'होमबाउंड' इसलिए एक महान फिल्म है क्योंकि ये एक गहरा चिंतन है— यादों और पीड़ाओं की खट्टी-मीठी यादों का, हमारी सारी इच्छाओं का. हमने जो कुछ साझा किया और जो कुछ खो दिया. नीरज घेवान की फिल्म सिर्फ एक नैरेटिव नहीं है, आत्मा के सामने रखा एक आईना है. हमारी प्रत्येक यात्रा का एक रूपक भी है और एक टीस भी― जहां से चले थे, वहां वापस लौटने की.
तो मैं कहां से शुरू करूं? शायद उस सत्य से, जो ये फिल्म हर फ्रेम में ख़ुसफुसाती है. हमारे सारे भटकने, सारे संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं के पीछे मानवता की प्राचीनतम तड़प है. हम जो भी हैं, हम जहां भी गए, हमारा अंतिम पड़ाव एक ही था― घर.
2020: एक महाकाव्य
2020 का वसंत, जब महामारी किसी प्राचीन शाप की तरह उतरी. लाखों भारतीय उस एक अंतिम यात्रा पर निकलना चाहते थे जो तब भी पवित्र बची थी― घर की यात्रा.
हम में से कुछ भाग्यशाली निकले. हमने आखिरी फ्लाइटें बुक कीं, खाली पड़े हाइवे पर गाड़ी दौड़ा दी, या दुनिया के कपाट बंद होने से पहले ट्रेनें पकड़ लीं. मगर लाखों लोग दूरस्थ शहरों, खाड़ी देशों, अपने गावों से दूर के औद्योगिक कस्बों में फंसे थे. जब लॉकडाउन की तलवार गिरी तो उन्होंने कुछ ऐसा किया जिसने प्रिविलेज्ड लोगों को हक्का-बक्का कर दिया― वे पैदल चल पड़े.
सैकड़ों-हजारों किलोमीटर. फटी एड़ियों से छाले फूट पड़ते थे. बच्चे कंधों पर, गर्भवती महिलाएं पीछे-पीछे, अगल-बगल लंगड़ाते बूढ़े. बसें नहीं, ट्रेनें नहीं, रास्ते में खाने-पीने-रुकने का कोई ठौर नहीं. सरकारी निर्ममता, पुलिस बर्बरता, प्रशासनिक अराजकता― सारी आफतों के बावजूद वे चलते गए.
क्यों? वे चल पड़े क्योंकि दूर-दराज के इलाके में रहना, विलुप्त हो जाना था. भूत हो जाना था, एक ऐसी जगह पर जिसने कभी उन्हें अपनाया ही नहीं. गरीब ही सही, भविष्य के प्रश्नचिह्न में ही सही… लेकिन घर पर होना, पहचान का बचे रहना था. यानी पहुंचने पर भी मौत आ जाए तो कम से कम अपने नाम को रोने वाले लोगों के बीच मरना… ना कि स्क्रीन पर एक आंकड़ा भर होकर मर जाना!
‘होमबाउंड’ के मुख्य किरदार शोएब और चंदन केवल इसलिए घर की ओर नहीं चल पड़े कि उनके पास कोई दूसरा ठिकाना नहीं है. वे उस अंतिम जगह को लौट रहे हैं जहां वे पूर्ण थे. जाति की दीवारें खड़ी होने से पहले, धर्म को आशंका का रंग मिल जाने से पहले, गरीबी और महामारी में सपने ख़ाक हो जाने से पहले की वो जगह, जहां वे केवल दोस्त थे. बचपन का वो गांव, उस संसार का आखिरी टुकड़ा था जिसने बिना किसी सवाल, किसी माफीनामे के उन्हें अपनाया था.
घेवान हमें नहीं भूलने देते कि हम बाहर निकलने की यात्रा में जीवन खर्च देते हैं. हम नौकरियों, शहरों, भविष्य की तरफ खिंचते चले आते हैं. फिर भी हमारा अड़ियल दिल उसी आंगन की खूंटी पर टंगा रहता है, जहां से हम चले थे. हमने घर को पीछे नहीं छोड़ा, वो एक कंपास बन गया जो हम चुपचाप अपने अंदर लिए चलते हैं.
ये सफर क्या कहता है?
घर की तरफ शोएब और चंदन का पैदल मार्च, खुद जीवनयात्रा की तरह सारे सम्मोहनों को उधेड़ता जाता है. और उन कड़वे सचों को नंगा कर देता है, जिनका हम सामना नहीं करना चाहते.
ये हमें याद दिलाता है कि इंसानियत की मिट्टी कितनी कच्ची है― डर की गंध मिलते ही हमारा एक अलग वर्जन बाहर आने लगता है. जिंदा बचे रहने की हवस में हम बीमारों, मौत का मुंह ताक रहे लोगों के लिए संवेदना खो देते हैं. क्योंकि ये संवेदना हमारा शत्रु बन सकती है.
