बिहार विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन ने प्रचंड जीत हासिल कर सत्ता में वापसी की है, जबकि दूसरी ओर आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन 2010 के बाद अपना सबसे खराब प्रदर्शन के साथ पूरी तरह ध्वस्त हो गया है. आइए जानते हैं तेजस्वी-राहुल के नेतृत्व में महागठबंधन को मिली करारी हार के पांच बड़े कारणों के बारे में...
महागठबंधन में विश्वास की कमी
विधानसभा चुनाव के ऐलान से पहले ही ऐसा प्रतीत हुआ कि महागठबंधन के घटक दलों के बीच विश्वास की भारी कमी थी और सहयोगियों के बीच लगातार कलह-खींचतान जारी थी. तेजस्वी यादव गठबंधन का नेतृत्व करना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस सहयोगी भूमिका निभाने को तैयार नहीं थी.
ये कलह तब जगजाहिर हुई, तब वोटर अधिकार यात्रा के बाद राहुल गांधी बिहार से गायब हो गए और उन्होंने आंतरिक कलह की शिकायतों पर ध्यान देने से इनकार कर दिया. यहां तक कि मुकेश सहनी और सीपीआईएम जैसे छोटे दल भी खुलकर अपनी हिस्सेदारी की मांग करने लगे.
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उधर, जब तेजस्वी लैंड-फॉर-जॉब्स केस के लिए गए तो सभी को राहुल की तेजस्वी से मुलाकात की उम्मीद थी, लेकिन मुलाकात नहीं हुई, बल्कि ये बताया गया कि तेजस्वी गुस्से में वापस पटना चले गए.
वहीं, सीट शेयरिंग को लेकर शुरू हुआ झगड़ा महागठबंधन में फूट डाल गया, क्योंकि हर पार्टी ने अपना-अपना प्रचार कैंपेन चला दिया. इससे कार्यकर्ताओं के बीच अविश्वास पैदा हुआ और अंततः वोट ट्रांसफर नहीं हुआ.
तेजस्वी को CM उम्मीदवार बनाना बड़ी भूल
तेजस्वी को सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करना महागठबंधन की सबसे बड़ी गलती साबित हुआ. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा, 'हमारी सबसे बड़ी गलतियों में से एक तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना था. हम ऐसा कभी नहीं करना चाहते थे.'
कांग्रेस में कई लोगों का मानना था कि तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के मामलों और 'जंगल राज' की विरासत का भारी बोझ है. ऐसे वक्त में जब प्रशांत किशोर विश्वसनीयता और शैक्षिक योग्यता पर जोर दे रहे थे तो तेजस्वी की घोषणा ने मतदाताओं को बांट दिया.
कांग्रेस ने अपने संकटमोचक और अनुभवी नेता अशोक गहलोत को भी मैदान में उतारा, लेकिन वे कुछ खास नहीं कर पाए, क्योंकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
मौर्या होटल के मंच पर गहलोत दिल्ली से दी स्क्रिप्ट पढ़ते रहे, जबकि कृष्णा अल्लावरु को किनारे पर बैठा दिया, जिससे ये अटकलें तेज हो गईं कि महागठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है और दरार पूरी तरह से खुल गई है. पोस्टर में केवल तेजस्वी का हावी होना भी ये संदेश दे गया कि RJD ने कांग्रेस पर अपना फैसला थोपा है. एक और बड़ी भूल मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम उम्मीदवार घोषित करना भी गलती थी, जिसने मुस्लिम समुदाय को नाराज किया.
राहुल गांधी का फ्लॉप शो
विपक्ष के नेतृत्व वाला अभियान ढीला था और साझेदारों के बीच तालमेल की कमी थी. जब राहुल गांधी अमेरिका की यात्रा के बाद राजनीतिक परिदृश्य में लौटे, तब तक कांग्रेस अपने रास्ते से भटक चुकी थी. राहुल गांधी की रैलियों ने मतदाताओं के साथ तालमेल नहीं बिठाया, क्योंकि वह प्रवासन और कैसे बिहार के लोगों को देश के अन्य हिस्सों में दूर किया जा रहा है, इस बारे में बात कर रहे थे. जिस वक्त प्रशांत किशोर पहले ही विकास का नैरेटिव सेट कर चुके थे, राहुल गांधी के भाषण पुराने लगे और उन्हें समर्थन नहीं मिल पाया.
