श्रीराम की कर्मभूमि, तीन नदियों का संगम... छत्तीसगढ़ का प्रयाग जहां पितरों के लिए होता है श्राद्ध और तर्पण

राजिम तीर्थ, छत्तीसगढ़ का प्राचीन तीर्थस्थल है जो महानदी, पैरी और सोंढुर नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थित है. यह स्थल गयाजी तीर्थ की तरह श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान के लिए प्रसिद्ध है. यहां माघी पुन्नी मेला और छोटा कुंभ भी आयोजित होता है.

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राजिम तीर्थ रामायण काल में दंडक वन का हिस्सा रहा है राजिम तीर्थ रामायण काल में दंडक वन का हिस्सा रहा है

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 17 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:21 AM IST

श्राद्ध परंपरा को लेकर जब तर्पण और पिंडदान की बात करते हैं तो ऐसे में गयाजी तीर्थस्थल का ही नाम ध्यान आता है, जो कि बिहार में है. गयाजी की मान्यता पुराणों में वर्णित है, लेकिन देश में अन्य कुछ और तीर्थ भी बताए गए हैं, जहां दान-पिंड, तर्पण और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं. छत्तीसगढ़ के राजिम तीर्थ का नाम भी इनमें से एक है. राजिम, जिसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग भी कहा जाता है. यही तीर्थ महानदी, पैरी नदी और सोंढुर नदी के संगम पर बसा हुआ है. त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे प्रयाग जैसी महिमा मिली हुई है. इसी वजह से यहां, पवित्र संगम पर माघ के महीने में माघी पुन्नी मेला भी लगता है और श्राद्ध के दिनों में पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण भी करते हैं, जिससे पितरों को शांति मिलती है.

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राजिम तीर्थ में आयोजित होता है कुंभ
राजिम में भी हरिद्वार और प्रयाग की तरह ही छोटा कुंभ आयोजित होता है, साथ ही मृतकों की अस्थियों का विसर्जन भी किया जाता है. छत्तीसगढ़ के इस तीर्थ की प्रसिद्धि और मान्यता का कारण क्या है, इस सवाल का जवाब मिलता है इस तीर्थ में स्थित श्रीराम को समर्पित उनके ही एक नाम 'राजीव लोचन राम' मंदिर से. इसे इतिहासकार आठवीं सदी का बताते हैं. माता कौशल्या श्रीराम को राजीव नयन कहा करती थीं, क्योंकि उनके नेत्र कमल के जैसे थे. 

रामायण काल में दंडकारण्य में शामिल था राजिम तीर्थ
इस मंदिर को लेकर एक जनश्रुति भी है. कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण खुद विश्वकर्मा ने किया था. यह क्षेत्र दंडकारण्य में शामिल था और सतयुग-त्रेता के दौरान यहां राक्षस बहुत उत्पात मचाया करते थे. उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था. उस दौरान एक राजा रत्नाकर यज्ञ आदि के जरिए इस क्षेत्र की सुरक्षा किया करते थे. ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दुखी हो कर वहीं खंडित हवन कुंड के सामने ही तपस्या में लीन हो गए. 

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राजा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने राजा को वरदान दिया कि वह कुछ दिनों में अवतार लेकर इस समस्या का समूल नाश करेंगे और स्वयं यहां निवास करेंगे. अपने वचन के तौर पर भगवान विष्णु मूर्ति रूप में वहां स्थापित हो गए और प्रतिमा पर बड़ी-बड़ी आंखें उभर आईं. तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है. 

राजिम नाम की भक्त श्रद्धालु से जुड़ा है नाम
हालांकि इस तीर्थ को 'राजिम' नाम  इसी नाम की एक श्रद्धालु के कारण मिला, जो जाति से तेलिन थी और श्रीराम की भक्त भी. राजिम तेलिन को श्रीराम शिला महानदी में बहती हुई मिली थी. वह उसे अपने घर ले गई और कोल्हू में रख दी. उसके बाद से तो उसका घर धन-धान्य से भर उठा. बाद में राज्य के राजा ने भगवान विष्णु के दिए स्वप्न के आधार पर राजिम तेलिन को खोजा और उससे श्रीराम शिला हासिल की. प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हुई और राजा ने इस क्षेत्र को राजिम माई के नाम पर ही राजिम तीर्थ घोषित कर दिया. 

राजिम माई का मंदिर
आज भी राजीव लोचन मंदिर के आसपास अन्य मंदिरों के साथ राजिम माई का मंदिर भी विराजमान है. इस लोककथा का जिक्र लेखक धनंजय चोपड़ा ने अपनी किताब (भारत में कुंभ) में भी किया है. इन तीन नदियों के संगम पर है राजिम तीर्थ सोंढूर-पैरी-महानदी इन तीन नदियों के त्रिवेणी संगम तट पर बसा राजिम प्राचीनकाल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख तीर्थस्थल है. लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता. कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहां आते हैं. उस दिन जगन्नाथ मंदिर के पट बंद रहते हैं और भक्तों को भी राजीव लोचन में ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन होते हैं. 

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भगवान श्रीराम की मौजूदगी, जगन्नाथ महाप्रभु से जुड़ाव और तीन नदियों के संगम के पौराणिक महत्व के कारण ही राजिम तीर्थ श्रद्धालुओं के बीच श्राद्ध कर्म के लिए भी प्रसिद्ध है और जिस तरह लोग गयाजी जाते हैं उसी तरह यहां भी पहुंचते हैं.

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