सोशल मीडिया बेशक बहुत पावरफुल है. सोशल मीडिया कोई भी नैरेटिव सेट कर सकता है. सोशल मीडिया चुनावों पर कुछ हद तक असर भी डाल सकता है, लेकिन चुनावों में जीत की गारंटी तो नहीं हो सकता है.
बिहार कांग्रेस को ऐसा क्यों लगता है कि जिस नेता के सोशल मीडिया पर ज्यादा फॉलोवर होंगे, चुनाव भी वही जीतेगा?
ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट चाहने वालों के सामने ऐसी ही शर्त रखी गई है.
कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से तय की गई गाइडलाइन के मुताबिक बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार वे नेता ही बन पाएंगे, जिनके सोशल मीडिया पर निर्धारित संख्या से ज्यादा फॉलोवर होंगे. कांग्रेस की तरफ से ये संख्या खास तौर पर तीन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक, इंस्टाग्राम और एक्स (पहले ट्विटर) के लिए तय कर दी गई है.
सबसे बड़ी मुश्किल, चुनाव तक लक्ष्य हासिल कैसे हो
हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी बिहार के तीसरे दौरे पर थे. उसी दौरान 7 अप्रैल को कांग्रेस के सेंट्रल वार रूम के चेयरमैन शशिकांत सेंथिल ने कांग्रेस जिलाध्यक्षों और अन्य नेताओं को एक प्रजेंटेशन दिया था, जिसमें कई तरह की जानकारी दी गई. शशिकांत सेंथिल पूर्व नौकरशाह हैं.
कांग्रेस नेताओं को सोशल मीडिया फॉलोवर बढ़ाने के टिप्स दिये जाने के साथ ही, एक हेल्पनाइन नंबर भी दिया गया. प्रजेंटेशन में वे तरीके भी बताये गये जिन्हें अपनाकर फॉलोवर की संख्या बढ़ाई जा सके. और, किसी तरह की दिक्कत आने पर हेल्पलाइन से मदद भी ली जा सकती है.
बाकी सब तो ठीक है, लेकिन उम्मीदवारी के लिए जो संख्या निर्धारित की गई है, उससे बिहार कांग्रेस में टिकट के दावेदार हद से ज्यादा परेशान हैं. क्योंकि, कांग्रेस नेताओं को एक तरह से साफ कर दिया गया है कि अगर वे सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं हैं, तो टिकट की दावेदारी तो भूल ही जायें.
रिपोर्ट के मुताबिक, विधानसभा चुनाव या जिला कमेटियों के लिए दावेदारी करने वालों को फेसबुक पर कम से कम 1.3 लाख, X पर 50 हजार, और इंस्टाग्राम पर 30 हजार फॉलोअर होने जरूरी हैं.
मुश्किल तो ये भी है कि अगर अभी से बिहार कांग्रेस के नेता अपने सोशल मीडिया मिशन में लग जायें तो भी चुनाव तक लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं लगता. इसी साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं.
फॉलोवर बढ़ाने का एक कारगर उपाय तो यही है कि कांग्रेस का आईटी सेल बिहार के नेताओं के लिए स्पेशल कैंपेन चलाये और लक्ष्य पूरा करने में मददगार बने. एक तरीका पेड-कैंपेन का भी हो सकता है.
अगर पैसे खर्च कर फॉलोवर बढ़ाने की कोशिश की जाये तो लक्ष्य तक पहुंचा भी जा सकता है, लेकिन फॉलो करने वाले लोग बिहार के ही हों, और वोटर भी हों - ये गारंटी तो कोई दे भी नहीं सकता.
और, ऑर्गेनिक तरीके से जीतोड़ मेहनत के बाद भी लक्ष्य हासिल करने के लिए वक्त नहीं बचा है. ऐसे में टिकट के दावेदारों का परेशान होना स्वाभाविक ही है.
करीब डेढ़ दर्जन विधायकों के टिकट तो वैसे ही कट जाएंगे
कांग्रेस के टिकट के दावेदारों के लिए जो सोशल मीडिया पर फॉलोवर की जो संख्या निर्धारित की गई है, उसके मुताबिक माना जा रहा है कि मौजूदा 19 विधायक टिकट से बेदखल किये जा सकते हैं.
अगर ये टिकट काटने का कोई तरीका है तो बात अलग है, लेकिन इस तरीके से तो कांग्रेस को नये उम्मीदवार भी नहीं मिलेंगे. क्योंकि, ज्यादातर कांग्रेस नेता सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं हैं.
एक कन्हैया कुमार ही ऐसे नेता हैं जो नई शर्त के हिसाब से टिकट के दावेदार लगते हैं. सोशल साइट एक्स पर कन्हैया कुमार के 44 लाख और फेसबुक पर 14 लाख फॉलोवर हैं. बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अखिलेश प्रसाद सिंह के फेसबुक पर तो 3.71 लाख फॉलोवर हैं, लेकिन एक्स पर 27.2 हजार ही हैं, जो निर्धारित संख्या के करीब आधे ही हैं - और मौजूदा बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार के तो एक्स पर 5000 फॉलोवर भी नहीं हैं.
कुछ विधायकों के फॉलोवर तो 1000 हजार से भी नीचे हैं, जबकि कई विधायक विधायकों के तो सोशल मीडिया पर अकाउंट भी नहीं बने हैं.
कांग्रेस को उम्मीदवार चाहिये या इंफ्लुएंसर?
बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस नेतृत्व उम्मीदवार खोज रहा है या इंफ्लुएंसर?
जैसे पहले नेताओं की रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए कलाकारों को बुलाया जाता रहा, हाल फिलहाल सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर भी जहां तहां हायर किये जा रहे हैं - लेकिन टिकट पाने के लिए भी ऐसी शर्तें रख दी जाएंगी, सुनने में ही काफी अजीब लगता है.
1. भीड़ कभी वोट में तब्दील होती नहीं दिखी है. बड़े नेताओं की रैलियों में जुटी भीड़ भी मतदान के दिन वोट नहीं देती है. ऐसे कई उदाहरण हैं. यूपी में मायावती, और बिहार के उपचुनावों में लालू यादव को भी बेअसर देखा जा चुका है.
2. सोशल मीडिया के फॉलोवर तो रैलियों वाली भीड़ भी नहीं है. रैलियों में तो कम से कम इलाके और आस पास के लोग जुटते या जुटाये जाते हैं, सोशल मीडिया पर तो दुनिया के किसी कोने से भी लोग जुड़ सकते हैं, जरूरी तो नहीं कि वे वोटर ही हों.
3. हां, परसेप्शन मैनेजमेंट के हिसाब से ये फॉलोवर कहीं कहीं फायदेमंद साबित हो सकते हैं. जीत-हार के अंतर को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन जीत पक्की तो नहीं कर सकते.
4. और पुराने नेता जो अपने इलाके में लोकप्रिय हैं, जमीन से जुड़े हुए हैं - अगर सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं हैं तो क्या वे टिकट नहीं पा सकते?
फिर तो सवाल ये भी उठेगा कि अगर ऐसा ही था तो 2019 में राहुल गांधी अमेठी से हार क्यों गये? राहुल गांधी के फॉलोवर की संख्या स्मृति ईरानी के मुकाबले तो ज्यादा ही हैं.
मृगांक शेखर