपी की पहुंच बढ़ाने के लिए अब नया प्रयोग होने लगा है - खास बात ये है कि सूफी लोग सिर्फ मुस्लिम समुदाय के ही नहीं होते, लेकिन जो इस आध्यात्मिक धारा को मानते हैं, उनमें मुस्लिम की संख्या बाकियों के मुकाबले ज्यादा है.
क्या सूफी मत को मानने वाले मुस्लिम ही होते हैं?
सूफी विचारधारा से मुस्लिम समुदाय के साथ साथ बाकी धर्मों के मानने वाले भी हैं. प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर 6 फीसदी लोग सूफी मत को मानते हैं. इस्लाम से आये सूफी मत को मानने वालों में अब भी सबसे ज्यादा मुस्लिम ही हैं - 11 फीसदी. मुस्लिम समुदाय के बाद 9 फीसदी सिख और 5 फीसदी सूफी मत मानने वाले हिंदू भी हैं.
दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सूफी मतावलंबियों की तादाद सबसे ज्यादा है. रिपोर्ट के अनुसार, यहां सबसे ज्यादा 37 फीसदी सूफी मत मानने वाले लोग हैं, जिनमें 7 फीसदी चिश्तिया और 12 फीसदी कादरिया मत को मानते हैं. हिंदुओं में भी 6 फीसदी चिश्तिया सहित 12 फीसदी लोग उत्तर भारत में बतौर सूफी मतावलंबी अपनी पहचान पेश करते हैं, और 10 फीसदी सिख भी सूफी मत मानने वाले हैं.
मृगांक शेखर