कानूनी लूपहोल जिनका फायदा उठाकर सेंगर जैसे नेता रेप केस में भी जमानत पा जा रहे? क्यों बदलाव जरूरी

दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्नाव रेप मामले में दोषी पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबित कर दी. कोर्ट ने कहा कि सेंगर तकनीकी रूप से ‘लोक सेवक’ नहीं थे, इसलिए उन पर लोक सेवकों के लिए तय कड़ी सजा लागू नहीं होगी. इस फैसले ने कानून की परिभाषा और जवाबदेही पर बहस छेड़ दी है.

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पूर्व जजों और एक्सपर्ट्स ने कुलदीप सिंह सेंगर मामले पर अपनी राय दी है. (File Photo: ITG) पूर्व जजों और एक्सपर्ट्स ने कुलदीप सिंह सेंगर मामले पर अपनी राय दी है. (File Photo: ITG)

अनीषा माथुर

  • नई दिल्ली,
  • 26 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 8:01 AM IST

दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में उन्नाव रेप कांड के दोषी और पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की जेल की सजा निलंबित करके उसे बड़ी राहत दी है. कोर्ट ने 1984 के एआर अंतुले मामले के ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए सेंगर को तकनीकी रूप से 'लोक सेवक' मानने से इनकार कर दिया है. 

भारतीय दंड संहिता और पॉक्सो कानून की मौजूदा परिभाषा के मुताबिक, सांसद या विधायक सरकारी कर्मचारी की कैटेगरी में नहीं गिने जाते हैं. इस कानूनी स्थिति की वजह से सेंगर को उस कड़ी सजा के प्रावधानों से छूट मिल गई है, जो केवल लोक सेवकों पर लागू होते हैं. 

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यह फैसला सत्ता के उच्च पदों पर बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने वाले विशेष कानूनों के मूल उद्देश्य पर सवाल खड़े कर रहा है.

क्यों जरूरी है 'लोक सेवक' की परिभाषा?

भारतीय आपराधिक कानूनों में 'लोक सेवक' यानी पब्लिक सर्वेंट की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. रेप या अन्य गंभीर अपराधों से जुड़े विशेष कानूनों में लोक सेवकों की जवाबदेही को सामान्य नागरिक की तुलना में ऊंचे पायदान पर रखा गया है. अक्सर लोक सेवक द्वारा किए गए आपराधिक कृत्यों के लिए कानून में ज्यादा कठोर दंड का प्रावधान होता है. इसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि सत्ता या अधिकार के पद पर बैठा कोई भी शख्स अपने प्रभाव का गलत इस्तेमाल न कर सके.

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पॉक्सो कानून और सजा का बड़ा अंतर...

पॉक्सो (POCSO) एक्ट और रेप से जुड़े कानूनों में लोक सेवकों, अधिकारियों और पीड़ित पर प्रभुत्व रखने वाले व्यक्तियों के लिए सजा के सख्त नियम हैं. उदाहरण के तौर पर, अगर कोई 'सामान्य व्यक्ति' किसी बच्चे के साथ रेप करता है, तो न्यूनतम सजा 10 साल की जेल है.

वहीं, अगर यही अपराध कोई लोक सेवक या अधिकार संपन्न शख्स करता है, तो न्यूनतम सजा सीधे 20 साल हो जाती है. कुलदीप सेंगर को दिल्ली हाई कोर्ट से मिली राहत इसी तकनीकी बिंदु पर आधारित है कि वह अपराध के समय 'लोक सेवक' नहीं थे.

हाई कोर्ट का तर्क...

दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सेंगर एक विधायक थे और उन्हें आईपीसी या पॉक्सो के तहत परिभाषित 'लोक सेवक' नहीं माना जा सकता. अदालत ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के 1984 के उस फैसले का आधार लिया, जिसमें कहा गया था कि निर्वाचित प्रतिनिधि आपराधिक कानून की परिभाषा के अंदर लोक सेवक नहीं हैं. इस व्याख्या ने सेंगर को उस अतिरिक्त सजा से बचा लिया, जो किसी सरकारी अधिकारी को इसी अपराध के लिए भुगतनी पड़ती.

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संसद और विधानसभा के सदस्यों को क्यों मिली है छूट?

