“नेपाल का लोकतंत्र रेत पर बने घर की तरह है- डांवाडोल, अस्थिर और राजनीतिक अवसरवाद की हवाओं द्वारा लगातार आकार लेता हुआ.” नेपाल के राजनीतिक शास्त्री लोक राज बराल का ये कथन हिमालय की गोद में बसे इसे छोटे से सुंदर देश के लिए कभी अनुपयुक्त नहीं होता है. नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल का लंबा और हिंसक इतिहास है.
काठमांडू की गलियों में बीते दो दशकों के राजनीतिक उतार-चढ़ाव की परछाई आज भी साफ दिखाई देती है. पिछले दो दिनों से नेपाल हिंसा की आग में चल रहा है. 20 आंदोलनकारी पुलिस की गोली से मारे जा चुके हैं, 5 मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और देश भर में हिंसा हो रही है. एक ऐसा देश जिसने 1996 में राजशाही के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन शुरू किया. फिर 10 सालों की हिंसा और अस्थरिता के लंबे दौर से गुजरने के बाद 2006 में जन आंदोलन को अलविदा कहा. इसके बाद माओवादियों की सरकार बनी. क्रांति की आस में खून-खराबा और बराबरी के लिए लंबी दुश्वारियां सहने वाली नेपाली जनता को अब उम्मीद नजर आई.
नेपाल ने 2015 में नए संविधान के साथ खुद को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया. फिर भी आज नेपाल अपने अतीत की जंजीरों से पूरी तरह आजाद नहीं हो पाया. लाल क्रांति का सपना अधूरा रह गया, लोकतंत्र लगातार उलझनों में घिरा है और राजशाही समय-समय पर सिर उठाकर अपने लिए अवसर की तलाश कर रही है.
अधूरी लाल क्रांति
1996 में शुरू हुआ माओवादी विद्रोह नेपाल के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था. 1996 से 2006 तक चले माओवादी आंदोलन का दावा था कि यह सामाजिक-आर्थिक ढांचे को बदलकर देश को न्यायपूर्ण और बराबरी वाला बनाने का संघर्ष है. माओवादियों के अनुसार ये आंदोलन राजशाही के खिलाफ था.
इस आंदोलन में हजारों जानें गईं, गांव-गांव में विद्रोह का झंडा बुलंद हुआ और आखिरकार शांति समझौते के साथ माओवादी मुख्यधारा की राजनीति में आए. माओवादियों ने लोकतंत्र और नए संविधान का वादा किया, जिसने ग्रामीण इलाकों में व्यापक समर्थन हासिल किया. दस साल तक चले इस गृहयुद्ध में 16,000 से अधिक लोग मारे गए, और 2006 में शांति समझौते के साथ इसका अंत हुआ. नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा. बल्कि एक गणतांत्रिक देश बन गया. नेपाल में 2008 में माओवादियों की जीत के बाद 240 साल पुरानी राजशाही खत्म हुई.
लेकिन 2006 में 'मु्कम्मल' हुई क्रांति से जनता के हाल कितने बदले? दो दशकों बाद सवाल वही है.
नेपाल की क्रांति के बाद माओवादी नेताओं जैसे पुष्पकमल दहल "प्रचंड" ने सत्ता हासिल तो की लेकिन नेपाल का संसदीय लोकतंत्र तमाशा बनकर रह गया. नेता भ्रष्टाचार और सत्ता के लिए तिकड़मबाजी में उलझ गए. जनता को किया गया समृद्धि, शिक्षा और स्वास्थ्य का सपना अधूरा ही रहा. आज लोग कहते हैं कि माओवादी क्रांति ने केवल सत्ता का चेहरा बदला व्यवस्था नहीं.
नेपाल की क्रांति पर किताब लिखने वाले पत्रकार आदित्य अधिकारी ने अपनी किताब 'द बुलेट एंड द बैलॉट बॉक्स, द स्टोरी ऑफ नेपाल्स माओइस्ट रिव्यूलेशन' में लिखा है.
"नेपाल की पहाड़ियों और जंगलों में रहने वाले माओवादी नेता पहली बार जब काठमांडू आए तो वे वैसी ही जगहों पर, वैसी ही सुविधाओं में रहते थे जैसे लोगों का प्रतिनिधित्व करने का दावा वे करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने विलासिता का स्वाद चखा जो ऐसे सर्वहारा नेताओं के लिए नैतिक रूप से उचित नहीं थी. प्रचंड का नया घर, उनकी कार, उनकी घड़ियां, उनके बेडरूम की कहानियां मीडिया में छपने लगी."
आदित्य अधिकारी लिखते हैं कि हालांकि बाबूराम भट्टाराई को सिद्धांत पसंद माना जाता था. लेकिन ऐसी रिपोर्टस आई थी कि उनकी पत्नी हिसिला यामी ने उनके प्रधानमंत्री रहते बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार किया. पूरे देश में स्थानीय माओवादी नेता प्रभावी हो रहे थे वे अब देश भर में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर ठेके ले रहे थे.
