शिरोमणि अकाली दल के संरक्षक और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का मंगलवार रात निधन हो गया. उन्होंने मोहाली के फोर्टिस अस्पताल में 95 साल की उम्र में अंतिम सांस ली. प्रकाश सिंह बादल पंजाब की सियासत के सबसे बड़े चेहरों में से एक थे और उनके निधन से सुखबीर सिंह बादल को बड़ा राजनीतिक झटका लगा है. ऐसे में सुखबीर बादल ने सिर्फ अपने पिता नहीं खोया, बल्कि अपने सबसे बड़े संकटमोचक को भी गंवा दिया है.
पंजाब की सियासत के एक युग का अंत
प्रकाश सिंह बादल पंजाब की सियासत के बरगद थे, जिनके आगे बड़े-बड़े सियासी धुरंधर भी बौने पड़ जाते थे. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी एक समय कांग्रेस छोड़ अकाली दल का दामन थाम लिया था. प्रकाश सिंह बादल के निधन से पंजाब की राजनीत में एक युग अंत हो गया है. 95 साल की उम्र तक सियासत में सक्रिय रहने के कारण उन्हें राजनीति का दिग्गज कहा जाता था. उन्होंने 20 साल की उम्र में 1947 में सरपंच का चुनाव जीतकर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था. इसके बाद वह दस बार विधायक और पांच बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने.
बादल ने अकाली दल को साधे रखा
प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब में सियासत की नई बयार लाई थी. एक बार अकाली दल की कमान संभाली तो उन्होंने पार्टी के भीतर किसी को सिर उठाने नहीं दिया. ऐसे में अकाली दल के अलग-अलग गुटों में भले ही प्रकाश सिंह बादल के लिए कभी नरम तो कभी गरम वाले तेवर रहे हों, लेकिन उनकी गैरमौजूदगी की चिंता अब उन्हें भी सताएगी. बादल के नाम पर सारे गुट आपसी मतभेद भुलाकर एकजुट होते थे, उनकी कमी बादल परिवार के साथ-साथ शिरोमणि अकाली दल को खलने वाली है. ऐसे में सुखबीर बादल के लिए अपने पिता प्रकाश सिंह बादल की विरासत को बचाना बड़ी चुनौती होगी.
सुखबीर के सिर से उठा पिता का साया
प्रकाश सिंह बादल जीवन या राजनीति के क्षेत्र में आसानी से हार मानने वाले नेताओं में से नहीं थे. ऐसे में हर एक संकट का उन्होंने हिम्मत के साथ सामने किया और उससे पार पाया, लेकिन उन्होंने दुनिया को ऐसे समय अलविदा कहा है जब पार्टी और परिवार को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी. अकाली दल के पंजाब की सत्ता से छह सालों से बाहर है और बीजेपी का साथ भी छूट गया है तो पार्टी के तमाम दिग्गज नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. 2022 में पार्टी का राजनीतिक आधार भी पूरी तरह से खिसक चुका है. ऐसे में सुखबीर बादल के लिए अकाली दल की वापसी कराना आसान नहीं होगा.
अकालियों के कई गुट हैं जिन्हें प्रकाश सिंह बादल अपनी सूझबूझ से एकजुट रखे हुए थे. उनके जाने के बाद उनकी सियासी वारिस सुखबीर बादल और हरसिमरत कौर बादल उन्हें एकजुट नहीं रख पाएंगे. रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा के नेतृत्व वाली अकाली दल (टकसाली), सुखदेव सिंह ढींडसा के नेतृत्व वाली एसएडी (लोकतांत्रिक) या अकाली दल (संयुक्ता) जैसे गुटों को इकट्ठा करना बड़ी चुनौती होगी. सिख राजनीति के लिए बनी इकलौती पार्टी अब नेतृत्व संकट से गुजरेगी, क्योंकि प्रकाश सिंह बादल अंतिम वक्त तक राजनीति में सक्रिय रहे. वह पार्टी के लिए बैकअप प्लान तैयार करते रहे. अब उनके जाने के बाद अकाली दल का भविष्य संकट में नजर आ रहा है.
