हम एक पेशाब प्रधान समाज का हिस्सा हैं. जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारा जीवन तीन चीजों के इर्द-गिर्द घूमता है. भोजन, संभोग और पेशाब. एक नवजात शिशु के लिए जो चीजें अनिवार्य होती हैं उनमें मां का दूध और टीके के अलावा डाइपर भी शामिल है, जिसे पेशाब प्रतिरोध के लिए ही ईजाद किया गया था. बच्चे को बोलना, चलना, प्रेम करना और धोखा देना इंसानों से सीखना पड़ता है लेकिन पेशाब करने की कला वो मां के पेट से ही सीखकर आता है. रोडवेज की जो बसें किसी सवारी के लिए नहीं रुकीं उन्हें भी रुकना पड़ा यात्री की पेशाब के लिए. शहरों में किराए के जो कमरे प्रवासियों को छत देते हैं उनमें भी किचन भले न हो लेकिन एक अदद शौचालय जरूर होता है. इतिहास और गणित की ऊबाऊ कक्षाओं से जूझते उन छात्रों से पूछिए जिनके लिए पेशाब का बहाना स्ट्रेस बस्टर का साधन बना. पेशाब की महिमा इन सबसे और ऊपर है. चर्चा पेशाब की इसलिए होनी चाहिए क्योंकि एक्टर परेश रावल ने कुछ कहा है.
एक इंटरव्यू में बेहद काबिल अभिनेता परेश रावल ने बताया कि एक फिल्म की शूटिंग के दौरान उनके पैर में लगी चोट को उन्होंने 15 दिन में अपना पेशाब पीकर ठीक कर लिया था. हड्डी को लेकर किए गए इस दावे की पुष्टि तो कोई ऑर्थो का डॉक्टर ही कर सकता है लेकिन इससे हमें पता चलता है कि हमारी खुद की पेशाब जिसे लीटरों में हम रोज यूं ही बहा देते हैं वो दरअसल गुणों का खजाना है बल्कि अगर पीली पेशाब है तो 'लिक्विड गोल्ड' के समान है.
पेशाब में एक अकड़ है. बच्चों में अक्सर वो अपने आप नहीं आती. महिलाओं को उसे बुलाने के लिए एक खास तरह की ध्वनि का अविष्कार करना पड़ा. उस ध्वनि में सीटी की भी एक छटा नजर आती है. ऐसे तो पेशाब करना एक बेहद सरल और नाजुक प्रकिया है लेकिन ललकार में इसकी तुलना प्रलय और सुनामी से की जाती है, जैसे- 'मूत देंगे तो बह जाओगे' इत्यादि. पेशाब वीरता का प्रतीक है. भयभीत व्यक्ति का सबसे पहले अगर कोई साथ छोड़ता है तो वो है पेशाब.
पेशाब गंगा-जमुनी तहजीब की असली मिसाल है. दरअसल 'पेशाब' शब्द संस्कृत और फारसी से मिलकर बना है. संस्कृत में 'पेश' का मतलब होता है- 'दबाना' या 'दबाव डालना'. शरीर से जब मूत्र बाहर निकलता है, तो मूत्राशय पर दबाव पड़ता है, इसलिए इस प्रक्रिया को 'पेशाब' कहा जाने लगा. 'आब' एक फारसी मूल का शब्द है, जिसका अर्थ है 'पानी' या 'तरल'.
सुबह की जो नींद पिता के पंखा बंद करने से भी नहीं खुलती, वो खुल जाती है पेशाब से. इंसान बिना पानी के 3 से 5 दिन जीवित रह सकता है, बिना भोजन के तीन से चार हफ्ते लेकिन पेशाब रोककर कुछ घंटे भी बैठना बेहद कठिन है. एआई की ओर बढ़ते इस युग में रोबोट और इंसानों के बीच मूलभूत अंतर की रेखा पेशाब से ही खींची जा सकती है.
मियां-बीवी से लेकर बड़े-बड़े देशों के बीच इस वक्त दुनिया में लड़ाइयां चल रही हैं. कई देश युद्ध में उलझे हैं तो कई जगह हालात ऐसे हैं कि कभी भी जंग की शुरुआत हो सकती है. बाहरी देशों के हस्तक्षेप और इतनी तबाही के बाद भी गनीमत है कि अभी तक किसी ने इन युद्धों को तीसरा विश्व युद्ध नहीं कहा. कहा जाता है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा. कल्पना कीजिए कि अगर ऐसी नौबत आ भी गई तो पानी का विकल्प क्या होगा? पेट्रोल-डीजल का विकल्प तो मौजूद है लेकिन पानी की जगह कौन लेगा? जब मानवता पर संकट भारी होगा, तब इंसान को बचाएगा उसी के भीतर से निकला एक द्रव- पेशाब.
हालांकि यह वैज्ञानिक रूप से बहुत चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि दुनिया में पेशाब का उत्पादन बेहद कम है और खपत बहुत ज्यादा. हालांकि अच्छी बात ये भी है कि चाहें अमेरिका जैसे सुपरपावर देश हों या जिम्बाब्वे जैसे कमजोर क्रिकेट टीम वाले मुल्क, पेशाब के लिए कोई किसी पर निर्भर नहीं है, आप खुद स्रोत हैं, आप ही ग्राही.
