समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दिल्ली की राह पकड़ ली है. उन्होंने उत्तर प्रदेश की विधानसभा करहल से विधायक के पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया है. मतलब साफ है कि कन्नौज से सांसद के तौर पर अब वे दिल्ली से देश की राजनीति करना चाहते हैं. उन्होंने यूपी में जिस तरह समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भारी विजय दिलाई है अब वो यही कारनामा शायद पूरे देश के लिए करने के लिए कमर कस रहे हैं. उत्तर प्रदेश में चुनाव कैंपेन, सीटों के बंटवारे, प्रत्याशियों के चयन, मुद्दों को चुनने में उन्होंने जो परिपक्वता दिखाई उसी का नतीजा रहा कि भारतीय जनता पार्टी भारी संसाधनों और सघन चुनाव प्रचार के बावजूद 33 सीट पर सिमटकर रह गई. जाहिर है कि अखिलेश यादव से विपक्ष की उम्मीदें भी बढ़ गई होंगी. ये भी तय है कि इंडिया गठबंधन का एक गुट जो कांग्रेस और राहुल गांधी के पक्ष में नहीं रहता है वो भी चाहेगा कि अखिलेश यादव मुख्य भूमिका में आएं. इस तरह यह तय है कि राहुल गांधी के लिए अखिलेश एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरने वाले हैं.
1-यूपी में कांग्रेस के बिग ब्रदर वाली भूमिका में समाजवादी पार्टी
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जो सफलता मिली है उसमें समाजवादी पार्टी की बड़ी भूमिका रही है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में चुनाव के पहले तक कोई आधार नहीं रह गया था. पिछले चुनावों में अमेठी में राहुल गांधी की हार हुई थी. कांग्रेस से केवल सोनिया गांधी ही चुनाव जीत सकीं थीं. उनके भी जीत का मार्जिन काफी कम हो गया था. यहां तक कि 2024 लोकसभा चुनावों में रायबरेली और अमेठी की जीत बिना समाजवादी पार्टी के संभव नहीं थी. 2022 के विधानसभा चुनावों में रायबरेली और अमेठी संसदीय सीटों के अंतर्गत आने वाले विधानसभा सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों को कई सीटों पर तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा था. इन दोनों सीटों पर बीजेपी से अधिक समाजवादी पार्टी के विधायक चुने गए थे. प्रदेश में कांग्रेस को कई सीटों पर प्रत्याशी नहीं मिल रहे थे. कई नेताओं ने चुनाव तक लड़ने से मना कर दिया था. पर समाजवादी पार्टी का पीडीए समीकरण का जादू इस तरह मतदाताओं के सर चढ़कर बोला कि बीजेपी कैंडिडेट हवा में उ़ड़ गए. समाजवादी पार्टी की इस आंधी का फायदा कांग्रेस कैंडिडेट को भी हुआ और पार्टी ने 17 सीटों में से 6 जीत लीं.
2.इंडिया गठबंधन में सबसे परिपक्व फैसले अखिलेश ने ही लिये
इंडिया गठबंधन में कई पार्टियों के नेता शामिल हुए पर उनमें एक बात कॉमन दिखी कि कोई भी अपनी पार्टी की कीमत पर सीट शेयरिंग करने को तैयार नहीं था. सभी नेता अपने अहंकार और दंभ में इतने अंधे थे कि कई जगहों पर सीट शेयरिंग होते -होते रह गई. खुद यूपी में अगर सीट शेयरिंग हुई तो वह राहुल गांधी या कांग्रेस के चलते न होकर अखिलेश की सूझबूझ के चलते संभव हुई. मध्यप्रदेश में कांग्रेस थोड़ी मजबूत क्या थी कि वहां विधानसभा चुनाव के लिए सीट शेयरिंग की बात पर अखिलेश यादव का जो मजाक बनाया गया, वो किसी से छिपी बात नहीं है. मध्य प्रदेश के नेताओं ने तो अखिलेश के बारे में भला बुरा कहा ही, यूपी के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने भी अखिलेश को नहीं बख्शा. इन सबके बावजूद भी अखिलेश ने दरियादिली दिखाई. कांग्रेस को 17 सीटें यूपी में अखिलेश ने दी तो यह उनका बड़प्पन ही था.
