कहा जा रहा है कि सरकार ने संसद में पिछले हफ्ते तक होता टकराव इस हफ्ते साध लिया है. लेकिन खबर सिर्फ इतनी नहीं है. समझना ये है कि जिस कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में सिर्फ एक सांसद है और एक भी विधायक उसका अपना नहीं है, उस कांग्रेस के खिलाफ बंगाल चुनाव से पहले वंदे मातरम विभाजन को लेकर मुस्लिम तुष्टिकरण वाली तलवार क्यों निकाली गई.
वंदे मातरम् के 150 साल पर लोकसभा में चर्चा चल रही थी और प्रधानमंत्री बोल रहे थे. ममता बनर्जी की पार्टी के सांसद टकटकी लगाए उन्हें सुन रहे थे. राष्ट्रगीत के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी का नाम पीएम लेते हैं तो टीएमसी सांसद सौगत रॉय टोक देते हैं. इसके बाद प्रधानमंत्री बंकिम दा नहीं, बंकिम बाबू कहना शुरू करते हैं.
विपक्ष के सांसद प्रधानमंत्री की पूरी स्पीच शांति से सुनते रहे और उनका कहना है कि वंदे मातरम पर चर्चा की वजह पश्चिम बंगाल का चुनाव है. कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा भी यही कहती हैं कि जब गीत को देश ने आत्मसात कर लिया है तो बहस क्यों हो रही है और बहस की वजह साफ है कि बंगाल चुनाव आ रहा है.
अब सवाल ये है कि क्या संसद में वंदे मातरम् पर चर्चा की मुख्य वजह सचमुच पश्चिम बंगाल का चुनाव है. अगर हां, तो इससे बीजेपी को क्या फायदा होगा?
प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस की नीतियां वही हैं और कांग्रेस चलते-चलते एमएमसी यानी मुस्लिम लीग माओवादी कांग्रेस हो गई है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी कांग्रेस पर हमला किया.
संसद में टीएमसी सांसद इस बात का ध्यान रखना चाह रहे थे कि बंकिम बाबू नहीं, बंकिम दा कहिए, क्योंकि ‘दा’ का मतलब बड़ा भाई होता है. लेकिन बंगाल में बंकिम चंद्र चटर्जी, सुभाषचंद्र बोस और रवींद्रनाथ ठाकुर को पिता तुल्य माना जाता है. इसीलिए सम्मान के तौर पर किस नाम के आगे दा कहना है और कहां बाबू, ये भी एक संवेदनशील मामला है.
इसी बंगाल अस्मिता की जमीन पर बीजेपी ने डबल वार की रणनीति बनाई है. कांग्रेस को वंदे मातरम् के विभाजन के मुद्दे पर बड़ा मुस्लिम हितैषी दिखाया जाए ताकि टीएमसी के वोट में चोट लगे.
प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री दोनों कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण के कठघरे में खड़ा करते हैं. और फिर राजनीतिक सवाल खड़ा होता है कि जिस कांग्रेस का बंगाल में आज सियासी वजूद लगभग खत्म है, उस पर इतना बड़ा हमला क्यों.
राज्य की 294 सीटों में कांग्रेस 2016 में 44 सीटें जीतती है लेकिन 2021 में सिर्फ एक सीट बचती है, और वह विधायक भी बाद में टीएमसी में चला जाता है. लोकसभा में भी 2014 में 4, फिर 2019 में 2 और 2024 में सिर्फ एक सांसद बचा है. ऐसे में सवाल उठता है कि जिसे लोग राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक कहते हैं, उस कांग्रेस पर इतना तगड़ा हमला क्यों.
इसके बाद एक और तस्वीर दिखती है. क्या बीजेपी सच में कांग्रेस पर वार करके ममता बनर्जी के वोट बैंक पर हमला कर रही है. पीएम के उसी बयान में जहां वे तृणमूल कांग्रेस का नाम लिए बिना कांग्रेस से निकली हुई पार्टियों पर तंज करते हैं, संकेत साफ है कि वार तृणमूल पर भी है. बीजेपी कहती है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की आपत्ति के बाद वंदे मातरम के कुछ हिस्से (जैसे मां दुर्गा वाली पंक्तियां) गाने से रोका था. आरोप कांग्रेस पर है, लेकिन जवाब ममता बनर्जी को देना पड़ रहा है. ममता कहती हैं कि पूरा गाना नहीं, सिर्फ कुछ लाइनें पढ़ी गई थीं. और ये जवाब भी बेहद संभलकर दिया गया. क्यों?
