बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण हमेशा से ही चुनावी रणनीति का केंद्र रहे हैं, और 2025 विधानसभा चुनावों के संदर्भ में महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन) का हालिया फैसला इसी की मिसाल है. महागठबंधन ने हाल ही में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया है, जबकि विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा बनाया गया है. यह घोषणा गुरुवार (23 अक्टूबर 2025) को पटना में कांग्रेस नेता अशोक गहलोत की मौजूदगी में हुई. लेकिन इस फैसले ने बिहार की 17-18% मुस्लिम आबादी (लगभग 1.8 करोड़ वोटरों) को नजरअंदाज और नाराज कर दिया है. कहा जा रहा है कि जब ढाई फीसदी आबादी वाले को मंच से डिप्टी सीएम का चेहरा घोषित किया जा सकता है, तो 18 फीसदी वाले तबके को पीछे क्यों रखा जा रहा है. सवाल वाजिब है: इतने बड़े वोट बैंक को डिप्टी सीएम का वादा क्यों नहीं? आइए, तथ्यों और विश्लेषण के आधार पर समझते हैं.
मुस्लिम डिप्टी सीएम का वादा न किए जाने को लेकर 3 बड़ी दलीलें दी जा रही हैं:
1. जब वोट मिल रहा है, तो कैसी गरज? महागठबंधन में एक सोच है कि जब उन्हें मुस्लिम वोट मिल ही रहा है तो सत्ता के बड़े पदों की लड़ाई में उन्हें क्यों शामिल किया जाए. ज्यादा बड़ी चुनौती पिछले तबके और दलित वोटों को समेटने की है. विरोधी तो ये तक कह रहे हैं कि मुसलमानों को भाजपा का डर दिखाकर महागठबंधन की पार्टियां अपना उल्लू सीधा कर रही हैं.
2. किसी एक को चेहरा चुना तो बाकी के नाराज होने का खतरा है. वर्तमान में मुस्लिम नेतृत्व में वह स्पष्ट चेहरा नहीं मिल रहा जिसे पूरा गठबंधन स्वीकार करे. हालांकि, मंच पर राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी बैठे हुए थे. लेकिन, यदि मुस्लिम नेतृत्व की बारी आएगी तो कांग्रेस के नेता भी दावा ठोकेंगे.
3. तीसरी, और सबसे बड़ी दलील ये है कि महागठबंधन को बीजेपी के नैरेटिव का डर है. यदि डिप्टी सीएम मुस्लिम हुआ तो विपक्ष कहेगा 'मुस्लिम-तुष्टिकरण' हो रहा है. इससे विपरीत ध्रुवीकरण का खतरा पैदा हो जाएगा. यानी, 18 फीसदी को सत्ता में भागीदारी देने के एवज में 82 फीसदी के बिखर जाने का खतरा.
अब आइये, इन पहलुओं पर बारीकी से नजर डालते हैं और बिहार के पेंचीदा राजनीतिक परिदृश्य में देखते हैं कि सबसे बड़ा वोटबैंक होने के बावजूद मुस्लिम नेतृत्व बिहार में हाशिये पर क्यों है-
जातिगत संतुलन की रणनीति: ईबीसी वोटों को मजबूत करने का दांव
बिहार में मुस्लिम वोट (MY - Muslim-Yadav गठजोड़) महागठबंधन, खासकर राजद का पारंपरिक आधार रहा है. लेकिन 2020 के चुनावों में ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) वोटों का विभाजन गठबंधन के लिए नुकसानदेह साबित हुआ था. मुकेश सहनी का दल वीआईपी मल्लाह समुदाय (लगभग 2-3% आबादी) का प्रतिनिधित्व करता है, जो ईबीसी का बड़ा हिस्सा है. सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा बनाकर महागठबंधन ने ईबीसी वोटों को एकजुट करने की कोशिश की है, ताकि एनडीए (बीजेपी-जेडीयू) के ओबीसी-ईबीसी फोकस को चुनौती दी जा सके.