वहीं, बिहार में विपक्ष के नेता के प्रचार के बारे में पूछे जाने पर एक युवा ने कहा, "राहुल गांधी का क्या? बिहार में उनका कोई दखल नहीं है. जब हम दिल्ली की बात करते हैं तो हमें राहुल गांधी का ख्याल आता है. यहां नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव हैं, प्रशांत किशोर नहीं."
इसके अलावा बिहार के युवा राहुल गांधी के साथ जुड़ नहीं पाए और उन्हें एक बाहरी व्यक्ति के रूप में देखा. प्रियंका गांधी का करिश्मा भी बिहार में उतना काम नहीं कर पाया, जितना उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में किया था. ये साफ था कि कांग्रेस के स्टार प्रचार बिहार में पूरी तरह से फ्लॉप रहे.
SIR मुद्दा नहीं पकड़ पाया जोर
राहुल गांधी ने राष्ट्रीय राजधानी में 'वोट चोरी' (चुनाव धोखाधड़ी) पर अपनी मेगा प्रेस कांफ्रेंस के बाद 'वोटर अधिकार यात्रा' शुरू की. हालांकि, शुरुआती उत्साह के बाद SIR का मुद्दा जनता के बीच पकड़ बनाने और समर्थन हासिल करने में विफल रहा. जबकि राहुल वोट चोरी पर अड़े रहे जो शायद एक राष्ट्रीय मुद्दा था.
कांग्रेस ये समझने में नाकामयाब रही कि वह बिहार की राजनीतिक जमीन में एंट्री नहीं कर पाई.
RJD के एक वरिष्ठ नेता ने आजतक/इंडिया टुडे को बताया, 'जब चुनाव करीब थे तो राहुल गांधी ने ये यात्रा निकालने का फैसला किया, जिससे हमारी काफी ताकत गलत दिशा में चली गई. दरअसल, राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि यात्रा का समापन गांधी मैदान में एक विशाल रैली के साथ होना चाहिए. हम सहमत नहीं थे, क्योंकि हमारे कार्यकर्ता यात्रा के दौरान पहले से ही हमारे साथ थे. कई लोगों ने कांग्रेस के झंडे भी उठाए, लेकिन हमें कांग्रेस से वैसा सहयोग नहीं मिला.'
उधर, NDA ने तत्काल सतर्क मोड पर जाकर कई सरकारी योजनाओं के साथ इसका मुकाबला किया और 'लखपति दीदी योजना' के माध्यम से महिला मतदाताओं को लुभाया लिया.
सीट बंटवारे को लेकर घमासान
महागठबंधन में सीट शेयरिंग को लेकर पटना से दिल्ली तक अंदरूनी कलह बेकाबू हो गई और तीखी बयानबाजी तेज हो गई. पहले लालू प्रसाद यादव और सोनिया गांधी ने कई गठबंधनों के बीच तनाव को कम किया था, लेकिन इस बार दिग्गज नेताओं के पीछे हटने से ये एक खुली जंग तब्दील हो गया.
इस बार गठबंधन में अनुभवी और संदेशवाहकों की कमी थी जो मतभेदों को दूर कर सकते थे. बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम ने कहा कि राहुल गांधी बिहार यूनिट के प्रस्ताव से बहुत खुश हैं और उन्होंने हमें अपने सहयोगियों से बात करने की जिम्मेदारी सौंपी है.
राहुल गांधी के करीबी कृष्णा अल्लावरु ने कुछ 'जीतने योग्य' सीटों पर अपनी बात से पीछे हटने से इनकार कर दिया. RJD और कांग्रेस के बीच तनाव इतना बढ़ गया कि कई दिनों तक बातचीत बंद हो गई और अंततः दोनों सहयोगी लगभग एक दर्जन सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने लगे.
इससे न केवल महागठबंधन के पूरा चुनाव अभियान प्रभावित हुआ, बल्कि पार्टी के आपसी संबंधों में भी खटास आई और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच एकता को भी कमजोर किया.
बिहार में बीजेपी की आंधी
बीजेपी ने राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से सबसे ज्यादा 89 सीटों पर जीत दर्ज की है, जबकि उसकी सहयोगी जेडीयू ने 85 सीटों अपने नाम कर ली हैं. तो वहीं, NDA ने प्रचंड बहुमत हासिल करते हुए 202 सीटों पर जीत हासिल की है. उधर आरजेडी-कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन 35 सीटों पर सिमट गया है.
मौसमी सिंह