बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण में 2020 की तुलना में लगभग 8% अधिक मतदान का आंकड़ा कई परतों वाला है. यह न केवल लोगों का उत्साह दिखाता है, बल्कि लोकतांत्रिंक सुधार की प्रक्रियाओं पर भी मुहर लगाता है.
हालांकि एनडीए और महागठबंधन दोनों ही ओर से इस बढ़े हुए मतदान को अपने अपने पक्ष में परिभाषित किया जा रहा है. पर वोटिंग का इतिहास बहुत मिला जुला रहा है. कई बार ऐसा हुआ है कि कम वोटिंग के बावजूद सत्ता परिवर्तन बड़े पैमाने पर हुआ है. और कई बार ऐसा भी हुआ है कि बड़े पैमाने पर वोटिंग हुई, लेकिन सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ. इसलिए वोटिंग के परसेंटेज के आधार पर कोई भी भविष्यवाणी करना उचित नहीं है. हां, यह जरूर है कि बंपर वोटिंग क्यों हुई, इस पर गंभीरता से चर्चा जरूर कर सकते हैं. आइये देखते हैं कि बिहार में बढ़ी हुई वोटिंग के क्या राजनीतिक मायने हो सकते हैं?
1-SIR ने अपना काम ठीक से किया, इलेक्शन मैनेजमेंट में नयी तकनीक का भी कमाल
बिहार में इस बार लगभग 8 प्रतिशत अधिक मतदान से हर कोई आश्चर्यचकित है. सवाल यह उठ रहा है कि क्या यह राजनीतिक लहर का परिणाम है या फिर चुनाव आयोग की मेहनत का परिणाम है. जैसे एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) का असर है,क्योंकि फर्जी वोटर्स वोट देने से वंचित रह गए.
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में बिहार के मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर सुधार किए गए हैं. चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वेरिफिकेशन के ज़रिए डुप्लीकेट, मृत या फर्जी नामों को हटाया है. इससे वास्तविक मतदाताओं की संख्या कम हुई है, शायद इसलिए मतदान प्रतिशत बढ़ा हुआ दिखा है. उदाहरण के लिए, अगर किसी क्षेत्र में पहले 10 लाख मतदाता सूचीबद्ध थे और अब 9 लाख रह गए हैं, तो वही 6 लाख वोट डालने वाले अब 60% के बजाय 66% टर्नआउट दिखाते हैं. यानी फर्जी या निष्क्रिय वोटर्स के हट जाने से प्रतिशत स्वाभाविक रूप से बढ़ा है.
दूसरी तरफ, एसआईआर के तहत मतदाताओं को उनके बूथ, मतदान केंद्र और चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी जानकारी समय पर दी गई. इससे सही मतदाताओं की भागीदारी बढ़ी है. ग्रामीण इलाकों में यह सूचना अभियान पंचायत स्तर पर सक्रिय स्वयंसेवकों और शिक्षकों के ज़रिए प्रभावी रहा.
इस बार बूथ-वार मतदाता सूची के डिजिटलीकरण से चुनाव अधिकारियों को घोस्ट-वोटिंग रोकने में मदद मिली है. कई जिलों में पहली बार चेहरा पहचानने वाली तकनीक और QR-आधारित मतदाता स्लिप का उपयोग किया गया, जिससे मतदान अधिक पारदर्शी और सुरक्षित बना है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि अधिक मतदान सिर्फ राजनीतिक उत्साह का नहीं, बल्कि इलेक्शन मैनेजमेंट के सुधारों का नतीजा भी है.
2-महिला वोटर्स की लंबी लाइन बताती है कि नीतीश फैक्टर काम कर रहा है
बिहार चुनाव के दौरान मतदान केंद्रों पर महिलाओं की लंबी कतारें ऐतिहासिक रही हैं. ऐसा लगता है कि महिलाओं ने जाति, समुदाय और धर्म को ताक पर रखकर नीतीश कुमार को वोट दिया है. कई जगहों पर ऐसा देखने को मिला कि महिलाएं अपने पति और बेटों के मना करने के बावजूद नीतीश कुमार को वोट देने की बात कहती रहीं. यह सिर्फ महिला सशक्तिकरण का प्रतीक नहीं, बल्कि इस बात का भी संकेत है कि नीतीश फैक्टर इस बार के चुनावों में और भी प्रभावी हो गया.
नीतीश कुमार की राजनीति का सबसे मजबूत स्तंभ महिलाएं रही हैं. उन्होंने पिछले डेढ़ दशक में ऐसे कई निर्णय लिए, जिनसे महिलाओं के जीवन में प्रत्यक्ष सुधार हुआ. ‘मुख्यमंत्री साइकिल योजना’, ‘पोशाक योजना’, ‘कन्या उत्थान योजना’, ‘आरक्षण के तहत पंचायती प्रतिनिधित्व’, और ‘शराबबंदी’ जैसे कदमों ने महिलाओं के बीच एक गहरा भरोसा बनाया. यह भरोसा किसी जाति या वर्ग तक सीमित नहीं रहा — अति पिछड़ा वर्ग से लेकर उच्च जाति की महिलाओं तक, सभी ने खुद को इस बदलाव का हिस्सा महसूस किया.
शराबबंदी का निर्णय विशेष रूप से महिलाओं के लिए सामाजिक सुरक्षा कवच साबित हुआ. गांवों में घरेलू हिंसा, झगड़े और नशे से जुड़ी समस्याओं में भारी कमी आई. भले ही शराबबंदी के आर्थिक या प्रशासनिक पहलुओं पर आलोचना हुई हो, लेकिन महिला मतदाताओं के मन में नीतीश कुमार के प्रति आभार की भावना कायम है.