एनडीए ने पहले ही करपूरी ठाकुर (ईबीसी आइकन) को श्रद्धांजलि देकर इस वर्ग को लुभाने की कोशिश की है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम 2020 की गलती (ईबीसी वोटों का बिखराव) से सीखा गया है, जहां मुस्लिम-यादव फोकस से अन्य पिछड़े वर्ग दूर हो गए.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बचाव: हिंदू-मुस्लिम मुद्दा बनने का डर
महागठबंधन जानबूझकर मुस्लिम चेहरे को डिप्टी सीएम न बनाकर चुनाव को 'अगड़ा बनाम पिछड़ा' की लड़ाई पर केंद्रित रखना चाहता है. अगर कोई मुस्लिम नेता को यह पद दिया जाता, तो बीजेपी इसे 'मुस्लिम तुष्टिकरण' का मुद्दा बना सकती थी, जिससे हिंदू वोट एकजुट हो जाते.
2005 के चुनावों में रामविलास पासवान के मुस्लिम सीएम स्टंट के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ा था, जिसका असर लंबे समय तक रहा. AIMIM जैसे दल पहले ही इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, यह कहते हुए कि "13% यादव 18% मुस्लिमों को बीजेपी से बचाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन डिप्टी सीएम क्यों नहीं?"
महागठबंधन की आंतरिक राजनीति और सीट-शेयरिंग का दबाव
वीआईपी ने 15-20 सीटों की मांग की थी, और सहनी का पूर्व एनडीए कनेक्शन (वे 2022 तक बीजेपी के साथ थे) उन्हें 'ट्रस्ट वोट' के रूप में उपयोगी बनाता है. कांग्रेस ने गहलोत के नेतृत्व में यह डील फाइनल की, ताकि गठबंधन टूटने से बचे. मुस्लिम प्रतिनिधित्व सीटों और मंत्रिमंडल में मिल सकता है (आरजेडी ने 2020 में कई मुस्लिम विधायकों को टिकट दिया), लेकिन शीर्ष पद पर नहीं, क्योंकि यह यादव-मुस्लिम गठजोड़ को 'यादव-प्रधान' दिखा सकता था. बीजेपी इसे उछाल रही है- "एनडीए ने शाहनवाज हुसैन जैसे मुस्लिम चेहरे दिए, महागठबंधन ने क्या किया?"
मुस्लिम समुदाय की प्रतिक्रिया और संभावित नुकसान
यह फैसला मुस्लिमों में असंतोष पैदा कर चुका है. AIMIM के शौकत अली और असीम वकार जैसे नेता इसे 'वोट बैंक' मानने का आरोप लगा रहे हैं. सोशल मीडिया पर ट्रेंड चल रहे हैं. अगर महागठबंधन ने दो डिप्टी सीएम का ऐलान किया होता (जैसे राजस्थान मॉडल), तो एक मुस्लिम को शामिल कर संतुलन बनाया जा सकता था. लेकिन अभी यह चूक लग रही है, जो सीमांचल और मगध जैसे मुस्लिम-बहुल इलाकों में वोट खिसकाव का कारण बन सकती है.
कुल मिलाकर, यह फैसला जातिगत गणित की मजबूरी और सांप्रदायिक जोखिम से उपजा है, न कि मुस्लिमों की उपेक्षा से. लेकिन राजनीति में वोट बैंक को नजरअंदाज करना महंगा पड़ सकता है- 2020 में भी ऐसा ही हुआ था. अगर महागठबंधन सुधारता है (जैसे चुनाव बाद मंत्रिमंडल में मजबूत मुस्लिम प्रतिनिधित्व), तो नुकसान सीमित रह सकता है. अन्यथा, AIMIM या एनडीए को फायदा हो सकता है. लेकिन, सोशल मीडिया पर मुसलमानों की कुछ प्रतिक्रियाएं देखकर यह भी अहसास होता है कि उनके लिए एनडीए को हराना पहली प्राथिमिकता है, भले ही इसके लिए उन्हें सत्ता के हाशिये पर धकेल दिया जाए.
धीरेंद्र राय