17 सालों में 14 बार बदले प्रधानमंत्री
नेपाल में राजनीति कितनी अस्थिर रही इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2006 से 2025 तक नेपाल में 14 बार प्रधानमंत्री बदले हैं. इस दौरान पुष्प कमल दहल 'प्रचंड', माधव कुमार नेपाल, बाबूराम भट्टराई, सुशील कोइराला, केपी शर्मा ओली और शेर बहादुर देऊबा कद्दावर नाम हैं जिन्होंने देश की सत्ता संभाली.
2008 में राजशाही के खात्मे के बाद नेपाल ने लोकतंत्र की राह पकड़ी, लेकिन यह राह स्थिरता से कोसों दूर रही. 17 सालों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं, और कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका.
राजनीतिक दलों के बीच सत्ता की होड़, भ्रष्टाचार, और वैचारिक भटकाव ने लोकतंत्र को एक "कंफ्यूज" प्रयोग बना दिया.
लोकतंत्र के इस दौर में जनता की उम्मीदें बार-बार टूटीं. विकास, शिक्षा, और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में प्रगति न के बराबर रही. भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े घोटालों ने सत्ताधारी दलों के प्रति अविश्वास को और गहरा किया. नेपाली छात्र कांग्रेस के नेता दिवाकर पांडे कहते हैं, "लोकतंत्र के समय जो विकास और सुधार के वादे किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए. लोग निराश हैं, और यह निराशा ही आज के आंदोलनों को जन्म दे रही है." जनता को लगता है कि लोकतंत्र केवल नेताओं के लिए सत्ता का खेल बन गया, जिसका फायदा आम आदमी को नहीं मिला."
दुनिया के सबसे गरीब देशों में नेपाल
नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में आता है. विश्व बैंक और अन्य स्रोतों के अनुसार नेपाल दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान के बाद दूसरा सबसे गरीब देश है. 2024 में नेपाल की प्रति व्यक्ति आय लगभग 1,381 अमेरिकी डॉलर थी. 2025 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,878 अमेरिकी डॉलर है जो नेपाल से लगभग दोगुनी है.
राजशाही की फुसफुसाहट और अतीत का हैंगओवर
लोकतंत्र से निराशा के बीच नेपाल में राजशाही की वापसी की मांग ने फिर से जोर पकड़ा है. 2025 में काठमांडू और अन्य शहरों में हजारों लोग "राजा वापस आओ, देश बचाओ" के नारे के साथ सड़कों पर उतरे पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह, जिन्हें 2008 में सत्ता से हटाया गया था, एक बार फिर सुर्खियों में हैं. उनके समर्थकों का मानना है कि राजशाही के दौर में कम से कम स्थिरता तो थी और भ्रष्टाचार आज की तुलना में कम था. ग्रामीण और पारंपरिक इलाकों में एक वर्ग आज भी मानता है कि राजशाही के दौर में सुरक्षा और स्थिरता थी. राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी), जो संवैधानिक राजशाही और हिंदू राष्ट्र की वकालत करती है, इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही है.
हालांकि राजशाही की वापसी एक व्यावहारिक विकल्प नहीं लगती, लेकिन जनता की निराशा उसे बार-बार चर्चा में ले आती है. पूर्व राजा ज्ञानेंद्र का इतिहास विवादास्पद रहा है. 2001 के शाही नरसंहार के बाद उनकी ताजपोशी और 2005 में लोकतंत्र को निलंबित करने की कोशिश ने उनकी छवि को धूमिल किया था. लेकिन लोकतांत्रिक सरकार की नाकामियों ने लोगों को उनमें उम्मीद दे दी है. कुछ लोग उन्हें एक "उद्धारक" के रूप में देखते हैं. उनके हाल के धार्मिक दौरे और समर्थकों की रैलियों ने इस आंदोलन को और हवा दी.
नेपाल के पत्रकार और लेखक कनक मणि दीक्षित कहते हैं, 'राजशाही का भूत अभी भी नेपाल को परेशान करता है, इसलिए नहीं कि वह आदर्श थी, बल्कि इसलिए कि लोकतंत्र विफल रहा है.'
नेपाल अपने अतीत से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा इसका कारण यहां के नेताओं की राजनीति में गहरी असहमति और अवसरवाद है. लाल क्रांति ने जिस नए समाज का सपना दिखाया था, उसका कोई ठोस खाका आज तक नहीं बना. लोकतंत्र ने स्थिरता और विकास नहीं दिया. और राजशाही का विकल्प भी व्यवहारिक नहीं है।
यानी नेपाल तीन ध्रुवों के बीच अटका हुआ है, एक ऐसी अधूरी क्रांति जिसने व्यवस्था को बदला नहीं; एक ऐसा लोकतंत्र जिसे दिशा और स्थिरता नहीं मिली; और एक ऐसी राजशाही जो खत्म होकर भी बार-बार विकल्प के रूप में लौट आती है.
पन्ना लाल