'वंदे मातरम' पर बहस... मुसलमानों को राष्ट्रीय गीत गाने में क्यों दिक्कत है?

देश के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम पर सोमवार को संसद में चर्चा होनी है. इस गीत को लेकर सड़क से संसद तक माहौल गर्मा गया है, क्योंकि मुस्लिम समुदाय वंदे मातरम गाने से साफ इनकार कर रहे हैं. इस्लामी स्कॉलरों का कहना है कि किसी भी सूरत में इस गीत को नहीं पढ़ेंगे, क्योंकि ये इस्लामी सिद्धांत के खिलाफ है. सवाल उठता है कि आखिर क्या-क्या दिक्कतें हैं?

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वंदे मातरम पर संसद में चर्चा (Photo-ITG) वंदे मातरम पर संसद में चर्चा (Photo-ITG)

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली,
  • 08 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:17 AM IST

भारत का राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' 150 साल पहले लिखा गया था. डेढ़ सौ साल पहले लिखे गए इस गीत को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है. 'वंदे मातरम' के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में संसद में विस्तृत और विशेष चर्चा होगी. पीएम मोदी ने पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस पर आरोप लगाया था कि 'वंदे मातरम' की आत्मा को तोड़कर अलग कर दिया गया, इस विभाजन ने ही देश के विभाजन के बीज बो दिए थे.

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वहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश के सभी स्कूलों में 'वंदे मातरम' के गायन को अनिवार्य करने का ऐलान कर कहा कि कोई भी धर्म राष्ट्र के ऊपर नहीं है. इसके बाद विवाद खड़ा हो गया. जमीयत उलमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी ने कहा है कि 'वंदे मातरम' को अनिवार्य बनाने का तरीका उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं है तो सपा सांसद जियाउर्रहमान बर्क ने कहा कि 'वंदे मातरम' गीत में हमारे मजहब के खिलाफ शब्द हैं, इसलिए हम इस गीत को नहीं गाएंगे.

सवाल उठता है कि आखिर देश के मुसलमानों को 'वंदे मातरम' गीत गाने से क्यों दिक्कत है? इस गीत को पढ़ने से क्यों इनकार करते हैं? इस गीत में आखिर इस्लाम में टकराव का बिंदु कहां है और क्या है? इन सारे मामले को लेकर aajtak.in ने इस्लामी स्कॉलर मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी और मुफ्ती ओसामा नदवी से लेकर कई मुस्लिम बुद्धजीवियों से समझने की कोशिश की और जाना कि आखिर मुसलमानों को दिक्कत क्या है?

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इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ-नोमानी

मौलाना हमीद नोमानी कहते हैं कि 'वंदे मातरम' बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंद मठ' का एक अंश है. इसकी तमाम पंक्तियां इस्लाम के धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ हैं, जिसके चलते मुसलमान इस गीत को गाने से परहेज करता है. 'वंदे मातरम' गीत का पूरा अर्थ- 'मां, मैं तेरी पूजा करता हूं ' 'तुम जल से परिपूर्ण, फलों से समृद्ध, मलय पवन से शीतल, और हरी-भरी फसलों से ढकी हुई हो. मां, मैं तुम्हें वंदन करता हूं...'

यह मौजूदा गीत है, लेकिन इस गीत की शुरुआती पांच छंदों को हटा दिया गया था, जब उन्हें देखेंगे तो साफ जाहिर होता है कि यह गीत हिंदू देवी माता दुर्गा की स्तुति में गाया गया है, न कि भारत की मातृभूमि के लिए है.

'दुर्गा के स्तुती में लिखा गया वंदे मातरम'

नोमानी कहते हैं कि इस्लाम एकेश्वरवाद पर टिका एक मजहब है, जो एक अदृश्य ईश्वर की कल्पना कर उसकी उपासना करता है. उसके अलावा वो किसी भी सत्ता से इनकार करता है. एक देश या फिर मां की भी पूजा करना, इस एकेश्वरवाद के सिद्धांत से टकराव पैदा कर देता है. 'वंदे मातरम' गीत में मां के आगे सर झुकाने और उसकी पूजा करने की बात की जा रही है.

वह कहते हैं कि इस गीत में पूरी तरह दुर्गा की आराधना करने की बात कही जा रही है, जबकि इस्लाम एक अदृश्य ईश्वर/ अल्लाह के सिवा किसी के सामने अपना सर झुकाने/ सजदा करने या पूजा करने से रोकता है.

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उनका कहना था कि बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस गीत को मुस्लिम विरोध में लिखा था. गीत में देवी-देवताओं की आराधना है, जबकि इस्लाम में मूर्ति-पूजा हराम है. 'वंदे मातरम' का पूरा गीत देखें तो उसमें मंदिर का जिक्र है और दो जगह पर दुर्गा की बात कही गई. यह गीत अंग्रेजों और मुसलमानों के खिलाफ युद्ध करने के लिए निकलने वाले संतों की प्रशंसा करते हुए, मुसलमानों को कमतर दिखाया गया था, और ऊपर से जब ये संत ना केवल मातृभूमि की संतान थे, बल्कि देवी काली की भी संतान थे?

'मुस्लिमों की दिक्कत को टैगोर-बोस ने समझा था'

मुसलमानों को 'वंदे मातरम' गीत को गाने से दिक्कत है. इस बात को समझते हुए रबीन्द्रनाथ टैगोर ने 1937 में सुभाष चंद्र बोस को पत्र लिखकर कहा था कि इस गीत को सभी के लिए अनिवार्य न किया जाए, क्योंकि गीत में मंदिर और दुर्गा आई हैं. ऐसे में मुसलमानों को यह स्वीकार नहीं होगा. इसी सिफारिश के चलते 'वंदे मातरम' गीत के सात छंदों में से पांच हटा दिए गए और दो छंद को रखा गया, लेकिन उसमें भी मां की वंदना की बात है. यह एक सेकुलर मुल्क है और सभी धर्म को अपने-अपने धर्म के हिसाब से पूजा करने और इबादत करने की आजादी है, तो 'वंदे मातरम' गीत के जरिए हमारे ऊपर पूजा करने को क्यों थोपा जा रहा है.