सुखबीर के दौर में गिरा पार्टी का ग्राफ
सुखबीर बादल ने 1990 के दशक के मध्य में राजनीति में कदम रखा. सुखबीर, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 1998 और 1999 में उद्योग राज्य मंत्री थे. वे 2008 में पार्टी के अध्यक्ष बने और 2009 में उप मुख्यमंत्री. तीसरी बार अकाली दल के अध्यक्ष हैं. 2017 के चुनावों में अकाली दल को बुरी तरह से पराजित होना पड़ा और 2022 में उससे भी बुरी हार मात खानी पड़ी है, क्योंकि आम आदमी पार्टी पहले मुख्य विपक्ष के रूप में उभरी और सत्ता पर काबिज. सुखबीर बादल के तीन दशक के सियासी सफर में एक बार ही पार्टी को जीत दिला सके, लेकिन उसके बाद से सियासी संकट गहराता जा रहा है.
अकाली दल के तमाम अनुभवी नेता सुखबीर बादल के खिलाफ विद्रोह कर पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. प्रकाश सिंह बादल की विरासत संभाल रहे सुखबीर बादल को सौ साल पुरानी पार्टी की विरासत को बनाए रखने की चुनौती है, क्योंकि प्रकाश सिंह बादल के रहते अकाली दल छोड़कर अगर किसी ने अलग अकाली दल बनाया तो वह सफल नहीं हो पाया था. कई नेताओं ने पार्टी छोड़कर अकाली दल का गठन करना चाहा, लेकिन सफल नहीं हो पाए.
बादल की रणनीति कैसे रही सफल?
प्रकाश सिंह बादल की राजनीतिक सूझबूझ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने पंजाब में सिख वोटरों को बीजेपी जैसी हिंदूवादी पार्टी के साथ रहते हुए साधे रखा रखा. पंजाब में दो दशकों से अधिक समय तक उग्रवाद के बाद, अकाली दल ने 1997 के विधानसभा चुनावों में हिंदू-सिख भाईचारे के मुद्दे पर बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया और इसकी पहल प्रकाश सिंह बादल ने की थी. उन्होंने इसे नाखून व मांस का रिश्ता बताया था. इस तरह पंजाब के साथ-साथ केंद्र की सत्ता में भी पार्टी को हिस्सेदारी दिलाई.
सुखबीर नहीं संभाल पा रहे विरासत
सुखबीर बादल के हाथों में पार्टी के कमान आने के बाद पंजाब की सत्ता तो गंवाया ही और साथ ही केंद्र की सत्ता से भी दूर हो गई है. हालांकि, बीजेपी से राजनीतिक गठबंधन टूटा लेकिन रिश्ते बरकरार रहे. अब अकाली दल में इसकी कमी जरूर खलेगी. सुखबीर सिंह बादल के हाथ में जब से पार्टी की कमान आई है, तब से अकाली दल का परफॉरमेंस लगातार गिर रहा है.
अकाली दल के कमजोर होने का राजनीतिक फायदा बीजेपी को मिल सकता है. आने वाले दिनों में बीजेपी इसे पूरी तरह से भुनाने की भी कोशिश कर सकती है. राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो बीजेपी जिस तरह से यूपी में मुलायम सिंह यादव को एक विशेष पार्टी के छवि से बाहर निकालकर समाजवादी नेता के तौर पर पेश किया, उसी तरह प्रकाश सिंह बादल को भी पंजाब में भाईचारे के मिसाल की तौर पर पेश कर सकती है. माना जा रहा है इसी मद्देनजर मोदी सरकार ने प्रकाश सिंह बादल के निधन पर दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया है. ऐसे में देखना है कि सुखबीर बादल अपने पिता की विरासत को संभाल पाने में कितने हद तक सफल हो पाते हैं.
कुबूल अहमद