इसके साथ ही, नीतीश सरकार की नई योजनाएं जैसे ‘मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना’ के तहत प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता, महिला मतदाताओं के साथ भावनात्मक जुड़ाव को और मजबूत कर रही हैं. ग्रामीण इलाकों में यह धारणा व्यापक है कि 'नीतीश जी ने हमारी बात सुनी और हमें सम्मान दिया.'
3-नीतीश को हटाने के लिए भी जमकर वोटिंग हुई है
बिहार में हुई बंपर वोटिंग इस बात का भी गवाह है कि कुछ जातियों और समुदायों ने नीतीश को हटाने के लिए बढ़ चढ़कर वोट किया है. दिल्ली-एनसीआर में कार्यरत मुस्लिम समुदाय ने बड़े पैमाने पर छुट्टी लेकर मतदान करने बिहार पहुंचे हैं. ऐसी बस्तियों में जहां मुस्लिम समुदाय बड़े पैमाने पर रहता है आजकल खाली पड़े हुए हैं. साफ है कि ये लोग किसी भी कीमत पर बीजेपी की सरकार नहीं बनने देना चाहते हैं.
इसके साथ ही आरजेडी का कोर वोटर यादव, अतिपिछड़े, महादलित और कुछ सीमांत पिछड़ी जातियों में इस बार स्पष्ट रूप से तेजस्वी को ताज पहनाने की बेचैनी देखने को मिली है. इन वर्गों को लगता है कि विकास और रोजगार के वादे भले पूरे न हों पर तेजस्वी को एक बार मुख्यमंत्री बनाकर देखने में क्या हर्ज है. नीतीश कुमार की सरकार के लंबे कार्यकाल ने स्थिरता तो दी, परंतु वही स्थिरता अब एक तरह की थकान में बदलती दिख रही है.
इसी तरह, कुछ ओबीसी और ईबीसी समुदायों में यह धारणा बनी है कि नीतीश कुमार का शासन अब बड़े वर्गों की ओर झुक गया है, और स्थानीय नेतृत्व को अवसर नहीं मिल रहा. दूसरी ओर, महादलित समुदाय के एक हिस्से में यह भावना बढ़ी है कि सरकारी योजनाओं का लाभ अब उतना प्रभावी ढंग से नीचे तक नहीं पहुंच पा रहा.
इन असंतोषों को विपक्ष ने एकजुट करने की कोशिश की है. तेजस्वी यादव ने रोजगार, युवाओं की आवाज़ और बदलाव की ज़रूरत को मुख्य नारा बनाया, जिससे यह वर्ग भावनात्मक रूप से उनके साथ जुड़ा है.
4-तीसरे मोर्चे और ‘साइलेंट वोटर’ का प्रभाव
प्रशांत किशोर के जन सुराज अभियान, और कुछ छोटे क्षेत्रीय दलों (जैसे भीम आर्मी, वीआईपी पार्टी, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा आदि) की सक्रियता ने चुनाव को कई जगहों पर त्रिकोणीय बनाया है.
अधिक मतदान इस बात का संकेत भी हो सकता है कि साइलेंट वोटर जो किसी बड़े दल से जुड़ा नहीं है, इस बार मतदान केंद्र तक पहुंचा है. यह वर्ग अक्सर सोशल मीडिया पर मुखर नहीं होता, लेकिन वास्तविक परिणामों को प्रभावित करता है.
अगर जन सुराज जैसे दलों को 3-4 प्रतिशत वोट भी मिलते हैं, तो यह कई सीटों पर निर्णायक होगा. क्योंकि बिहार में जीत का अंतर अक्सर 1,000 से 3,000 वोटों में तय होता है. इसलिए 8% अधिक मतदान का एक अर्थ अस्थिर समीकरणों की वापसी भी है.
5-दोनों पक्षों के समर्थकों में संतुलित प्रतिस्पर्धा की निशानी
बिहार में इस बार किसी भी पक्ष में लहर नहीं दिख रहा है. इसके बावजूद अगर बंपर वोटिंग हुई है तो इसका मतलब है कि मतदाता इस बार न तो पूरी तरह से सत्ता के विरोध में जुटे हैं और न ही किसी नए चेहरे के पीछे बेतहाशा लामबंद हुए हैं. यह साफ दिख रहा है दोनों ही खेमों में एक दूसरे को हराने का उत्साह दिखाई दे रहा है.
दरअसल, चुनाव प्रचार के अंतिम चरणों में महागठबंधन और एनडीए दोनों ने अपनी कोर वोट-बेस को एक्टिवेट करने में भरपूर प्रयास किए हैं. नीतीश कुमार ने अपने ‘काम और अनुभव’ को मुद्दा बनाया, वहीं तेजस्वी यादव ने रोजगार और युवाओं के भविष्य को केंद्र में रखकर प्रचार किया. नतीजतन, शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में मतदाता सक्रिय हुए और बूथों पर लंबी कतारें देखने को मिलीं.
जब किसी चुनाव में मतदान बहुत कम होता है तो यह अक्सर उदासीनता या असंतोष को दर्शाता है. परंतु जब मतदान प्रतिशत ऊंचा होता है और कोई भी पक्ष इसे स्पष्ट रूप से अपने पक्ष में नहीं बता पाता, तो यह ‘क्लोज़ कंटेस्ट’ की ओर इशारा करता है. बिहार में भी इस बार यही स्थिति बनती दिख रही है.
संयम श्रीवास्तव