देश की राजनीति की तरह बिहार की राजनीति भी हमेशा से जातिगत समीकरणों, गठबंधनों की चालबाजियों से भरी रही है. 2020 के विधानसभा चुनावों में मोदी तुझसे बैर नहीं -पर नीतीश तेरी खैर नहीं का नारा लगाकर जनता दल यूनाइटेड को कम से कम 40 सीटों पर पटखनी दिलाने में महती भूमिका निभाने और अपनी पार्टी लोजपा (आर) को एक सीट पर समेटने वाले चिराग इस बार भी कोई बड़ी सफलता हासिल करते नजर नहीं आ रहे हैं. फिलहाल 2025 विधानसभा चुनावों के एग्जिट पोल्स तो कुछ ऐसा ही कह रहे हैं.
अधिकतर पोल्स एनडीए के स्पष्ट बहुमत की भविष्यवाणी तो कर रहे हैं पर चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को अपेक्षित सफलता नहीं दिखा रहे.
एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल्स के अनुसार, एलजेपी को 7 से 16 सीटें मिल सकती हैं, तो मैट्रीज तो केवल 7 से 9 सीट ही देने को तैयार है. जबकि पार्टी ने 29 सीटों पर दांव लगाया था. यह चिराग के लिए बड़ा झटका हो सकता है. जाहिर है कि कही न कहीं यह चिराग की रणनीति पर प्रश्चचिह्न लगाता है या बिहार की राजनीति में उनकी कमजोरी को दर्शाता है. कुल मिलाकर, यह बिहार के दलित-पासवान वोटों की बिखरी तस्वीर पेश करता है.
चिराग के उम्मीदवारों के लिए वोट ट्रांसफर की विफलता
एनडीए ने चिराग को 29 सीटें दीं, लेकिन बीजेपी और जेडीयू के वोट उनके उम्मीदवारों को उस मात्रा मे वोट ट्रांसफर नहीं होते नहीं दिख रहा है जितनी उम्मीद थी. यह विफलता न केवल चिराग की रणनीति की कमजोरी दर्शाती है, बल्कि गठबंधन की आंतरिक दरारों को भी उजागर करती है. पासवान वोट (5-6% आबादी) का बड़ा हिस्सा बिखरा रहा, जो एनडीए की कुल जीत (120-140 सीटें) में योगदान नहीं दे सका. यह समस्या 2020 के विद्रोह की याद दिलाती है, जब चिराग ने नीतीश को नुकसान पहुंचाया था. अब सहयोगी बनने के बावजूद वोट ट्रांसफर न होना चिराग के लिए सबक है.
वोट ट्रांसफर न होने का सबसे बड़ा कारण जातिगत वफादारी की कमी भी है. बीजेपी का कोर वोट बैंक ऊपरी जातियां (भूमिहार, राजपूत) और जेडीयू का ईबीसी (कुर्मी, यादव) हैं, जो पासवान बहुल क्षेत्रों में चिराग को प्राथमिकता नहीं देते. एग्जिट पोल्स दिखाते हैं कि पासवान वोटों का 40-50% महागठबंधन (आरजेडी) की ओर गया, जबकि एनडीए के अन्य दलों से ट्रांसफर मात्र 20-30% रहा.
पशुपति पारस की लोजपा से चिराग की लोजपा को नुकसान
बिहार 2025 विधानसभा चुनावों में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का विभाजन चिराग पासवान की एलजेपी (आर) के लिए सबसे बड़ा संकट साबित हुआ है. पशुपति कुमार पारस की राष्ट्रीय लोजपा (आरएलजेपी) ने न केवल गठबंधन तोड़ा, बल्कि चिराग के खिलाफ प्रत्यक्ष हमला बोला. अप्रैल 2025 में पारस ने एनडीए छोड़ दिया, और अक्टूबर में अकेले 25 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. एग्जिट पोल्स में चिराग की पार्टी को मात्र 7-9 सीटें मिलने का अनुमान है, जबकि पारस को भी 2-3 सीट मिलने का अनुमान कुछ पोल में दिख रहा है. जाहिर है कि जो वोट कटे हैं वो चिराग के ही कोर वोटर्स हैं.
लोजपा का टूट 2021 में रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद शुरू हुआ. चिराग ने पिता की विरासत संभाली, लेकिन चाचा पारस ने 5 सांसदों के साथ बगावत कर आरएलजेपी बना ली. 2024 लोकसभा में बीजेपी ने चिराग को तरजीह दी, जिससे पारस ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. 2025 में पारस ने महागठबंधन में जाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहने पर वे अकेले उतर आए. उन्होंने चिराग के सभी 29 सीटों पर 'करारी हार' का वादा किया, और बेटे यश राज को एक सीट पर उतारा.