परेश जी ने पेशाब पीने के लिए रूपक के रूप में बीयर का इस्तेमाल किया. तीसरे विश्व युद्ध के समय 'महाठंडी पेशाब' के ठेके ही युद्ध से जूझते युवाओं को अवसाद से बचाएंगे. 1972 में आई फिल्म 'शोर' का गीत 'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...' असल में पेशाब के पक्ष में लिखा गया एक काव्य है जो पानी को लानत बख्शता है क्योंकि विज्ञान कहता है कि रंगहीन, स्वादहीन और गंधहीन द्रव को पानी कहते हैं लेकिन पेशाब में रंग भी है, गंध भी है और स्वाद... संभवत: बीयर जैसा होगा.
सिर्फ परेश रावल ही नहीं कई लोग अपनी पेशाब पीने का दावा कर चुके हैं. इतिहास तो ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. भारत के चौथे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी अपना पेशाब पीते थे और खुलकर इस बारे में बात करते थे. वो इसे 'ऑटो-यूरीन थेरेपी' कहते थे और दावा करते थे कि रोजाना सुबह अपना मूत्र पीने से शरीर स्वस्थ रहता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और लंबी उम्र मिलती है. शायद यही वजह थी कि उनका निधन 99 साल की आयु में हुआ.
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि 80 साल से ज्यादा उम्र के बाद भी वे खुद को पूरी तरह से फिट और ऊर्जावान महसूस करते हैं और वह इसका श्रेय इस थेरेपी को देते थे. उनकी इस आदत को लेकर उस समय भारत और विदेशों में काफी चर्चा हुई थी. कुछ लोग उनकी तारीफ करते थे तो कुछ उनका मजाक भी उड़ाते थे. लेकिन मोरारजी देसाई ने कभी इसको लेकर झिझक नहीं दिखाई.
दुनियाभर में लोग लंबे समय से अपनी पेशाब का सेवन करते आए हैं. गौमूत्र तो अभी फैशन में आया है, पहले तो अपनी ही पेशाब का क्रेज हुआ करता था. पेशाब पीने का जिक्र सबसे पहले आयुर्वेद और 'शिवाम्बु कल्प विधि' नामक ग्रंथ में एक चिकित्सा पद्धति के रूप में मिलता है. चीन और रोम जैसी प्राचीन सभ्यताओं में लोग पेशाब का इस्तेमाल घाव धोने के लिए करते थे. 1940-50 के दशक में यूरोप और अमेरिका में भी जो लोग प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास रखते थे, उन्होंने भी पेशाब पीने की इलाज पद्धति को अपनाया. जॉन डब्ल्यू. आर्मस्ट्रांग की एक किताब है 'द वॉटर ऑफ लाइफ' जिसमें उन्होंने बताया है कि खुद की पेशाब पीने से कई गंभीर रोग ठीक हो जाते हैं. ये जानकारी इकट्ठा करते हुए मेरे मन में यह शंका पैदा हुई कि कहीं परेश रावल का इंटरव्यू पाकिस्तान को वो फॉर्मूला तो नहीं दे गया जिससे उसे सिंधु जल संधि का तोड़ मिल जाएगा.
हालांकि आज का मेडिकल साइंस पेशाब पीने की सलाह नहीं देता है. उनका कहना है कि पेशाब में शरीर के बेकार तत्व होते हैं, इसलिए इसे पीने से फायदा कम और नुकसान अधिक हो सकता है. डॉक्टरों का कहना है कि सामान्य हालात में पेशाब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है लेकिन उन्हें नहीं पता कि पेशाब विज्ञान से आगे की चीज है.
प्राचीन काल में पेशाब से ही बीमारी का डायग्नोसिस किया जाता था. डॉक्टर, वैद्य या हकीम पेशाब के रंग, स्वाद और गंध को देखकर बीमारी का पता लगाते थे. रंग और गंध देखना तो संभव है लेकिन स्वाद...? बदलते मौसम में जब बीमारियां बढ़ जाती हैं तो मरीज की संख्या और हकीमों की आमदनी भी बढ़ जाती है. ऐसे दिनों में उन्हें एक ही दिन में कई-कई पेशाबों को चखना पड़ता होगा.
रोम में तो पेशाब को इकट्ठा किया जाता था. उससे कपड़े साफ किए जाते थे क्योंकि पेशाब में अमोनिया पाया जाता है जो एक अच्छा क्लीनिंग एजेंट होता है. इतना ही नहीं रोम के लोग तो पेशाब पर टैक्स भी लगाते थे जिसे 'Vespasian Tax' कहा जाता था. उस दौर में टैक्स की चोरी बोतलों में होती होगी. बजट वाले दिन जनता को उम्मीदें रहती होगी कि आने वाला साल उनकी पेशाब के लिए कैसा होगा. दफ्तरों में पेशाब स्लैब में आने वाले लोग अपना रीइंबर्समेंट अलग से भरते थे.
पेशाब पानी नहीं है बल्कि पेशाब में 95% से ज्यादा पानी होता है. दुनिया पानी के ही संकट से जूझ रही है. कहा जाता है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी की दिक्कत को लेकर होगा. ऐसे में पेशाब पानी का एक शक्तिशाली विकल्प बन सकती है. लेकिन उसके लिए हमें इसकी स्वीकार्यता, पैदावार, उपयोग और सम्मान को बढ़ावा देना होगा. सबसे पहले पेशाब को क्या चाहिए? शायद समाज में सम्मान, बराबरी का दर्जा!