श्रीरामचरित मानस कथाः कौन हैं महाराज निमि, क्यों करते हैं सभी की पलकों में निवास?

पुष्पवाटिका ही वह स्थान था, जब सीताजी ने श्रीराम को पहली बार देखा. राम (विष्णु जी) ने भी वैकुंठ से उतरने के बाद पहली बार इतने दिनों में अपनी लक्ष्मी को निहारा. तुलसीदास मानस में इस प्रसंग को कुछ यूं लिखते हैं कि श्रीराम को देखकर सीता जी बिना पलक झपकाए एकटक उन्हें देखती रहीं.

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श्रीरामकथा में पुष्प वाटिका प्रसंग ( Photo Generative Ai by Vani Gupta/Aaj Tak)) श्रीरामकथा में पुष्प वाटिका प्रसंग ( Photo Generative Ai by Vani Gupta/Aaj Tak))

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 11 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 11:54 AM IST

श्रीराम चरित मानस हमारे जीवन का आधार है. हमारे जीवन में मर्यादा का क्या और कैसा स्थान होना चाहिए, ये सीखने का सबसे बेहतरीन जरिया है रामचरित मानस. इसकी खास बात ये है कि सिर्फ श्रीराम का ही जीवन अकेले ये मर्यादा नहीं सिखा रहा है, बल्कि कहानी और घटनाक्रम के अनुसार हर पात्र की एक मर्यादा है और वह प्रसंगों के बीच वह जिस तरह की परिस्थिति में दिखाई देता है, ठीक वैसी ही स्थितियां हमारे जीवन में कभी न कभी आती ही हैं. 

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जब श्रीराम-सीता का हुआ प्रथम मिलन
प्रसंगों के बीच आज कथा उस समय की जानिए, जब श्रीराम-लक्ष्मण पुष्प वाटिका में फूल चुनने गए थे. दूसरी ओर सीता जी सखियों के साथ गौरी पूजन के लिए पहुंची थीं. ठीक इसी समय सीता जी जब वृक्ष की ओट से श्रीराम के दर्शन पहली बार करती हैं और उनकी आंखें आपस में टकराती हैं तो, संत तुलसीदास ने इस स्थिति का वर्णन भी बहुत ही मर्यादा के साथ किया है. संत तुलसीदास ने शृंगार के इस पक्ष को भी आशीर्वाद और वरदानों का संगम बना दिया है.  

सीताजी को पुष्पवाटिका में पहली बार दिखे थे राम 
पुष्पवाटिका ही वह स्थान था, जब सीताजी ने श्रीराम को पहली बार देखा. राम (विष्णु जी) ने भी वैकुंठ से उतरने के बाद पहली बार इतने दिनों में अपनी लक्ष्मी को निहारा. तुलसीदास मानस में इस प्रसंग को कुछ यूं लिखते हैं कि श्रीराम को देखकर सीता जी बिना पलक झपकाए एकटक उन्हें देखती रहीं. वो यहां सीधे इस बात को नहीं कहते कि पलकें झपकना भूल गईं, वह लिखते हैं कि पलकों ने झपकने का अपना काम ही छोड़ दिया, मानो कि जैसे पलकें वहां थी ही नहीं.

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थके नयन रघुपति छवि देखें। पलकन्हिहू परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेह देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितब चकोरी

संत तुलसीदास ने किसे कहा है निमेष
निमेष का अर्थ होता है, पलकें. व्याकरण के अनुसार यह एक संधि शब्द है जिसके दो हिस्से हैं, निमिष और ईश. निमिष समय मापने की एक प्राचीन यूनिट है. हमारी पलकों को एक बार झपकने में जो समय लगता है, उसे निमिष कहते हैं. सीता जी के एक पूर्वज थे निमि, जो किसी समय मिथिला के राजा हुआ करते थे. गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें ही निमेष कहा है. निमेष, यानी पलकों के देवता 

श्रीराम को देखकर अपलक निहारती रहीं सीताजी
जब तुलसीदास ऐसा लिखते हैं कि, श्रीराम को देखकर सीता जी की पलकें झपकना बंद हो गईं, तो इसके लिए वह लिखते हैं पलकों ने अपना काम ही छोड़ दिया. उनके कहने का अर्थ है कि महाराज निमि, जिनका सभी की पलकों में निवास है, वे इस दृश्य को देखकर अपनी मर्यादा जानकर वहां से हट गए. महाराज निमि का सभी की पलकों में वास है. उन्होंने जब बिटिया और होने वाले दामांद को ऐसे प्रेम के समय में देखा तो मर्यादा वश उस स्थान से हट गए, क्योंकि देखने वाली तो आंखें ही थीं और आंखों के ठीक ऊपर पलकें यानी महाराज निमि थे.

