scorecardresearch
 

बरसात आते ही ढह जाती हैं करोड़ों की सड़कें और पुल, आखिर कब बदलेगा हिमालय का हाल?

हर साल बारिश हिमालय की सच्चाई सामने रख देती है. करोड़ों खर्च कर बनाई सड़कें और पुल कुछ घंटों की बारिश में ढह जाते हैं. असली समस्या सिर्फ मौसम नहीं, बल्कि हमारी लापरवाही और गलत प्लानिंग है. जब तक हम समझदारी और टिकाऊपन के साथ निर्माण नहीं करेंगे, तब तक पहाड़ हमारी महत्वाकांक्षाओं को बार-बार बहा ले जाएंगे. वक्त आ गया है नई सोच और नए नैतिक ढांचे की.

Advertisement
X
हिमालय की चुनौती, क्या हम टिकाऊ इन्फ्रास्ट्रक्चर बना भी पा रहे हैं? (File Photo)
हिमालय की चुनौती, क्या हम टिकाऊ इन्फ्रास्ट्रक्चर बना भी पा रहे हैं? (File Photo)

सैकड़ों मौतें, हजारों बेघर लोग और करोड़ों की लागत से बने इंफ्रास्ट्रक्चर का बहकर चले जाना... हिमालय में मानसून हर साल हमें वही रिपोर्ट कार्ड थमा देता है. भारी खर्च पर बनाए गए सड़कें, पुल, अस्पताल, स्कूल और पूरे मोहल्ले कुछ ही घंटों में धराशायी हो जाते हैं. आपदा आती है, ढांचा टूटता है, इमरजेंसी फंड जारी होता है, फिर से निर्माण शुरू होता है और अगली बारिश में वही कहानी दोहराई जाती है जैसे कोई रिवाज हो. इसका आर्थिक बोझ तो है ही, लेकिन असली चोट होती है रोज़गार, भरोसे और स्थायित्व के नुकसान पर.

शायद ये सब एक बड़े रोग के लक्षण हैं. मगर हकीकत ये है कि हमारे द्वारा क‍िए गए निर्माण कार्य और जलवायु पहाड़ी भूभाग की असल चुनौतियों से मेल खाते ही नहीं. शायद ही कभी पूछा जाता है कि जो सड़क, पुल या बिल्डिंग बनी, क्या उसे सच में हिमालयी हालात झेलने के लिए तैयार किया गया था?

बात सिर्फ जलवायु की नहीं

हर ढहाव का ठीकरा जलवायु परिवर्तन पर फोड़ना आसान है. निश्चित रूप से भारी बारिश की घटनाएं ज्यादा बार और तीव्र हो गई हैं और ग्लेशियर पिघलने से ढलान कमजोर हो रहे हैं. लेकिन सिर्फ जलवायु ये नहीं समझा सकती कि क्यों नई बनी सड़कें पहले ही मानसून में टूट जाती हैं या क्यों पुल अपनी तय उम्र से बहुत पहले धराशायी हो जाते हैं.

असलियत कहीं ज्यादा उलझी हुई है. सड़कें अक्सर अस्थिर पहाड़ियों में काटकर बना दी जाती हैं, बिना ढलान को स्थिर करने की तकनीक अपनाए. नालियां या तो खराब डिजाइन की जाती हैं या होती ही नहीं, जिससे पानी नींव को काट देता है. पुल बनाते समय नदियों के बदलते बहाव पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. लागत बचाने या भ्रष्टाचार में घटिया सामग्री लगाई जाती है. रखरखाव तब तक नहीं होता, जब तक आपदा न आ जाए.

Advertisement

जिसे हम 'प्राकृतिक आपदा' कहते हैं, उसमें अक्सर इंसानी लापरवाही छिपी होती है. इस चक्र को तोड़ने के लिए हमें दो मोर्चों पर एक साथ काम करना होगा. पहला, दूरदर्शिता के साथ योजना बनाना और दूसरा, सचमुच टिकाऊ ढांचा तैयार करना.