ये क्षण-भंगुरता एक झिंझोड़ देने वाले सीन में उतरती है. रास्ते में चंदन बीमार पड़ चुका है. एक गांव के सूखे पड़े हैंडपंप से चंदन उसके लिए पानी निकालने की कोशिश कर रहा है. उसकी मदद करने की बजाय गांव के लोग उसे चले जाने के लिए धमका रहे हैं… कहीं वो उनके घरों में वायरस ना दे जाए! क्या इंसान सच में इतने क्रूर और स्वार्थी होते हैं? शायद नहीं, उसी सीक्वेंस में एक किरदार ये भी साबित करता है. लेकिन डर और खुद को बचाने की प्रवृत्ति हमारे अंदर का राक्षस बाहर निकाल देती है.
घेवान हमें बताते हैं कि घर जैसी गर्माहट देने वाली दोस्ती, भूख और थकान से तो लड़ सकती है. मगर विरासत में मिली धारणाओं के आगे घुटने टेक देती है. डर और निराशा का एक लम्हा, इन दरारों को खाई में बदल सकता है.
सामुदायिक पहचान का जहर हमारी नसों में दौड़ रहा है. हम में से सबसे दयालु स्वभाव वालों को भी धर्मांध बना रहा है. लगातार तपती आंच पर ये जहर इतना खौल चुका है कि एक क्रिकेट मैच जैसा साधारण इवेंट हमें एक दूसरे के विरोध में ला सकता है. उन्हें भी, जो दशकों से हमारे जीवन का हिस्सा रहे हैं.
‘होमबाउंड’ बताती है कि पीड़ा की भी हायरार्की होती है. महामारी केवल अपने नाम में लोकतांत्रिक है. इसने तबाह सबको किया, फिर भी सबसे क्रूर दंड उन्हें मिला जो पहले से पिछड़े थे. और ये सामने आया कि विकास के विचार में विषमता किस कदर घुली हुई है.
निराशा में आशा की एक किरण
फिर भी इन खुलासों के बीच ‘होमबाउंड’ निराश होने से इनकार करती है. चुराई गई हंसी, बांटे गए दुख, एक हाथ को थामते दूसरे हाथ के बीच, घेवान आशा के अवशेष खोज लेते हैं. संवेदना शायद अभी भी दरारों को भर सकती है. पुरानी यादें शायद अभी भी उन चीजों को जोड़ सकती है, जिन्हें यथार्थ तोड़ रहा है.
इस यात्रा में यह रहस्य खुलता है कि सबकुछ छिन जाने के बाद हम असल में कौन हैं. और इस रौशनी में सबसे बड़ा सवाल उभरता है― यदि घर वो जगह है जहां पहुंचने की टीस हममें सालती है, तो हम कैसा घर बनाना चाहते हैं? एक घर― अपने लिए, हमारे साथ चल रहे अजनबी के लिए, उन बच्चों के लिए जिन्हें विरासत में हमारी उतरन मिलेगी?
‘होमबाउंड’ सवालों के जवाब नहीं देती. वो बस आईना सामने रख देती है― देखो. इस सड़क पर हम सब हैं. हमारी अगली यात्रा कहां को होगी, ये अब भी हमें ही तय करना है.
ये फिल्म कोई गारंटी नहीं देती, बुलावा भेजती है― शोएब और चंदन को प्रतीक नहीं, इंसान समझकर देखने का. उन इंसानों को देखने का जिनकी आशाएं और पीड़ाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी हमारी अपनी. बंटते जा रहे इस संसार में, विकास की मूल भावना- मानवता को लोगों के बीच बांटना, शायद सबसे बड़ी क्रांति है.
‘होमबाउंड’ राजनीति को व्यक्तिगत बना देती है, इसलिए कामयाब होती है. ये जातिवाद या सांप्रदायिकता पर कोई लेक्चर नहीं देती. सिर्फ इतना दिखाती है कि ये ताकतें कैसे व्यक्तिगत जीवन और रिश्तों को तबाह करती हैं.
घेवान की फिल्म वही करती है जो कोई भी आर्टपीस करता है. ये अदृश्य को प्रकट करती है. अव्यक्त को व्यक्त करती है, दूरस्थ को निकटतम बनाती है. विचार करने पर मजबूर कर देती है.
सवाल ये है कि भारत और बाहर के दर्शक पर्दे पर जो देख रहे हैं, उसके असर में खुद को रंगने के लिए राजी होंगे या नहीं. और अगर राजी होंगे तो यही घेवान की सबसे बड़ी विरासत होगी. इस उम्मीद से भी बड़ी कि इस बार ऑस्कर हमारे घर आएगा.