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आसिम मुनीर का शाहबाज शरीफ के लिए 'रिटर्न गिफ्ट' क्‍या होगा? इतिहास के इशारे खौफनाक हैं

पाकिस्तान का इतिहास बताता है कि कोई नेता कितना ही सेना का वफादार हो, उसका हश्र बुरा ही होता है. सेना के लिए वो यूज एंड थ्रो की तरह है. अब सवाल ये उठता है कि शाहबाज शरीफ जिस शिद्दत से आसिम मुनीर के ताज में रत्‍न जड़ रहे हैं, उन्‍हें इसके बदले में कब तक मोहलत मिलेगी.

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शाहबाज शरीफ कब तक आसिम मुनीर की उम्‍मीदों पर खरे उतरेंगे?
शाहबाज शरीफ कब तक आसिम मुनीर की उम्‍मीदों पर खरे उतरेंगे?

पाकिस्तान की राजनीति में सिविल लीडरशिप और मिलिट्री का रिश्‍ता हमेशा से पेंचीदा रहा है. हर दौर में दोनों महकमों ने शुरुआत तो बहुत दोस्‍ताना ढंग से की. कहा गया कि 'हम सेम पेज पर हैं', 'ये हाईब्रिड सरकार है', वगैरह-वगैरह. लेकिन, जैसे ही संबंध बिगड़ते हैं और गाड़ी पटरी से उतरती है, सिविल लीडरशिप जेल में होती है, या देश से बाहर निकाल दी जाती है और तकदीर बहुत खराब रही तो मारी भी जाती है. इन दिनों पाकिस्‍तान में सिविल और मिलिट्री लीडरशिप अपने हनीमून वाले दौर में है. सबकुछ बहुत रोमांटिक है. शाहबाज शरीफ की सरकार मजबूत से मजबूत होती जा रही है, क्‍योंकि, वो सेना प्रमुख आसिम मुनीर के हुजूर में वो सब देते जा रहे हैं, जिसका अब तक के फौजी हुक्‍मरान सपना ही देखते रहे. लेकिन, अब पाकिस्‍तान में ही इस बात पर मंथन शुरू हो गया है और पूछा जा रहा है कि ये रिश्‍ता कब तक कायम रहेगा?

फिल्‍ड मार्शल बनाए गए आसिम मुनीर को पाकिस्‍तान की संसद ताउम्र 'हुक्‍मरान' बने रहने का ओहदा सौंप रही है. 27वें संविधान संशोधन के साथ पाकिस्‍तान की ज्‍यूडिशरी को दो हिस्‍से में बांटकर सैनिक हुक्‍मरानों की बताई लाइन पर खड़ा किया जा रहा है. पाकिस्‍तान की राजनीति पर नजर रखने वाले इस घटनाक्रम आश्‍चर्यजनक नहीं मान रहे हैं. क्‍योंकि पाकिस्‍तान के लोकतंत्र की चमक के नीचे सैना के प्रभाव की गहरी छाया हमेशा मौजूद रही है. वरिष्ठ पत्रकार रऊफ क्लासरा द्वारा एक्स (पूर्व ट्विटर) पर साझा किए गए एक पोस्ट ने इस सच्चाई को एक बार फिर उजागर किया है. क्लासरा की पोस्ट न केवल ऐतिहासिक घटनाओं का एक कड़वा सारांश है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे पाकिस्तानी राजनेता – चाहे वे PPP के आसिफ अली जरदारी हों, PML-N के नवाज शरीफ हों या PTI के इमरान खान – सैन्य नेतृत्व के मोहरे मात्र साबित हुए हैं. इस विश्लेषण के आधार पर पाकिस्तान में सिविल-मिलिट्री संबंधों के उतार-चढ़ाव को समझने की कोशिश करेंगे, और देखेंगे कि कैसे ये संबंध लोकतंत्र को खिलौना बनाते चले गए और आवाम एक मजाक बनकर रह गई.

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मेमोगेट से डान लीक्स तक: सेना ने कैसे नचाईं कठपुतलियां

पाकिस्तान की सिविल-मिलिट्री संबंधों की कहानी 1958 के पहले सैन्य तख्तापलट से शुरू होती है, लेकिन क्लासरा का पोस्ट 2011 के मेमोगेट स्कैंडल से शुरुआत करता है. मेमोगेट एक ऐसा विवाद था, जिसमें जरदारी और यूसुफ रजा गिलानी के नेतृत्व वाली PPP सरकार और पाकिस्तानी सेना के बीच खुली टकराव की स्थिति बन गई थी. अमेरिकी राजदूत हुसैन हक्‍कानी को इस्तीफा देना पड़ा और उनका नाम एक्जिट कंट्रोल लिस्ट (ईसीएल) में डाल दिया गया. यह सब इमरान खान, नवाज शरीफ, न्यायपालिका और सेना का मिलाजुला 'खेल' था, जो PPP सरकार को गिराने के लिए रचा गया. पृष्ठभूमि में था केरी-लूगर बिल. जिसके तहत अमेरिका से 7 अरब डॉलर की सहायता पहली बार सिविलियन सरकार को मिल रही थी, न कि सेना को. इससे सेना के शीर्ष कमांडर जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और डीजी आईएसआई अहमद शूजा पाशा नाराज थे.

