बांग्लादेश में मुहम्मद यूनुस और पाकिस्तान में सेना प्रमुख आसिम मुनीर आज जहां बैठे हैं, वो किसी जनमत के चलते नहीं है. दोनों ने एक संकट का फायदा उठाया, और सत्ता के उस सर्वोच्च शिखर तक पहुंच गए, जो उन्होंने ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा. करीब एक सप्ताह पहले ही बांग्लादेश के चुनाव आयुक्त ने घोषणा की कि देश में अगले साल 12 फरवरी को आम चुनाव कराए जाएंगे. लेकिन, जिस तरह से बीती रात बांग्लादेश में शेख हसीना विरोधी नेता शरीफ उस्मान हादी की मौत के बाद हिंसा और आगजनी हुई. दो प्रमुख अखबारों के दफ्तर में आग लगा दी गई. ढाका और चटगांव में भारतीय हाई कमीशन पर हमले की कोशिश हुई. हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं. अंदाजा मिलता है कि अभी बांग्लादेश चुनाव के लिए तैयार नहीं है. युनूस पर पहले भी आरोप लगता रहा है कि वे चुनाव को लेकर उत्साह नहीं दिखा रहे हैं. और उसे टालने की कोशिश करते हैं.
कुलमिलाकर बांग्लादेश में शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद जो शून्य बना, उसमें मोहम्मद युनूस की लॉटरी लग गई. विपक्ष बिखरा हुआ था और सड़क पर दिख रही कट्टरपंथी ताकतों के पास शासन चलाने की क्षमता नहीं थी. सेना का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य नहीं था. इस पूरी अराजकता में मुहम्मद यूनुस सबसे कम विवादित चेहरा बनकर उभरे. उनके पास न तो कोई पार्टी थी, न कैडर और न ही चुनावी ताकत, लेकिन उनके पास वह चीज थी जिसकी संकट में सबसे ज्यादा जरूरत होती है- भरोसा.
बांग्लादेश स्थिर रहता तो युनूस का क्या होता?
स्थिर बांग्लादेश में यूनुस महज एक सम्मानित नोबेल पुरस्कार विजेता और सामाजिक अर्थशास्त्री होकर रह जाते. लेकिन अस्थिरता ने उन्हें निर्विवाद अंतरिम शासक के रूप में स्थापित कर दिया. आर्थिक दबाव, निवेशकों की घबराहट और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की शर्तों के बीच सरकार को ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो वॉशिंगटन, ब्रसेल्स, IMF और विश्व बैंक से बात कर सके. यह भूमिका केवल यूनुस निभा सकते थे. इस तरह बांग्लादेश की आर्थिक और कूटनीतिक सांसें एक व्यक्ति के नाम से जुड़ती चली गईं. बांग्लादेश जितना देश अस्थिर होता गया, उतना ही यूनुस मजबूरी बनते गए.
चुनाव न होने तक ही है युनूस की पूछ
सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि चुनाव होने की स्थिति में यूनुस की प्रासंगिकता घटती है, जबकि अस्थिरता में वह बढ़ जाती है. इसीलिए यूनुस एक आग से खेल रहे हैं. चुनाव को लेकर युनूस की हां-ना के बीच बांग्लादेश में फैली अराजकता उनकी कुर्सी को मजबूत करती है. जैसे-जैसे चुनाव टलते हैं, अंतरिम ढांचा लंबा होता जाता है और उसी के साथ यूनुस की भूमिका भी. अब कोई इसे साजिश कहे, या हालात की मजबूरी. युनूस की 'अस्थायी' सत्ता ही स्थायी समाधान बनती जा रही है. वैसे, 12 फरवरी 2025 को बांग्लादेश में आम चुनाव कराए जाने की घोषणा हो चुकी है, लेकिन बार-बार बिगड़ते हालात से चुनाव कराना मुश्किल होता जाएगा.