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निमि राज ऐसे ही वहां से हट गए जैसे पिता अपने लड़के-बहू या बिटिया-दामांद के सामने से हट जाते हैं.

सवाल उठता है कि, निमि महाराज का पलकों में निवास कैसे हो गया?  असल में यह वही निमि हैं, जिनकी मृत देह से विदेह का जन्म हुआ था और फिर मिथिला के सभी राजा विदेहराज कहलाए थे. इसीलिए सीता जी का एक नाम वैदेही भी है.

यह है महाराज निमि की कथा
एक बार निमि महाराज समय में मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा. इससे जनता त्रस्त हो गई. ब्रह्मर्षियों ने वाजपेय यज्ञ का सुझाव दिया. महाराज निमि अपने कुलगुरु वशिष्ठ के पास उन्हें यज्ञ का पुरोहित बनाने की इच्छा से गए, लेकिन इससे पहले इंद्र उन्हें अपने राजसूय धर्म यज्ञ के लिए पुरोहित बना चुके थे. वशिष्ठ मुनि ने कहा कि मैं इंद्र का आमंत्रण स्वीकार कर चुका हूं इसलिए वहां यज्ञ कराकर तुम्हारा भी यज्ञ करा दूंगा, तुम सामग्री आदि तैयार रखो.

ऋषि वशिष्ठ ने दिया था श्राप
अब वशिष्ठ मुनि इंद्र का यज्ञ कराने गए तो वहां कई वर्ष लग गए, ऐसे में निमि महाराज ने न्याय संहिता के रचयिता गौतम ब्रह्मर्षि को अपना कुलगुरु बनाया और उनसे यज्ञ कराने लगे. इधर, इंद्र का यज्ञ पूरा करके वशिष्ठ जब मिथिला पहुंचे तो देखा कि यज्ञ शुरू हो गया है. क्रोध में उन्होंने निमि को प्राणहीन हो जाने का श्राप दे दिया. अब चूंकि इतना बड़ा यज्ञ खंडित नहीं किया जा सकता था इसलिए ऋषि गौतम और ऋत्विज मुनियों ने मंत्र शक्ति से निमि के प्राण को निकलने नहीं दिया, इस तरह वह जीवित नहीं रहे, लेकिन मृतक भी नहीं हुए. उनका शरीर सुरक्षित रहा और आत्मा को मंत्रों से शरीर की परिधि में बांध दिया गया.

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प्राणहीन अवस्था में पूरा किया यज्ञ
महाराज निमि ने इसी अवस्था में अपने भाई देवरात की सहायता से यज्ञ की आहुतियां दीं और सभी देवताओं की स्तुति की. वाजपेय यज्ञ के सिद्ध होने पर मां अम्बा को प्रकट होना होता है. माता प्रकट हुईं और उनके प्रकट होते ही वर्षा होने से अकाल मिट गया. तब उन्होंने प्रसन्न होकर निमि से वर मांगने को कहा. सबने सोचा निमि शरीर वापस मांगेंगे, लेकिन निमि ने कहा कि मैं इतने दिनों से न जीवित हूं न मृत, इसलिए शरीर का मोह अब नहीं रहा. आप मुझे इतना वर दीजिए कि हमेशा अपनी प्रजा के दुख देख सकूं और उन्हें दूर करने का उपाय कर सकूं.

देवी अंबा ने दिया वरदान
देवी अम्बा ने उनकी इच्छा पूरी करते हुए वरदान दिया कि आज से सभी की पलकों में आपका निवास होगा. आपकी ही शक्ति से मनुष्य पलकें झपका सकेगा. देवता इससे मुक्त रहेंगे और ऐसा नहीं कर पाएंगे, इसलिए देवताओं को अनिमेष कहा जायेगा. अनिमेष, यानी जिसकी पलकें न हों. इस तरह सभी की पलकों में महाराज निमि का वास हो गया.

इसी वजह से श्रीराम को अपलक निहारती रह गईं सीताजी
आज पुष्प वाटिका में भी सीता जी की पलकों पर वह थे, लेकिन जब उन्होंने महालक्ष्मी के सामने महाविष्णु को ऐसे प्रेम रूप में देखा तो प्रणाम करके कुछ समय के लिए ये स्थान ही छोड़ दिया. लिहाजा सीताजी की पलकें झुकनी ही बंद हो गईं, ताकि श्रीराम जी की छवि नेत्रों से होते हुए हृदय में समा सके. जब ऐसा हो गया तो चतुर सीताजी ने तुरंत ही पलकें गिरा लीं. यानी नेत्र कपाट बंद कर दिए.

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गोस्वामी तुलसीदास यहां फिर लिखते हैं
लोचन मग रामहिं उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानीं। कहि न सकहि कछु मन सकुचानीं.

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