हिंदी भाषी वोटों की मजबूरी? अचानक मराठी विवाद भड़काकर उद्धव और राज बैकफुट पर कैसे दिखने लगे

मराठी विवाद के बीच अब उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के तेवर नरम पड़ते नजर आ रहे हैं. उद्धव बार-बार यह सफाई दे रहे हैं कि हम हिंदी के खिलाफ नहीं हैं. वहीं, राज भी बैकफुट पर नजर आ रहे हैं. इसके पीछे क्या है?

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उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे (फोटोः पीटीआई) उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे (फोटोः पीटीआई)

बिकेश तिवारी

  • नई दिल्ली,
  • 09 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 11:53 AM IST

महाराष्ट्र में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किए जाने के विरोध से शुरू हुआ विवाद अब मराठी बनाम गैर-मराठी की शक्ल ले चुका है. हिंदी विवाद के बीच राज ठाकरे की अगुवाई वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के समर्थकों ने एक दुकानदार की केवल इसलिए पिटाई कर दी थी, क्योंकि वह मराठी नहीं बोल रहा था.

इस घटना के बाद यूपी, बिहार और महाराष्ट्र के नेताओं में जुबानी जंग छिड़ गई. भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे ने ठाकरे बंधुओं को यूपी-बिहार आने की चुनौती दे दी और कहा कि पटक-पटक कर मारेंगे. बीजेपी के ही पूर्व सांसद दिनेश लाल यादव निरहुआ ने भी मोर्चा खोल रखा है.

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यूपी और बिहार बनाम महाराष्ट्र, नेताओं की इस त्रिकोणीय जुबानी जंग के बीच उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, दोनों भाई बैकफुट पर नजर आ रहे हैं. उद्धव ठाकरे पहले दिन से सफाई दे रहे हैं कि हम हिंदी या किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं हैं, हमारा विरोध कोई भाषा थोपे जाने के खिलाफ है. विवाद गहराने के बाद अब राज ठाकरे ने भी अपनी पार्टी के नेताओं को कुछ भी बोलने से बचने की ताकीद की है. ठाकरे बंधुओं के सुर में नरमी के पीछे क्या है?

हिंदी भाषी वोटों की मजबूरी

महाराष्ट्र में जल्द ही बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) और अन्य निकायों के चुनाव होने हैं. शिवसेना के विभाजन के बाद उद्धव ठाकरे के सामने बीएमसी पर अपनी बादशाहत बनाए रखने की चुनौती है. राज ठाकरे के साथ उद्धव की हालिया कैमिस्ट्री को भी बीएमसी चुनाव से जोड़कर ही देखा जा रहा है. बीएमसी के तहत आने वाले मुंबई और मुंबई उपनगर में ही हिंदी भाषियों की आबादी अनुमानों के मुताबिक 35 लाख से अधिक है.

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शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे (फोटोः PTI)

बीएमसी के तहत आने वाले ठाणे, कल्याण, वसई विरार, नवी मुंबई और पालघर जैसे इलाकों की कुल आबादी में भी एक बड़ा हिस्सा हिंदी भाषियों का है. मुंबई की सियासत में हिंदी भाषी कितने मजबूत हैं, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले साल हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में तकरीबन हर दल ने किसी न किसी उत्तर भारतीय को उम्मीदवार बनाया था. बीजेपी ने कालीना से अमरजीत सिंह, बोरीवली से संजय उपाध्याय, वसई से स्नेहा दुबे और गोरेगांव से विद्या ठाकुर को टिकट दिया था.

कांग्रेस ने चांदीवली से मोहम्मद आरिफ नसीम खान, नालासोपारा से संदीप पांडे, चारकोप से यशवंत सिंह और मलाड वेस्ट से असलम शेख को उम्मीदवार बनाया था. बीजेपी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल शिवसेना (शिंदे) ने दिंडोशी से संजय निरूपम के रूप में हिंदी भाषी चेहरा चुनाव मैदान में उतारा था.

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) ने मानखुर्द शिवाजी नगर से नवाब मलिक, अणुशक्ति नगर से सना मलिक और बांद्रा ईस्ट से जीशान सिद्दीकी के रूप में तीन उत्तर भारतीयों पर दांव लगाया था. मानखुर्द शिवाजी नगर से अबू आसिम आजमी, एनसीपी (एसपी) ने अणुशक्ति नगर से फहाद अहमद को टिकट दिया था.

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विधानसभा चुनाव से सबक, बीएमसी पर नजर

एनडीए ने विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) के मुकाबले अधिक हिंदी भाषी नेताओं को टिकट दिया था और इसका उसे फायदा भी मिला. हिंदी भाषी मतदाताओं के बीच एनडीए को अधिक समर्थन मिला और नतीजा प्रचंड जीत के साथ गठबंधन सत्ता में वापसी करने में सफल रहा. महाराष्ट्र चुनाव से सबक लेकर उद्धव ठाकरे बीएमसी चुनाव से पहले हिंदी भाषी मतदाताओं को नाराज करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहते.

शिवसेना (यूबीटी) विधायक आदित्य ठाकरे (फोटोः PTI)

हिंदी विरोध से कई निकायों में हो सकता है नुकसान

महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदी भाषी मजबूत पकड़ रखते आए हैं. सूबे की सरकारों में नवाब मलिक, कृपाशंकर सिंह, विद्या ठाकुर, मोहम्मद आरिफ नसीम खान, चंद्रकांत त्रिपाठी और डॉक्टर राममनोहर त्रिपाठी  जैसे हिंदी भाषी चेहरे प्रभावशाली मंत्री रहे हैं. मुंबई के साथ ही सूबे के दूसरे प्रमुख शहरों में भी हिंदी भाषियों की आबादी अच्छी खासी है.

यह भी पढ़ें: कैसे खिसकती गई ठाकरे परिवार की सियासी जमीन? उद्धव और राज ऐसे ही नहीं छेड़ रहे 'मराठी वॉर'

औरंगाबाद, नागपुर, पुणे, नासिक जैसे शहरों में भी हिंदी भाषी मतदाता शहर की सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. हिंदी विरोध की सियासत बीएमसी के साथ ही करीब आधा दर्जन से अधिक निकायों में शिवसेना (यूबीटी) की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकती है.

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आदित्य ठाकरे के सीट की भी है मजबूरी

शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे वर्ली विधानसभा सीट से विधायक हैं. वर्ली सीट 1990 से ही ठाकरे परिवार का गढ़ है, शिवसेना के पास है. उद्धव ठाकरे हिंदी का विरोध करते हुए भी हिंदी विरोधी नहीं नजर आने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं, तो इसके पीछे वर्ली की राजनीति भी प्रमुख वजह है.

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वर्ली विधानसभा क्षेत्र में गैर मराठी आबादी अच्छी खासी है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा हिंदी भाषी मतदाताओं का है. यही वजह है कि आदित्य ठाकरे ने चुनाव प्रचार के दौरान कई भाषाओं में पोस्टर छपवाए थे. वर्ली विधानसभा क्षेत्र में हिंदी भाषियों का मजबूत चुनावी दखल आज कोई नई बात नहीं है. आजादी के बाद 1951 में हुए विधानसभा चुनाव में पंडित भगीरथ झा चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे.

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