'अंतरिम' बने रहने में फायदा सिर्फ युनूस का
यूनुस की स्थिति इसलिए भी असाधारण है क्योंकि उनके पास शक्ति है, लेकिन जवाबदेही नहीं. अगर हालात सुधरते हैं तो श्रेय उनके खाते में जाता है और अगर बिगड़ते हैं तो दोष परिस्थितियों पर डाल दिया जाता है. यही असंतुलन संकट में व्यक्ति को अत्यधिक प्रभावशाली बना देता है. बांग्लादेश की सड़कों पर गुस्सा मीडिया, इंस्टीट्यूशंस, अवामी लीग के पुराने नेताओं और भारत के खिलाफ है. यूनुस लगभग अछूते हैं. उन्हें तटस्थ और अस्थायी माना जाता है, और यही धारणा उन्हें सुरक्षित रखती है.
पाकिस्तान में मुनीर भी ऐसे ही बने फील्ड मार्शल
अब यदि इसी पैटर्न को पाकिस्तान में देखा जाए तो तस्वीर अलग होते हुए भी तर्क वही दिखाई देता है. पाकिस्तान में आंतरिक राजनीतिक संकट, आर्थिक बदहाली और संस्थाओं के प्रति अविश्वास के बीच भारत के साथ तनाव हमेशा सेना के लिए जीवनरेखा का काम करता रहा है. भारत के कथित खतरे को पेश करने भर से वहां की सेना 'मसीहा' की भूमिका में आती रही है. पहलगाम हमले और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर से उभरे हालात के चलते पाकिस्तान की स्थानीय राजनीति हाशिये पर चली गई. और आसिम मुनीर उभरते गए. सेनाध्यक्ष से फील्ड मार्शल तक. आजीवन जवाबदेही से दूर, कानून से परे.
भारत-पाक तनाव ने पाकिस्तान में सिक्योरिटी के मुद्दे को राजनीति पर हावी कर दिया. वैसे ही, जैसे बांग्लादेश में भारत द्वारा शेख हसीना को शरण देने का मुद्दा. पाकिस्तान में वास्तविक सत्ता संसद या प्रधानमंत्री कार्यालय से खिसककर सेना मुख्यालय में चली गई, वैसे ही जैसे बांग्लादेश में अस्थायी प्रशासक यूनुस आज सबकुछ हैं. बांग्लादेश में कट्टरपंथियों और छात्रों के भारत-विरोधी प्रदर्शन से सत्ता का पुराना ढांचा ही निशाना बनाता है, लेकिन यूनुस को लगभग अप्रभावित छोड़ देता है. वैसे ही जैसे पाकिस्तान में भारत-विरोधी नैरेटिव सेना और आसिम मुनीर की ताकत बढ़ाता है.
यूनुस और मुनीर में फर्क भी है
मुहम्मद यूनुस और आसिम मुनीर के बीच सबसे बड़ा फर्क उनके पावर स्ट्रक्चर में है. यूनुस सॉफ्ट पावर के प्रतीक हैं. जिसमें शामिल है नैतिकता, संवाद और अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता. जबकि मुनीर हार्ड पावर का प्रतीक हैं. जिसमें आता है सिक्योरिटी, मार्शल लॉ और राष्ट्रवादी वाला नैरेटिव. लेकिन दोनों की ताकत का सोर्स एक ही है- भारत केंद्रित संकट. दोनों निर्वाचित नहीं हैं, फिर भी निर्णायक हैं. अस्थिरता ने उन्हें ऐसी जगह ला दिया है, जहां लोकतांत्रिक राजनीति अप्रासंगिक हो जाती है.
अब इसे युनूस और मुनीर की साजिश कहिए या आपदा में उभरा अवसर. स्थिर लोकतंत्र में सत्ता जनता से आती है, लेकिन जब देश जल रहा हो तो सत्ता 'संकट-मोचकों' के हाथ में चली जाती है. बांग्लादेश में अराजकता ने मुहम्मद यूनुस को मजबूरी बना दिया है और भारत-पाक तनाव ने आसिम मुनीर को राष्ट्रीय सुरक्षा का चेहरा. शांत बांग्लादेश में यूनुस सिर्फ 'नोबेल विजेता' ही कहे जाते और ऐसे ही शांत पाकिस्तान में मुनीर शायद एक सामान्य जनरल होते.
धीरेंद्र राय