अखिलेश यादव ने न केवल कांग्रेस को 17 सीटें दी बल्कि एक सीट तृणमूल कांग्रेस को भी दी (बंगाल में सीट की सौदेबाजी किए बिना). बंगाल में टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी कांग्रेस को केवल 2 सीट ही देने पर राजी थीं और कांग्रेस ने उसे स्वीकार नहीं किया, यह दोनों पार्टी के नेताओं का अहंकार ही था. इन दोनों नेताओं में कोई भी एक अखिलेश यादव जैसा रहा होता तो ये नौबत नहीं आती. अखिलेश यादव ने जिस तरह का बड़प्पन यूपी में दिखाया उसी तरह का व्यवहार ममता बनर्जी बंगाल में, आम आदमी पार्टी पंजाब में दिखा सकती थी.
3. अखिलेश की पूछ पैन इंडिया है, बंगाल से लेकर दक्षिण भारत तक...
राहुल गांधी की तरह अखिलेश यादव भी पैन इंडिया लीडर बनते नजर आ रहे हैं. हिंदी भाषी प्रदेशों में पहले से ही समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट खड़े होते रहे हैं. महाराष्ट्र में पार्टी का बहुत बढ़िया बेस है. बिहार-झारखंड और बंगाल में भी अखिलेश यादव अपनी पार्टी का विस्तार कर सकते हैं. सबसे बड़ी बात ये भी है कि पार्टी का विस्तार भले न हो अखिलेश यादव को इन राज्यों में जानने वालों और सुनने वालों की कमी नहीं है. सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि तमिलनाडु की द्रमुक सरकार ने भी एक बार उन्हें राहुल गांधी के बजाय ज्यादा महत्व दिया था. पिछले साल की ही बात है पूर्व प्रधानमंत्री और मंडल मसीहा विश्वनाथ प्रताप सिंह की आदमकद मूर्ति का अनावरण तमिलनाडु में होना था. इस मूर्ति के अनावरण के लिए स्टालिन की द्रमुक सरकार ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी की बजाय समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को चुना. मतलब साफ है कि दक्षिण में भी अखिलेश को चाहने वाले हैं.
4-गठबंधन नेताओं के बीच राहुल के मुकाबले अखिलेश को मिल रही तवज्जो
लोकसभा चुनावों का रिजल्ट आने के बाद सबसे अधिक डिमांड में अखिलेश यादव ही थे. ममता बनर्जी ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को राहुल गांधी से बातचीत करने की बजाय अखिलेश यादव के पास भेजा. इसी तरह महाराष्ट्र से उद्धव ठाकरे ने भी अपने दूत को अखिलेश यादव से मिलने के लिए भेजा था. राजनीतिक विश्लेषक सौरभ दुबे कहते हैं कि राहुल गांधी के मुकाबले अखिलेश यादव को गठबंधन के लोग अपने ज्यादा नजदीक पाते हैं. गठबंधन की समझ भी राहुल गांधी के मुकाबले अखिलेश को ज्यादा है. गठबंधन में एक मात्र अखिलेश यादव ही हैं जो कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के बाकी सदस्यों के बीच कड़ी भी हैं.
5. संसद में राहुल के बराबर होगी अखिलेश की आवाज
जहां तक विपक्षी नेता के तौर पर बात रखने की बात है, निसंदेह अखिलेश यादव कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर भारी पड़ेंगे. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह खुद पांच साल मुख्यमंत्री रहे हैं और करीब सात सालों से यूपी में विपक्ष के नेता हैं. एक बात और है कि वो समाजवादी पार्टी के सर्वे सर्वा और हिंदी पट्टी में 37 सांसदों के साथ वह सबसे ताकतवर दल के रूप में उभरे हैं. उत्तर भारत में यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्यों को जितनी बेहतर आवाज अखिलेश यादव देंगे, उतना राहुल गांधी कभी नहीं दे पाएंगे. क्योंकि राहुल के मुकाबले अखिलेश की भाषा पर पकड़ ज्यादा मजबूत है. राजनीतिक विश्वेषक सौरभ दुबे कहते हैं कि राहुल कई बार बोलते बोलते कुछ ऐसा बोल जाते हैं जो कि उन्हें नहीं बोलना चाहिए था. कांग्रेस पार्टी के दूसरे नेता बाद में उनको बचाते फिरते हैं. पर अखिलेश यादव के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है. कभी उनकी न जुबान फिसली है और न ही कभी उनके बयान पर विवाद पैदा हुआ है. लोकसभा में शायद अपने इन्हीं गुणों की बदौलत अखिलेश यादव राहुल गांधी पर भारी पड़ेंगे.
संयम श्रीवास्तव