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ल्यारी जीते, TTP से हारे... 'धुरंधर' वाले एसपी चौधरी असलम की हत्‍या, विश्‍वासघात से भरी है खौफनाक साजिश

धुरंधर मूवी में संजय दत्‍त ने जिस दबंग पुलिस अफसर चौधरी असलम का किरदार निभाया है, उसकी हत्‍या की कहानी किसी थ्रिलर फिल्‍म से कम नहीं है. चौधरी असलम धुरंधर की कहानी के केंद्रीय किरदार नहीं हैं. लेकिन उनके अंत की दास्‍तान जानना इसलिए जरूरी हो जाता है, ताकि यह पता चल सके पाकिस्‍तान में आतंक का दायरा किसी एक ल्यारी तक सीमित नहीं है.

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अकेले एसपी चौधरी असलम की कहानी में इतनी परतें हैं कि उस पर अलग से 'धुरंधर' बन जाए.
अकेले एसपी चौधरी असलम की कहानी में इतनी परतें हैं कि उस पर अलग से 'धुरंधर' बन जाए.

कामरान उस सुबह किसी अनजाने बोझ से दबा हुआ था. हमेशा की तरह उसने गाड़ी की चाबी तो उठा ली, लेकिन आज उसके हाथ कांप रहे थे. चेहरे पर पसीने की बूंदें और जहन में उलझे सवाल बताते थे कि कुछ ठीक नहीं है. तभी अचानक दरवाजा खुला और सफेद कॉटन का सलवार–कुर्ता पहने एक शख्‍स बाहर निकला. एक हाथ में सिगरेट, दूसरे में पिस्तौल.

'गाड़ी स्टार्ट करो,' उसने आदेश दिया. कामरान हकला गया- 'मुझे जाने दें... घर में इमरजेंसी है.' उसकी नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. वह जानता था कि वह झूठ बोल रहा है. शायद उसके मन में कुछ ऐसा राज दबा था, जिसे कहना उसकी मौत लिख सकता था. मगर सरकारी अफसर की आवाज़ गूंजी- 'गाड़ी तो आज तुम ही चलाओगे.'

इतना कहकर वो सफेद कपड़ों वाला आदमी गाड़ी में बैठ गया. ये कोई और नहीं, चौधरी असलम था. कराची पुलिस का वो नाम, जिससे बड़े-बड़े गैंगस्टर थरथराते थे. कामरान के साथ एसपी चौधरी असलम अपने अंतिम सफर की ओर चल रहे थे. आगे क्‍या हुआ, इस पर आने से पहले आइये झांकते हैं कराची पुलिस के सुपरकॉप की जिंदगी पर. जिनका किरदार आदित्‍य धर की मूवी धुरंधर में संजय दत्‍त निभा रहे हैं.

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हीरो भी, विलेन भी- चौधरी असलम के दो चेहरे

ल्‍यारी अंडरवर्ल्‍ड के पीछे पड़े इस पुलिस अवफसर की कहानी कराची का कोई भी शख्‍स एक लहजे में नहीं सुनाता है. किसी के लिए वह हीरो था, तो किसी के लिए विलेन. किसी के लिए फर्जी एनकाउंटर में मार देने वाला पुलिस अफसर, तो किसी के लिए सिंध पुलिस की बहादुरी का चेहरा.

1963 में मानसेरा (हजारा) में जन्मे असलम का परिवार उनके बचपन में ही कराची आ गया था. 21 साल की उम्र में 1984 में वे सिंध पुलिस में भर्ती हुए. कुछ ही वर्षों में कराची के थानों में उनकी पहचान बनने लगी.

गुलबहार थाने से ल्‍यारी टास्क फोर्स तक ‘खौफ और रसूख का सफर’

गुलबहार थाने में एसएचओ बनते ही उन्होंने डकैतों और हथियारबंद गैंग्स के खिलाफ अभियान छेड़ दिया. शहर के लोग उन्हें तब जानने लगे जब 1992 में एमक्यूएम के खिलाफ बड़े ऑपरेशन में उनका नाम सामने आया.

एक जुमला उस दौर में मशहूर हुआ- 'अगर चौधरी असलम ने रेड में उठा लिया, तो वो जिंदा नहीं मिलेगा.' यह दहशत यूं ही नहीं बनी थी. एक बार कार चोरी करने वाली गैंग का एक सदस्य चौधरी असलम के लॉकअप में लाया गया. जैसे ही उसे पता चला कि वह असलम के हाथ लग चुका है, उसने लॉकअप में ही फांसी लगा ली. यह थी चौधरी असलम की दहशत.

