ओवैसी को तेजस्‍वी यादव ने कहा 'चरमपंथी', क्या बिहार के मुस्लिम वोटर भी मानेंगे?

बिहार में पहले चरण के चुनाव का प्रचार खत्म होते होते मुस्लिम राजनीति में उबाल आ गया. तेजस्वी यादव ने ओवैसी को चरमपंथी कहकर मुसलमानों के बीच बहस खड़ी कर दी है. इस विवाद के बाद एनडीए में शामिल दलों की आंखों में भी चमक आ गई है.

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औवेसी और तेजस्वी यादव की तकरार मुस्लिम मतदाताओं के मन पर क्‍या असर छोड़ेगी? (Photo-ITG) औवेसी और तेजस्वी यादव की तकरार मुस्लिम मतदाताओं के मन पर क्‍या असर छोड़ेगी? (Photo-ITG)

धीरेंद्र राय

  • नई दिल्ली,
  • 04 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:13 PM IST

बिहार चुनाव के पहले चरण का प्रचार खत्‍म होते होते माहौल पूरे उबाल पर पहुंच गया. महागठबंधन जहां मुस्लिम वोटों को लेकर आश्‍वस्‍त नजर आ रहा था, वह तेजस्‍वी के एक बयान से परेशानी में आ गया. दरअसल, एक इंटरव्‍यू में तेजस्‍वी से पूछा गया कि जब ओवैसी बिहार में सेकुलर पार्टियों से गठबंधन करना चाह रहे थे तो उन्‍हें तवज्‍जो क्‍यों नहीं दी गई. इस पर तेजस्‍वी ने सीधा जवाब दिया कि बिहार में extremist (चरमपंथियों) के लिए कोई जगह नहीं है. फिर क्‍या था, ओवैसी ने उसी पल ये बयान मुसलमानों के बीच ले जाकर एक 'विक्टिम कार्ड' में बदल दिया. 

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ओवैसी ने एक रैली में कहा कि जो लोग हमें चरमपंथी कहते हैं, वही असल में मुसलमानों की आवाज़ दबाना चाहते हैं. उनकी पार्टी के नेता वारिस पठान ने भी सीधा तंज कसा, 'तेजस्वी ने रसूल की शान में गुस्ताख़ी पर एक शब्द नहीं बोला, अब हमें चरमपंथी कह रहे हैं?' अब सवाल ये है कि बिहार के मुसलमान इसे कैसे देख रहे हैं, और इससे किसकी राजनीति को फायदा या नुकसान हो सकता है?

क्‍या ओवैसी का 'विक्टिम कार्ड' काम करता है?

बिहार में RJD की राजनीति यादव और मुस्लिम वोटबैंक के फॉर्मूले पर चलती आई है. तेजस्वी यादव खुद को हमेशा 'सेक्युलर राजनीति' का चेहरा बताते हैं. उनके पिता लालू यादव ने भी इसी फार्मूले पर सालों तक मुसलमान-यादव (MY) समीकरण के सहारे राज किया. यादव वोट अभी भी तेजस्वी के साथ हैं. लेकिन अब ओवैसी की पार्टी AIMIM ने इस समीकरण के मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगा दी है. उनकी राजनीति से मुसलमानों में दो धड़े बनते दिख रहे हैं - सेक्युलर वफादार और मुस्लिम पहचान की राजनीति करने वाले. ओवैसी की राजनीति का सबसे मजबूत हथियार है 'हम पर हमेशा शक किया जाता है' वाला नैरेटिव. जब तेजस्वी ने उन्हें चरमपंथी कहा, तो उन्होंने वही लाइन पकड़ी, 'जब हम अपने हक की बात करते हैं, तो हमें चरमपंथी कहा जाता है. लेकिन जब कोई रसूल की शान में गुस्ताखी करता है, तब सब सेक्युलर चुप हो जाते हैं.'

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इस बयानबाजी ने सोशल मीडिया पर मुस्लिम युवाओं के बीच AIMIM को एक 'मुस्लिम प्राइड' के प्रतीक के तौर पर उभारा. इसका एक बैकग्राउंड ये भी है कि ओवैसी सीधे मुसलमानों के मुद्दे - मॉब लिंचिंग, बुलडोजर, NRC, और इस्लामोफोबिया - को छूते हैं, जबकि तेजस्वी और नीतीश जैसे नेता इन मुद्दों पर अक्सर चुप दिखते हैं. तेजस्वी के बयान ने ओवैसी को एक बड़ा 'नैरेटिव' दे दिया - कि 'सेक्युलर पार्टियां मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक समझती हैं, उनकी असली आवाज नहीं सुनना चाहतीं.'

लेकिन, कई मुस्लिम ऐसे भी थे जो ओवैसी के बयानों को राजनीतिक बता रहे हैं. दरअसल, बिहार में मुसलमानों का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो ओवैसी को बीजेपी की बी-टीम मानता है. इसी नाते वह ओवैसी और उनकी पार्टी के रसूल की शान में गुस्‍ताखी का हवाला देने की आलोचना कर रहा है. क्‍योंकि, उसे लगता है कि बिहार में NDA, खासतौर पर बीजेपी को रोकने का काम महागठबंधन की पार्टियां ही कर सकती हैं. ओवैसी नहीं. 