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मुस्लिम सिर्फ अल्लाह की इबादत करता है: नदवी

इस्लामी स्कॉलर मुफ्ती ओसामा नदवी बताते हैं कि मातृ भूमि के सम्मान में मुसलमानों को कहीं कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन दिक्कत तब होती है जब हम इसे पूजा, इबादत के रूप में देखते हैं. मुस्लिम समुदाय के लिए अल्लाह सिर्फ एक है, उसी की पूजा-इबादत की अनुमति इस्लाम देता है. इस्लाम में माता-पिता को भगवान का दर्जा नहीं दिया गया है, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोग भी अपने पैरेंट्स का सम्मान करते हैं. जबकि हिन्दू समुदाय में पैरेंट्स को भगवान का दर्जा है. धरती की पूजा हिंदू समाज देवी मां के रूप में करता रहा है. दिक्कत सिर्फ इसलिए होती है और कुछ भी ठोस बात नहीं है.

ओसामा नदवी भी कहते हैं कि 'वंदे मातरम' के बहाने भारत मां की आड़ में एक तरह से दुर्गा माता का स्तुति गान किया गया है. हिंदूवादी संगठन शुरू से ही भारत के नक़्शे में एक देवी की तस्वीर लगाकर इसे भारत मां कहते रहे हैं, जिससे मुसलमान आशंका से भर जाते हैं कि वो भारत माता के नाम पर किसी देवी की उपासना या स्तुति गान करते हैं। इसलिए मुसलमान इसे गाने से परहेज करते हैं.

वंदे मातरम गीत को पढ़ना क्या शिर्क है?

'वंदे मातरम' को लेकर मुफ्ती ओसामा नदवी कहते हैं कि संस्कृत शब्द 'वंदे' का मूल शब्द 'वंद' है, जो ऋग्वेद में आता है, जिसका अर्थ है 'स्तुति करना, उत्सव मनाना, प्रशंसा करना, आदरपूर्वक अभिवादन करना'. 'मातरम' शब्द का इंडो-यूरोपीय मूल है 'मातर-' (संस्कृत), 'मीटर' (ग्रीक), 'माटर' (लैटिन) जिसका अर्थ है मां. इस तरह 'वंदे मातरम' जिसे मूल रूप से 'बंदे मातरम' उच्चारित किया जाता है, इसका अर्थ है मां मैं आपकी स्तुति करता हूं. इस गीत का उच्चारण करना मुसलमानों के लिए 'शिर्क' की तरह है, 'शिर्क' का मतलब खुदा के बराबर किसी को खड़ा करना.

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वह कहते हैं कि अल्लाह के अलावा किसी और की या किसी चीज की पूजा करने का पाप है. इस्लाम धर्म में सबसे बड़ा अक्षम्य अपराध 'शिर्क' है. इस पूरे गीत से मुसलमानों की इस्लामिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है. मुसलमान इससे धार्मिक कारणों से परहेज़ करते हैं. इस्लाम में 'तौहीद' (अल्लाह एक) मूल सिद्धांत है, यानी इस्लाम अल्लाह के अलावा किसी अन्य के आगे सिर झुकाने या उसकी पूजा करने पर रोक लगाता है. इस गीत में भारत को 'देवी' के रूप में चित्रित किया गया है (जैसे दुर्गा की स्तुति). इसीलिए मुसलमानों को गीत गाने से दिक्कत है. हर मुसलमान अपने वतन से प्यार करता है. इसमें उसे किसी तरह के दिखावा करने की ज़रूरत नहीं है.

'वंदे मातरम' पढ़ने से इस्लाम टकराव: मदनी

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी कहते हैं कि 'वंदे मातरम' के कुछ हिस्सों में मातृभूमि को देवी दुर्गा के रूप में पूजा गया है, जो इस्लामी आस्था से मेल नहीं खाता है. मुसलमान सिर्फ एक खुदा की इबादत करते हैं. किसी दूसरे रूप में पूजा करना या देवी-देवता के रूप में वंदना करना हमारे धर्म के खिलाफ है. इसलिए ‘वंदे मातरम’ को अनिवार्य बनाना मुसलमानों की धार्मिक आजादी का हनन है. संविधान का आर्टिकल 25 हर नागरिक को अपने धर्म को मानने और पालन करने की स्वतंत्रता देता है, जबकि आर्टिकल 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. इस लिहाज से किसी स्टूडेंट या नागरिक को किसी गीत या नारे के लिए मजबूर करना संवैधानिक रूप से गलत है.

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वंदे मातरम पढ़ने से इस्लामी अकीदे पर असर

शिया मुसलमानों के उलेमा मौलाना सैफ अब्बास कहते हैं कि संविधान ने उन्हें यह हक दिया है कि वह 'वंदे मातरम' गाएं या न गाएं. हम 'जन गण मन' गाते हैं, लेकिन हमारे ऊपर 'वंदे मातरम' क्यों थोपा जा रहा है? ये इस्लाम और संविधान दोनों के नियमों के खिलाफ है. इसका देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं है. माहौल खराब करने के लिए इस तरह की कंट्रोवर्सी पैदा की जाती है. 'वंदे मातरम' का सीधा मकसद भारत माता या किसी प्रतीकात्मक दुर्गा माता की स्तुति करना है, तो इस्लामी अकीदे पर इसका असर पड़ता है.

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