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चौधरी असलम की पकड़ जितनी अपराध पर थी, उतनी ही नेताओं पर भी. पाकिस्‍तान की मेन स्‍ट्रीम पालिटिक्‍स में मुहाजिर कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) कई लोगों को चुभती थी. वजह थी कि उसकी आक्रामक और अलगाववादी राजनीति. इस पार्टी के बाहुबलियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाकर चौधरी असलम को दूसरी पार्टियों से नजदीकियां मिल गईं. शहर के कई हिस्सों में उनका सिक्का चलने लगा. हालात यह थे कि- 'वे अपनी पोस्टिंग के साथ-साथ अफसरों की पोस्टिंग तक तय कराने लगे.'

2004 में असलम चौधरी को ल्‍यारी टास्क फोर्स का इंचार्ज बनाया गया. जिम्‍मा था ल्‍यारी के गैंग्‍सटरों का खात्‍मा. उन्‍होंने यहां की कई गैंग्‍स और तालिबान के खिलाफ ऑपरेशन को लीड किया.  मगर एक एनकाउंटर ने उनकी रफ्तार का थाम दिया. 12 जुलाई 2006 को उनको डकैत माशूक बरोही होने के भ्रम में रसूल बख्श बरोही नामक शख्‍स को एनकाउंटर में मार दिया गया. इस आरोप में उन्‍हें हिरासत में ले लिया गया और ल्‍यारी टास्क फोर्स को खत्म भी किया गया. लेकिन असलम की ताकत ऐसी थी कि 'नोटिफिकेशन एक दिन पहले जारी हुआ, और अगले ही दिन टास्क फोर्स फिर बहाल हो गई.' 

दोबारा वापसी में रहमान डकैत का अंत और फिर TTP से जंग

जेल जाने के बाद उन्होंने फिर वापसी की. 2009 में स्टील टाउन में हुए एनकाउंटर में ल्‍यारी गैंग वॉर के किंगपिन रहमान डकैत को मार गिराया. जबकि कहा यह भी जाता है कि 'रहमान को कहीं और मारकर उसकी लाश असलम को दी गई.' धुरंधर मूवी में यही घटनाक्रम नाटकीय अंदाज में दिखाया गया है. इस एनकाउंटर के बाद असलम का नाम एक बार फिर कराची की गलियों में गूंजने लगा.

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इसी बीच जब कराची में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्‍तान (TTP) का प्रभाव बढ़ने लगा, तो सरकार ने चौधरी असलम और उनकी टीम को सामने कर दिया. उन्होंने अनेकों ऑपरेशन किए. कई आतंकियों को ढेर किया. जिसके जवाब में उन पर तभी आया पहला बड़ा अटैक. 2011 में TTP ने उनके घर पर विस्‍फोटकों से भरी गड़ी टकराकर एक फिदायीन हमला करवाया. असलम कराची की एक बेहद सुरक्षित टाउनशिप में रहते थे.

विस्‍फोटकों से भरी गाड़ी चलाने वाले फिदायीन के बारे में बताया गया कि वह इतना अनट्रेंड था कि उसे आखिरी वक्‍त में कुछ मीटर के लिए असलम के घर तक गाड़ी चलाने को दी गई. धमाके इतना बड़ा था कि दो मीटर गहरा गड्ढा हो गया. आठ लोग मौके पर मारे गए.  चौधरी असलम का आधा घर धमाके में उड़ गया, लेकिन वे और उनका परिवार बच गया. धूल और धुएं के गुबार से बाहर निकले चौधरी असलम ने कहा- 'इन्होंने शेर के मुंह में हाथ डाला है. 24 घंटे में इनकी नस्लें खत्म कर दूंगा.' इस हमले के बाद उन्‍हें फोन पर TTP की ओर से कई बार धमकियां दी गईं, लेकिन वे नहीं झुके. 

9 जनवरी 2014 - ल्‍यारी एक्सप्रेसवे पर हमला, और असलम की कहानी का अंत

9 जनवरी 2014 की दोपहर करीब 4:40 बजे एसपी चौधरी असलम अपने काफिले में ल्‍यारी एक्सप्रेसवे के एस्‍सा नागरी इलाके से गुजर रहे थे. अचानक उनके वाहन को एक विस्फोटक भरी कार ने टक्कर मारी, और फिर हुआ जोरदार बम धमाका. उस धमाके में असलम खान और दो अन्य पुलिसकर्मी मारे गए. जिसमें ड्राइवर कामरान शामिल था.

