राष्ट्रपति के संदर्भ में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने अपने ही एक पुराने निर्णय को पलट दिया. बेंच ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए सभी रोके गए विधेयकों के मामलों में लगाई गई समय सीमा न्यायोचित नहीं है. लेकिन राज्यपाल को अपने काम से संघवाद की अवधारणा को मजबूती देनी चाहिए ना कि इस मामले में रोड़ा बनना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
कोर्ट ने कहा कि प्रभावी रूप से पारित होने से पहले एक विधेयक अदालत में आएगा, यह न्यायसंगत नहीं है. केवल एक कानून, जो पारित हो चुका है, वह न्यायसंगत हो सकता है. अनुच्छेद 200/201 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल के कार्य का निर्वहन न्यायोचित है. राज्यपाल सदन से पारित विधेयकों को मंजूर करने, सदन को वापस भेजने या राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार रखते हैं. विधेयक के अधिनियम बनने के बाद ही न्यायिक समीक्षा लागू की जा सकती है.
'चुनी हुई सरकार को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए'
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गवर्नर की ओर से बिलों को मंजूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती. 'डीम्ड असेंट' का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है. संविधान पीठ के निर्णय के मुताबिक चुनी हुई सरकार यानी कैबिनेट को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए. ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते. लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ औपचारिक रोल नहीं होता. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है.
'गवर्नर के पास बिल को रोकने का कोई अधिकार नहीं'
कोर्ट ने कहा कि गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. वह मंजूरी दे सकता है. बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है. आर्टिकल 142 प्रयोग कर सुप्रीम कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता. यह राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है.
'पारित विधेयक को अपने पास रखना संघवाद की भावना के खिलाफ'
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल अगर अपने पास रख लेता है तो यह संघवाद की भावना के खिलाफ होगा. हमारी राय है कि राज्यपाल को विधेयक को दोबारा विचार के लिए लौटाना चाहिए. सामान्य तौर पर राज्यपाल को मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करना होता है. लेकिन विवेकाधिकार से जुड़े मामले में वह खुद भी फैसला ले सकता है.