योजना बने लेकिन दूरदर्शिता के साथ

हिमालय में इंफ्रास्ट्रक्चर को ऐसे नहीं बनाया जा सकता जैसे समतल जमीन के लिए बनते हैं. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने जो हैजर्ड जोनेशन मैप्स बनाए हैं, उनमें बाढ़-प्रवण घाटियां और भूस्खलन-प्रवण ढलान साफ चिन्हित हैं. लेकिन उनका शायद ही पालन होता है. सड़कें अब भी अस्थिर ढलानों पर बनाई जाती हैं और इमारतें सक्रिय भूकंपीय क्षेत्रों में खड़ी कर दी जाती हैं.

सही योजना का मतलब है कि ढांचा वहीं बने, जहां उसको खतरा सबसे कम हो. नाली के डिजाइन को साइड में नहीं बल्कि केंद्र में रखना होगा. पुल और सहायक ढांचे बारिश की भविष्यवाणी के मुताबिक बनने चाहिए, न कि पुराने औसत पर. जियो-सिंथेटिक्स, रॉक बोल्टिंग और बायोइंजीनियरिंग जैसे हरे-भरे पौधों से ढलान स्थिर करने की तकनीक नियमित इस्तेमाल होनी चाहिए. नदी के तटबंध ग्लेशियर पिघलने और नदी के बदलते रास्तों को ध्यान में रखकर बनने चाहिए.

साथ ही, आवाजाही के तरीकों पर भी सोचना होगा. क्या हर पहाड़ी घाटी को चार-लेन हाइवे चाहिए? या फिर रोपवे, फनिक्युलर और इलेक्ट्रिक बसें सुरक्षित और टिकाऊ विकल्प हो सकते हैं? स्विट्जरलैंड लंबे समय से नाज़ुक क्षेत्रों में केबल सिस्टम पर निर्भर है, वहीं जापान ने भूस्खलन मॉनिटरिंग और अर्ली-वार्निंग सिस्टम में महारत हासिल की है. ये उदाहरण बताते हैं कि सबसे सुरक्षित ढांचा अक्सर वही होता है, जो भूभाग के साथ चलता है, उसके खिलाफ नहीं.

Advertisement

टिकाऊ निर्माण जरूरी

सबसे अच्छी जगह चुना गया ढांचा भी बेकार है, अगर वो सामान्य दबाव में ही ढह जाए. हिमालय में प्रोजेक्ट अक्सर इस वजह से नहीं फेल होते कि वे कहां बने, बल्कि इसलिए फेल होते हैं कि वो कैसे बने.

एक साधारण टाइमलाइन समझ‍िए: हिमालय में एक मध्यम आकार का आरसीसी पुल बनने में दो-तीन साल लगते हैं, बड़ा सस्पेंशन ब्रिज बनने में पांच साल तक लग जाते हैं. वहीं एक मानक दो-लेन पहाड़ी सड़क बनाने में इलाके के हिसाब से 1-3 साल लगते हैं.

सामान्य हालात में ये कोई अल्पकालिक संपत्ति नहीं हैं. अच्छी सड़कें 15-20 साल तक टिकनी चाहिए और पुल 50-100 साल तक. लेकिन हिमालय में कई पुल-सड़कें पहली या दूसरी बारिश भी नहीं झेल पातीं. हर ढहाव सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है, बल्कि दशकों की मेहनत कुछ ही हफ्तों में मिट जाती है.

भारत में पहले से ही भूकंप सुरक्षा कोड्स, डक्टाइल डिटेलिंग स्टैंडर्ड्स और ढलान स्थिरता गाइडलाइंस मौजूद हैं, लेकिन इनका पूरा पालन नहीं होता है. कहीं पुल उथली नींव पर बन जाता है, कहीं रिटेनिंग वॉल में वेंटिलेशन छेद नहीं होते, कहीं सड़क बिना क्रॉस-ड्रेनेज की बना दी जाती है. घटिया काम और कमजोर निगरानी ढांचे को नाज़ुक बना देते हैं. ये बदले बिना काम नहीं चलेगा.