चिराग ने पारस पर 'मां के अपमान' का आरोप लगाया, जबकि पारस ने कहा, 'चिराग को मिट्टी में मिला देंगे. यह परिवारिक कलह पासवान वोट को बांट दिया. पारस की रणनीति ने चिराग को दोहरी मार दी. हाजीपुर, रोसड़ा जैसे पासवान बहुल क्षेत्रों में आरएलजेपी के उम्मीदवारों ने वोट काटे, जिससे एनडीए का ट्रांसफर फेल हो गया. एग्जिट पोल्स (एक्सिस माई इंडिया) में चिराग का वोट शेयर 5% से नीचे रहा. चिराग की युवा अपील कमजोर पड़ी, क्योंकि पारस के पुराने कार्यकर्ता ग्रामीण पासवानों को लुभा रहे.
चिराग की आसमान छूती महत्वाकांक्षाओं ने भी किया बंटाधार
एनडीए को 120-140 सीटों का स्पष्ट बहुमत दिख रहा है, लेकिन चिराग की आसमान छूती महत्वाकांक्षाएं—उपमुख्यमंत्री पद, पासवान वोटों का पूर्ण कंट्रोल और बिहार का 'ट्रंप' बनने के ख्वाब धराशायी होते नजर आ रहे हैं. 2020 के विद्रोह से उभरे चिराग ने खुद को युवा क्रांतिकारी के रूप में पेश किया, लेकिन 2025 में पारिवारिक कलह और गठबंधन की कमजोरियां ने सब बर्बाद कर दिया है.
यह न केवल चिराग की व्यक्तिगत हार है, बल्कि बिहार के दलित-ओबीसी समीकरणों पर भी सवाल खड़े करती है. चिराग की महत्वाकांक्षाएं चुनाव से पहले चरम पर पहुंच गईं थीं. 'मिशन 50' का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा, पासवान भाइयों की एकता बिहार बदलेगी.कई बार ऐसा लगा कि वो खुद को भविष्य के मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझ रहे हैं.
वे संभवतया ये समझ रहे थे कि पहले प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बनेंगे और कुछ समय बाद जब नीतीश (74 वर्षीय)अपने पद से मुक्त हों तो फिर मुख्यमंत्री. 100 से अधिक रैलियां, सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और 'नौजवान पासवान' नारा सब कुछ उनकी युवा अपील पर केंद्रित था. चिराग ने बेरोजगारी, दलित सशक्तिकरण और 'बिहार फर्स्ट' एजेंडे पर फोकस किया. मोदी ने उन्हें 'भाई चिराग' कहा, जो उनकी महत्वाकांक्षा को हवा दे रहा था.
उनकी महत्वाकांक्षा ने पार्टी को ओवरएक्सटेंड कर दिया. फाइनली उन्हें एनडीए से 30 सीटें मिलीं. जिससे पासवान वोटर्स का लगा कि उनके नेता की एनडीए में उतनी पूछ नहीं है जितना चिराग समझते हैं.
प्रशांत किशोर के उदय ने चिराग को नुकसान पहुंचाया
पोल स्ट्रैटेजिस्ट से राजनेता ने 'बदलाव' का नारा देकर युवा और ओबीसी वोटरों को लुभाया, जो चिराग का मुख्य टारगेट था. चिराग की 'मिशन 50' महत्वाकांक्षा धराशायी हुई, क्योंकि जेएसपी ने पासवान और दलित वोटों को बांट दिया. यह नुकसान न केवल सीटों का, बल्कि पासवान समुदाय की एकजुटता का भी है. प्रशांत किशोर ने 2022 में जेएसपी लॉन्च की, और सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे. बेरोजगारी, शिक्षा और 'बिहार फर्स्ट' एजेंडे से उन्होंने युवाओं (बिहार की 60% आबादी) को आकर्षित किया. एग्जिट पोल्स में जेएसपी का वोट शेयर 10-15% रहने का अनुमान है, जो पारंपरिक दलों के कोर वोटर्स से ही आ रहा है.चिराग पासवान के कोर वोटर्स 5 से 6 प्रतिशत ही थे.यदि उसमें से कुछ वोट भी पीके की पार्टी को गए हों तो चिराग का नुकसान होना तय है.
पीके की प्रगतिशील इमेज—कोई परिवारवाद न, पारदर्शिता—ने चिराग की 'युवा पासवान' अपील को छीन लिया।
चिराग पर 'बीजेपी का कठपुतली' का ठप्पा लगा, जबकि पीके ने 'स्वतंत्र बदलाव' का वादा किया। अक्टूबर में चिराग-पीके एलायंस की अफवाहें उड़ीं, लेकिन असफल रहने से चिराग की विश्वसनीयता घटी.
संयम श्रीवास्तव