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जज्बे के आगे बौनी पड़ी चुनौती, ऐसे जज बना पुणे का ये लड़का

मानसी मिश्रा
  • 03 जनवरी 2020,
  • अपडेटेड 1:00 PM IST
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कहते हैं इंसान अगर इरादा कर ले तो अपनी तकदीर अपने हाथों लिख सकता है. पुणे के रहने वाले निखिल बाजी इसकी नजीर हैं. बचपन से सेरेब्रल पाल्सी के चलते अपने पैरों पर पूरी तरह खड़े न हो पाने वाले 31 साल के निखिल ने जज बनकर इसे कर दिखाया है. एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के निखिल बाजी के पिता का काम कमजोर पड़ने के बाद खुद अपनी कमाई से जज परीक्षा की तैयारी करने वाले निखिल ने aajtak.in से अपनी स्ट्रेटजी साझा की. पढ़ें-

Image Credit: aajtak.in/ special permission

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निखिल बाजी ने दिसंबर में ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी और सिविल जज जूनियर डिवीजन परीक्षा पास की है. फरवरी में वो जूनियर डिवीजन सिविल जज के रूप में कार्यभार संभालेंगे. बता दें कि 31 साल के निखिल जन्म से सेरेब्रल पाल्सी के मरीज हैं. निखिल के परिवार में उनके अलावा उनके माता-पिता, भाई और भाभी हैं.

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निखिल बताते हैं कि उनके पिता रामचंद्र बाजी का प्रिंटिंग प्रेस था, लेकिन पापा को पैरालिसिस का अटैक आने के बाद वो बंद हो गया तो घर में आर्थिक तंगी का माहौल हो गया था. मम्मी कांचन प्रसाद बाजी हाउसवाइफ हैं. मैंने तय किया था कि अब आगे की पढ़ाई किसी तरह खुद के खर्च से करूंगा. फिर मैंने लॉ करने के बाद एक लॉ फर्म में काम करना शुरू कर दिया. जहां बीते पांच साल से वकालत कर रहा हूं. वो बताते हैं कि फिलहाल उनके भाई और भाभी भी अच्छी कंपनियों में काम कर रहे हैं. 

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निखिल बताते हैं कि बचपन से मुझे मम्मी- पापा ने मोटिवेट किया कि मैं नॉर्मल बच्चे की तरह फील करूं. मैं वकालत करते करते ज्यूडिशरी का एग्जाम देता था. वो कहते हैं कि किसी को भी अपनी प्रॉब्लम को लेकर रोना नहीं चाहिए. देखना ये चाहिए कि कैसे इस प्रॉब्लम को पार करके अपना लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.

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 वो बताते हैं कि बचपन में जब सारे बच्चे क्रिकेट खेलते थे, मेरा भी बहुत मन करता था कि क्रिकेट खेलूं. मैं शारीरिक अक्षमता के कारण खेल नहीं सकता था, इसलिए बेंच पर बैठकर एंपायरिंग करता था. इस तरह मैं सोसायटी में क्रिकेट टीम का हिस्सा बन गया. मैं उसमें इनवॉल्व रहता था. इसलिए जरूरी है कि हर उस परिस्थिति को एडॉप्ट करना चाहिए जो आपको कठिन लग रही हो.

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फायदेमंद है नया डिसऐबिलिटी एक्ट  

निखिल ने कहा कि सरकार जो नया डिसऐबिलिटी एक्ट लाई है, वो दिव्यांगों के लिए काफी मददगार है. वो कहते हैं कि मेरा मानना है कि जो भी हमें संसाधन मिले हैं, उसी को यूटिलाइज करना चाहिए. जो हमारे पास नहीं है उसके बारे में रोने से फायदा नहीं होगा. जो हमारे पास है उसे बिल्डअप करना चाहिए.

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निखिल कहते हैं कि एक चीज हमेशा मेरे दिमाग में थी कि मैं जॉब करते-करते तैयारी करूंगा.मेरे दिमाग में था कि कैसे भी घर पर मेरा कंट्रीब्यूशन जरूर होना चाहिए, इसलिए एडवोकेट के यहां भी काम करता था. काम के बाद घर में आकर तैयारी के लिए वक्त निकालता था. मेरी इस जर्नी में गणेश सर जो मेरे टीचर हैं, उन्होंने बहुत हेल्प की है.

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निखिल कहते हैं कि जज का पद पाना एक बड़ी जिम्मेदारी है. इसमें समाज के प्रति जवाबदेही होती है. न्यायपालिका ने सर्विस के बहुत ऊंचे मापदंड रखे हैं. मैं उसकी मर्यादा बनाए रखने की कोशिश करूंगा. मेरा मानना है कि जब लोगों के सामने सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं तब न्यायपालिका ही वो अंतिम दरवाजा होता है, जिसे वे खटखटाते हैं.

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मैंने हमेशा यही सोचा कि कैसे चीजों को और पॉजिटिव लिया जाए. मैंने ये भी महसूस किया है कि बड़े शहरों में लोगों में दिव्यांगो को देखने का नजरिया बदल रहा है, वो हमें हेल्प करना चाहते हैं, हालांकि हमें हेल्प की इतनी जरूरत नहीं होती है लेकिन फिर भी लोग आगे आते हैं. अगर लोगों को संसाधन मिलें तो वो कोई भी कठिन लक्ष्य पा सकते हैं.

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निखिल ने कहा कि जो परीक्षा देते हैं उन्हें सिर्फ वक्त का सही उपयोग करना आना चाहिए. वो अपने बचपन का किस्सा बताते हैं कि कैसे उन्होंने परिस्थितियों को अपनाया.

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