'लोक सेवक' शब्द की व्याख्या भारतीय दंड संहिता (IPC) और अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) में विस्तार से दी गई है. इसके तहत ब्यूरोक्रेट्स, पुलिस, न्यायिक अधिकारी और सैन्य अधिकारियों को शामिल किया गया है, जो सीधे सरकार द्वारा नियोजित होते हैं और सरकारी खजाने से वेतन पाते हैं. इसके विपरीत, विधायक और सांसद तकनीकी रूप से सरकार के 'कर्मचारी' नहीं होते. वे भारत की संचित निधि से भुगतान प्राप्त करते हैं, जिसकी वजह से उन्हें इन विशिष्ट कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है.

भ्रष्टाचार कानून में अलग है नियम

दिलचस्प बात यह है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत विधायकों और सांसदों को 'लोक सेवक' के रूप में मान्यता दी गई है. 1997 के एलके आडवाणी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की थी कि भ्रष्टाचार के मामलों में विधायक लोक सेवक माने जाएंगे. इसके अलावा 2024 के सीता सोरेन मामले में सात जजों की बेंच ने स्पष्ट किया कि सांसद और विधायक रिश्वत लेने के मामले में संसदीय विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकते. लेकिन यौन अपराधों जैसे मामलों में यह परिभाषा अब भी अस्पष्ट बनी हुई है.

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पूर्व जजों और कानूनी विशेषज्ञों की राय

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एस. रवींद्र भट ने 'इंडिया टुडे' से बात करते हुए कहा, "कानून की इस परिभाषा पर फिर से विचार करने की जरूरत है. रेप और पॉक्सो कानूनों में संशोधन का मकसद से समाज में शक्ति और अधिकार का प्रयोग करने वालों पर कठोर दंड लगाना था." 

जस्टिस भट ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि जिस अपील को 2020 में सुना गया था, उसमें अब जाकर जमानत और सजा के निलंबन का फैसला लिया गया. उनके मुताबिक, कोर्ट को इस स्तर पर लोक सेवक की परिभाषा पर इतनी विस्तृत चर्चा नहीं करनी चाहिए थी.

न्याय प्रणाली पर उठता भरोसा

सीनियर एडवोकेट विजय हंसारिया ने सवाल उठाया कि रसूखदार लोग 'कैश-फॉर-वोट' जैसे मामलों में तो लोक सेवक होने का दावा कर इम्युनिटी मांगते हैं, लेकिन ऐसे जघन्य अपराधों में वे लोक सेवक होने से इनकार कर देते हैं. सीनियर अधिवक्ता महालक्ष्मी पावनी ने कहा कि सेंगर को दिखाई गई सहानुभूति देश के पीड़ितों के लिए निराशाजनक संदेश है. उनका मानना है कि इस तरह के फैसले न्याय प्रणाली में आम जनता के विश्वास को कमजोर करते हैं, क्योंकि एक रसूखदार व्यक्ति कानून की बारीकियों का फायदा उठाकर कड़ी सजा से बच निकलता है.

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एडीआर की रिपोर्ट: दागी नेताओं के चौंकाने वाले आंकड़े

एडीआर (ADR) की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में शामिल नेताओं की संख्या काफी अधिक है. रिपोर्ट के मुताबिक, 151 मौजूदा सांसदों और विधायकों ने अपने खिलाफ महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले घोषित किए हैं. इनमें से 16 पर रेप (IPC 376) के आरोप हैं. डेटा के मुताबिक, बीजेपी के 54, कांग्रेस के 23 और टीडीपी के 17 मौजूदा प्रतिनिधि ऐसे मामलों का सामना कर रहे हैं. इसके अलावा, कम से कम एक मौजूदा विधायक और एक सांसद पर पॉक्सो एक्ट के तहत गंभीर आरोप हैं.

क्या कानून में बदलाव का समय आ गया है?

कानूनी एक्सपर्ट्स का एक बड़ा वर्ग मानता है कि जब तक कानून में 'लोक सेवक' की परिभाषा को व्यापक नहीं बनाया जाएगा, तब तक राजनेता ऐसे लूपहोल्स का लाभ उठाते रहेंगे. मौजूदा डेटा दिखाता है कि बड़ी संख्या में उम्मीदवार और नेता यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर मामलों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या कानून निर्माताओं ने जानबूझकर ऐसे रास्ते छोड़े हैं, जो उन्हें भविष्य में बचा सकें. विशेषज्ञों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को इस फैसले पर तुरंत संज्ञान लेना चाहिए, जिससे आने वाले वक्त में कोई दूसरा प्रभावशाली शख्स इस तरह बच न सके.

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