कांग्रेस और JDU की कश्‍मकश

कांग्रेस चाहती है कि मुस्लिम वोट 'महागठबंधन' में ही रहें, लेकिन कांग्रेस का बिहार संगठन बहुत कमजोर है. नीतीश कुमार का JDU खुद NDA में होने के बाद मुसलमानों से दूर हो चुका है, हालांकि वे मदरसा सुधार और अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं से संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं. लेकिन, वक्‍फ कानून पर केंद्र सरकार को समर्थन देकर नीतीश कुमार ने जेडीयू की स्थिति बदल दी है. अब मुसलमान उसे बीजेपी के साए वाली पार्टी कह रहे हैं. ऐसे में महागठबंधन और एनडीए के बीच ओवैसी ने अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की है.

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ओवैसी और BJP की 'दोस्‍ती' के नैरेटिव में कितना दम

BJP हमेशा से ओवैसी को 'हिन्दू वोटों को एकजुट करने' का टूल मानती है. पार्टी का तर्क है - 'ओवैसी जितनी ज़्यादा मुस्लिम राजनीति करेंगे, उतना ही हिंदू वोट एकसाथ आएगा.' लेकिन इस बार फर्क ये है कि AIMIM सिर्फ धार्मिक नारों पर नहीं, बल्कि स्थानीय विकास के मुद्दों पर भी बोल रही है. जैसे किशनगंज में मेडिकल कॉलेज की फंडिंग, अररिया में बाढ़ राहत, और कटिहार में रेल लाइन विस्तार. कोशिश ये है कि ओवैसी और AIMIM की छवि सिर्फ 'धर्म आधारित नेता' की नहीं, बल्कि 'मुस्लिम इलाकों की आवाज' की बने.

बिहार के मुस्लिम वोटर का आने वाले चुनावों का असर

बिहार में लगभग 18% मुस्लिम आबादी है, जिसका 243 में से 51 सीटों की जीत-हार पर सीधा असर है. सीमांचल (अररिया, किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया) में मुसलमान 45-50% तक हैं. जहां ओवैसी की पार्टी का अच्‍छा खासा नेटवर्क है. मधुबनी, सहरसा, दरभंगा, गया, पटना जैसे इलाकों में मुसलमान 10-20% के बीच हैं.

अगर ओवैसी सीमांचल की 20-25 सीटों में से सिर्फ 5-6 सीटों पर भी असर डाल पाए, तो RJD को बड़ा नुकसान हो सकता है. 2020 में AIMIM ने 5 सीटें जीती थीं, बाद में चार विधायक टूटकर RJD में चले गए, लेकिन 2025 में ओवैसी इस गलती को दोहराने के मूड में नहीं दिखते. उनकी रणनीति है - 'भले सीटें कम मिलें, पर वोट प्रतिशत बढ़ाया जाए.' अगर वो 5-7% वोट भी काटते हैं, तो कई सीटों पर NDA को बढ़त मिल सकती है.

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सीमांचल में असली जंग

सीमांचल की लड़ाई त्रिकोणीय है. एक तरफ RJD-कांग्रेस वाला महागठबंधन है तो दूसरी तरफ AIMIM. वहीं NDA के दल (मुख्यतः JDU) मुस्लिम वोटों में पैठ बनाना चाहता है. यहां ओवैसी ने पहले से ही मैदान तैयार कर लिया है. किशनगंज में AIMIM का मजबूत कैडर है, और अररिया व कटिहार में पार्टी लगातार छोटे-छोटे मुद्दों पर मोर्चे निकाल रही है. जैसे बाढ़ राहत शिविरों में भेदभाव, स्कूलों में मुस्लिम शिक्षकों की कमी, NRC और वक्‍फ के मुद्दे पर सभाएं.

तेजस्वी और नीतीश की सरकार पर मुसलमानों का भरोसा वैसे भी कमजोर पड़ा है. न तो नौकरियों में विशेष राहत, न ही मुसलमानों के किसी और मुद्दे पर ठोस रवैया. ओवैसी इस खाली जगह को भर रहे हैं. वे इस बात को मजबूती से रखते हैं कि महागठबंधन जब सीएम और डिप्‍टी सीएम के चेहरे का एलान करता है, तो उसमें 18 फीसदी आबादी वाले मुस्लिम समुदाय को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाता है.

निष्‍कर्ष ये है कि तेजस्वी का बयान भले चुनावी रणनीति के तहत दिया गया हो, लेकिन उसने ओवैसी को राजनीति का 'नैरेटिव मास्टर' बना दिया है. सीमांचल में अब असली जंग RJD और AIMIM के बीच है - और इस जंग में बीजेपी चुपचाप मुस्कुरा रही है. अगर मुस्लिम वोटों में दरार गहरी हुई, तो बिहार की राजनीति में आने वाला चुनाव सबसे दिलचस्प मुकाबला होगा. जहां 'सेक्युलर बनाम पहचान की राजनीति' आमने-सामने होगी.

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