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बम इतना शक्तिशाली था कि असलम की बुलेट-प्रूफ गाड़ी के परखच्‍चे उड़ गए. और वो धमाके से 40 फीट दूर जा गिरी. असलम, उनके ड्राइवर और गनमैन के शरीर के टुकड़े एक्‍सप्रेसवे के नीचे स्थित कब्रस्‍तान तक उड़ गए चले गए. इस विस्फोट ने दो अन्य पुलिस वाहनों को भी अपनी चपेट में लिया. 

और फिर सामने आई 'अपनों' की साजिश और विश्वासघात की दास्‍तान

चौधरी असलम की मौत के बाद हुई जांच पर पाकिस्‍तानी अखबारों और वेबसाइट पर बहुत बारीकी से लिखा गया. यूं तो असलम पर कई हमले हो चुके थे. जिसमें 2011 में उनके घर पर हुआ अटैक शामिल था. लेकिन ल्‍यारी एक्‍सप्रेस वे पर फिदायीन हमले की योजना इतनी बड़ी थी कि इसमें आगे चलकर स्थानीय पुलिस या उनकी टीम के लोगों का हाथ होना भी उजागर हुआ. इस साजिश से जुड़े चार लोग पकड़े गए, जिनसे सारा कच्‍चा-चिट्ठा खुला.

जांचकर्ताओं ने पता चला कि असलम का ड्राइवर-बॉडीगार्ड कामरान इस षड़यंत्र में शामिल था. वही कामरान जिसका जिक्र इस कहानी की शुरुआत में आया था. जो चौधरी असलम की गाड़ी चलाने में आनाकानी कर रहा था. क्‍योंकि उसे सब पता था कि आगे क्‍या होने वाला है. दरअसल, वह हमले के मास्‍टरमाइंड इमरान भट्टी से मिला हुआ था. उसका बचपन का दोस्‍त था. पुलिस में भर्ती होने से पहले दोनों सिपाह-ए-सहाबा नामक आतंकी संगठन के सदस्‍य थे. लेकिन, पुलिस में भर्ती होने के बाद कामरान ने अपनी पहचान छुपा ली.

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जब चौधरी असलम की साजिश रची जाने लगी तो हमलावरों ने कामरान के रूप में एक आसान कमजोर कड़ी ढूंढ ली. कामरान ने पल-पल  की जानकारी हमलावरों से साझा किया, जिसमें फिदायीन नईमुल्‍ला बुखारी भी शामिल था. नईम आतंकी संगठन लश्‍कर-ए-झांगवी का कराची चीफ था. हमलावरों की तैयारी इतनी तगड़ी थी कि उन्‍होंने चौधरी असलम को टारगेट के लिए विस्‍फोटकों से भरी दो कारें तैयार की थीं. यदि किसी वजह से एक कार से हमला नाकाम हो जाए तो बैकअप में दूसरी कार का इस्‍तेमाल होना था. विस्फोट में इस्तेमाल की गई कार के रजिस्ट्रेशन संबंधी आधिकारिक रिकॉर्ड गायब मिले.

जांच में पता चला कि हमले से पहले कामरान ने अपना इंश्‍योरेंस कराया था. और अपने परिवार वालों को यह कहा था कि यदि मेरी मौत हो, तो मुझे इमरान की कब्र के बराबर में ही दफनाना. और बाद में पता चला कि ऐसा ही हुआ था. दोनों बराबर में दफन थे.

मौत के बाद... शहादत, शोक और विरासत

असमल खान की मौत की खबर जैसे पूरे कराची और पाकिस्तान में आग की तरह फैली. उनके अंतिम संस्कार में पुलिस वालों, राजनेताओं के अलावा आम जनता की भारी भीड़ शामिल हुई. उनकी कब्र उनके मां के कब्र के बगल ही बनाई गई. वहीं दूसरी ओर जब साजिश में कामरान के शामिल होने का पता चला तो उसे दिया गया 'शहीद' का दर्जा वापस ले लिया गया. 

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चौधरी असलम की मौत ने ये भी तय किया कि पाकिस्‍तान में गैंग्‍सटरों और आतंकियों की सीमाएं किसी ल्‍यारी तक सीमित नहीं है. उसके खिलाफ लड़ाई में चौधरी असलम जैसों को गैंग से ही नहीं, सिस्‍टम से भी लड़ना होता है. चौधरी असलम के चाहने वाले उन्‍हें 'सिंध पुलिस का सुल्‍तान राही' कहते थे. सुल्‍तान राही पाकिस्‍तानी फिल्‍मों के मशहूर  एक्‍शन हीरो रहे हैं. संयोग की बात ये रही कि दोनों की मौत 9 जनवरी को ही हुई.

(इनपुट: पाकिस्‍तानी मीडिया डॉन, जियो न्‍यूज, ट्रिब्‍यून और द न्‍यूज में छपी खबरों से)

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