Advertisement

इस पैटर्न को तोड़ना होगा

हर निर्माण में एक स्वतंत्र तृतीय-पक्ष ऑडिट अनिवार्य हों और पालन न करने पर सख्त सजा तय होनी चाहिए. सामग्री की जांच नियमित होनी चाहिए, इसका कोई विकल्प नहीं हो सकता. कॉन्ट्रैक्ट्स ऐसे हों जो टिकाऊपन की शर्त पर हों न कि सिर्फ समय पर पूरा होने की शर्त पर.  इसके अलावा रखरखाव को समय पर नहीं टालना चाहिए. नालियों की सफाई, रिटेनिंग वॉल की मरम्मत और पुल के जॉइंट्स की जांच हर सालाना बजट में शामिल होनी चाहिए. इसके लिए बजट सुरक्षित रखा जाए, इसमें कटौती नहीं होनी चाहिए.

इसमें लोकल कैपेस‍िटी का रोल भी अहम है. हिमालयी राज्यों के इंजीनियर और कॉन्ट्रैक्टरों को रॉकफॉल बैरियर से लेकर एवलॉन्च प्रोटेक्शन तक खास पहाड़ी तकनीकें सिखाई और मुहैया कराई जानी चाहिए. ढलानों की निगरानी करने वाले स्मार्ट सेंसर और अर्ली-वार्निंग सिस्टम सड़क और पुल नेटवर्क में जोड़े जाएं. लेकिन मजबूती सिर्फ तकनीकी नहीं, सांस्कृतिक और संस्थागत भी हो.

दशकों से नए ढांचे की घोषणा करना ही प्रत‍िष्ठा माना जाता रहा है. मगर अब ध्यान इस पर होना चाहिए कि वे ढांचे कितने टिकते हैं, कितना अच्छा काम करते हैं और कितने सुरक्षित रहते हैं. अगर एक साल बाद ढांचा ढहना है तो फीता काटने का कोई मतलब नहीं.

Advertisement

साथ ही, पारंपरिक ज्ञान को भी वापस लाना होगा. पहले पहाड़ी समुदाय हमेशा भूभाग के साथ तालमेल में निर्माण करते थे. सीढ़ीदार ढलान, प्राकृतिक नालियां और स्थानीय सामग्री का उपयोग. आधुनिक इंजीनियरिंग के साथ इस बुद्धि को मिलाना शायद कई मौजूदा समाधानों से ज्यादा असरदार साबित हो.

निष्कर्ष: नई सोच और नया ढांचा

हिमालय अब हमसे एक नई तरह की निर्माण नीति मांग रहा है. सिर्फ बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बना देना काफी नहीं है. हमें कोई भी व‍िकास समझदारी और टिकाऊपन के साथ करना होगा. आने वाले समय की पहाड़ी सड़कें, पुल और इमारतें दो बातों पर ही ट‍िकेंगी. इनमें पहली सही जगह पर न‍िर्माण और दूसरी उन्हें लंबे वक्त तक चलने लायक बनाना है.

अब मजबूती के पक्ष को टालना संभव नहीं. हिमालय में बनने वाला इंफ्रास्ट्रक्चर कोई सजावट का काम नहीं हो सकता. इसे लाखों लोगों की जिंदगी से जुड़ी लाइफलाइन मानना होगा. अगर हमें इन पहाड़ों को घर और धरोहर दोनों बनाए रखना है तो हमारी नींव इतनी मजबूत होनी चाहिए कि वो न सिर्फ इंसानों की महत्वाकांक्षाओं को संभाल सके, बल्कि प्रकृति की पक्की चुनौतियों का भी सामना कर सके. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो हिमालय हमारे निवेश, हमारे भ्रम और उन लोगों के भविष्य को बहाता रहेगा जो इस पर निर्भर हैं.

Advertisement

 

---- समाप्त ----
(लेखक दिक्षु सी कुकरेजा, सीपी कुकरेजा आर्किटेक्ट्स के मैनेजिंग प्रिंसिपल और अल्बानिया गणराज्य के ऑनरेरी कॉन्सुल जनरल हैं. उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर और अर्बन डिजाइन में मास्टर डिग्री ली है. लेख में उनके निजी व‍िचार हैं)
Live TV

Advertisement
Advertisement