इन जनरलों ने सुप्रीम कोर्ट में गिलानी-जरदारी सरकार के खिलाफ हलफनामा दाखिल किया. जवाब में गिलानी ने चीन के एक अखबार को इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि ये जनरल संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं. इससे कयानी नाराज़ हो गए, और हर हफ्ते पाकिस्‍तान में रावलपिंडी स्थित सेना मुख्‍यालय GHQ में पत्रकार बुलाए जाते. जहां सेना की अगली चाल पर चर्चा होती. इमरान खान भी इस दौरान डीजी आईएसआई पाशा का साथ दे रहे थे. फिर पाशा ने ही इमरान को सत्ता सौंपी. यह घटना साबित करती है कि राजनेता सैनिक हितों के लिए कितने आसानी से मोड़ लिए जाते हैं.

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इसी तरह, 2011 के ओसामा बिन लादेन ऑपरेशन ने भी तनाव बढ़ाया. सेना पर सवाल खड़े करते हुए तत्‍कालीन प्रधानमंत्री गिलानी ने संसद में भाषण दिया कि 'हमने आपसे पूछा था कि ओसामा पाकिस्तान कैसे आया, तो आपने अमेरिकियों को वीजा देने पर जांच शुरू कर दी. आपने स्‍टेट के अंदर एक और स्‍टेट बना दी.' यह सिविलियन सुप्रीमेसी की मांग थी, लेकिन सेना ने इसे चुनौती माना. आगे चलकर 2016 के डान लीक्स ने नवाज शरीफ और जनरल राहिल शरीफ के बीच टकराव को जन्म दिया. मुद्दा था जनरल राहिल को एक्‍सटेंशन देने का. इसके लिए एक जांच कराई गई. लेकिन, इसकी रिपोर्ट को आईएसपीआर ने ट्वीट करके कहा 'रिजेक्टेड'. नतीजा? जनरल, जज और पत्रकार एकजुट हुए, और नवाज शरीफ बर्खास्त करके जेल भेज दिए गए. गिलानी भी इसी तरह बर्खास्त हो चुके थे. यानी, नवाज ने वही पाया जो उन्होंने गिलानी के खिलाफ किया था.

पाकिस्तान की 'टेंडर' सरकारें

पाकिस्तान में सेना प्रमुखों के कार्यकाल को एक्‍सटेंशन देना एक पुरानी परंपरा रही है, जो सिविलियन नेताओं की कमजोरी को उजागर करती है. जैसे इमरान खान ने जनरल कमर जावेद बाजवा को अपने '10 साल के प्लान' के तहत विस्तार दिया, वैसे ही जरदारी-गिलानी और अब शहबाज़ शरीफ ने भी दिया. 2018 से पहले की पाकिस्तानी राजनीति पर नजर डालें, तो साफ दिखता है कि सिविलियन सुप्रीमेसी कभी हकीकत नहीं बनी. इमरान खान ने बाजवा और जनरल फैज़ को सरकार 'टेंडर पर' सौंपी रखी थी, और संसद को एक आईएसआई कर्नल चला रहा था. आज शहबाज शरीफ के साथ वैसी ही स्थिति है.

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इमरान ने सत्ता की हवस में जनरलों के साथ यह खेल शुरू किया, और शहबाज़ ने इसे चरम पर पहुंचा दिया. पाकिस्‍तान का राजनीतिक इतिहास पढ़ें, तो साफ हो जाएगा कि पाकिस्तान में सिविल-मिलिट्री संबंधों की 'प्रोग्रेस' वास्तव में सैना के वर्चस्व का विस्तार ही है. पाकिस्‍तान के नेता अपनी सत्ता कायम करने और फिर उसे बचाने के लिए जनरलों के मोहरे बन जाते हैं. बदले में जनरल एक्‍सटेंशन लेते हैं और संसाधनों का जमकर दोहन करते हैं. अगर नेता उनकी बताई लाइन पर चलने में जरा भी आनाकानी करते हैं तो फिर उनके खिलाफ स्कैंडलों की मिसाइलें फायर कर दी जाती हैं. 

आम जनता के बीच यह बात जरूर होती है कि पाकिस्तान को सच्ची सिविलियन सुप्रीमेसी चाहिए, जहां संसद और जनता ही फैसले लें, न कि जीएचक्यू. लेकिन जब तक राजनेता सत्ता की भूख में मोहरेबाज़ी करते रहेंगे, यह सपना अधूरा रहेगा. क्या पाकिस्तान कभी इस जाल से बाहर निकलेगा? वहां का इतिहास जवाब देता है- नहीं.

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