क्योंकि ममता बनर्जी जानती हैं कि यह विवाद दोतरफा नुकसान करा सकता है. दो चुनावों के बीच ममता का हिंदू वोट 4 फीसदी घटा है और बीजेपी का हिंदू वोट 38 फीसदी बढ़ा है, जबकि ममता का मुस्लिम वोट 24 फीसदी बढ़ा है. ऐसे में वह न तो हिंदू वोट को गलत संदेश देना चाहती हैं और न ही मुस्लिम विवाद में खुद को पूरी तरह झोंकना चाहती हैं. यही वजह है कि वह सिर्फ बंगाल अस्मिता का फ्रेम इस्तेमाल करती हैं. वह राष्ट्रीय राजनीति की इस बहस में सावधानी से पांव रख रही हैं.
ममता बनर्जी दिल्ली की संसद में चल रही बहस को शांति से देख रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बीजेपी इस वक्त दोतरफा वार कर रही है. एक तरफ कांग्रेस को बड़ा मुस्लिम हितैषी दिखाकर टीएमसी का मुस्लिम वोट काटना है. दूसरी तरफ ममता को हिंदू विरोधी दिखाकर उनका हिंदू वोट और कमजोर करना है. बंगाल का चुनाव गणित यही बताता है कि 27 फीसदी मुस्लिम वोट वाली इस राजनीति में जिसके पास एकमुश्त मुस्लिम वोट हैं, उसकी सीटें बढ़ती जाती हैं.
2006 में 22 फीसदी से बढ़ते-बढ़ते मुस्लिम वोट 2021 में टीएमसी के पास 75 फीसदी तक पहुंच जाते हैं और टीएमसी की सीटें भी 215 तक चढ़ जाती हैं. अब बीजेपी की रणनीति यही दिखती है कि इस एकमुश्त मुस्लिम वोट में बंटवारा हो. इसके लिए कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण के तराजू में मजबूत दिखाया जा रहा है ताकि नुकसान टीएमसी को हो.
राजनाथ सिंह की मुस्लिम वोट वाली टिप्पणी, शुभेंदु अधिकारी का ममता को हिंदू विरोधी बताना, इस रणनीति की दिशा साफ करता है. वंदे मातरम् की बहस का सियासी मतलब अखिलेश यादव भी समझ रहे हैं. वह अपने PDA फॉर्मूले को फिर से संसद में उठाते हैं और फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद को खड़ा करके कहते हैं कि वंदे मातरम का भाव यह भी था कि कम्युनल राजनीति नहीं चलेगी.
इसी बहस के बीच अखिलेश यादव अंबेडकर की तस्वीर का जिक्र करके बीजेपी और संघ पर हमला बोलते हैं, जबकि बीजेपी की ओर से योगी आदित्यनाथ जिन्ना, अखंडता, और वंदे मातरम विरोध जैसे मुद्दों को उठाते हैं. सीएम योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि कुछ लोग जाति, क्षेत्र और भाषा के नाम पर नया जिन्ना पैदा करना चाहते हैं और वंदे मातरम् का विरोध भारत माता का विरोध है. अखिलेश यादव जवाब में कहते हैं कि जिन्होंने आजादी के आंदोलन में भाग ही नहीं लिया, वे वंदे मातरम का महत्व क्या जानेंगे.
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पूरी बहस इसी टकराव में बदल जाती है कि किसने वंदे मातरम को बांटा, किसने तुष्टिकरण किया, और किसने राष्ट्रवाद को राजनीतिक हथियार बनाया. अखिलेश का आरोप है कि अंग्रेज विवाद पैदा करके राज करते थे और आज भी कुछ लोग डिवाइड की राजनीति कर रहे हैं. वहीं बीजेपी का आरोप है कि वंदे मातरम् जिसने सबको जोड़ा, उसी पर आज के दरारवादी लोग देश को बांटना चाहते हैं.