ये एक ऐसे स्वयंसेवक की कहानी है, जो डॉ हेडगेवार के समय कई आंदोलनों में जेल गए, जिनमें निजाम के खिलाफ आंदोलन पहला था, गुरु गोलवलकर जब 1948 में राजा हरि सिंह से मिलने गए, तब भी ये साथ थे. पंजाब में विभाजन के दौरान हजारों लोगों की जान बचाने और शरणार्थियों के लिए समुचित इंतजाम करने की भी जिम्मेदारी इनके पास थी.
यही नहीं इमरजेंसी से पहले जेपी आंदोलन की भूमिका तैयार करने से लेकर इमरजेंसी में सभी नेताओं के जेल चले जाने पर लाखों स्वयंसेवकों का आत्मविश्वास बनाए रखने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के हिस्से आई और पहली गैर कांग्रेसी सरकार के लिए सभी धड़ों को साथ लाने में भी इनकी अहम भूमिका रही. नाम था माधव राव मुल्ये या मुले, जो कभी इतनी गरीबी से गुजरे थे कि साइकिल पंक्चर लगाने तक का काम करना पड़ा था.
“संघ में आज हजारों पढे-लिखे स्वयंसेवक एमए, एमएससी, पीएचडी की उपाधियां प्राप्त करने पर भी घर परिवार को त्यागकर देश सेवा की पवित्र भावना से अपना श्रेष्ठ जीवन अर्पण कर रहे हैं. यह इसलिए नहीं है कि मुसलमानों का खून बहाया जाए, या शहर में आग लगा दी जाए. ये इसलिए त्याग कर रहे हैं कि चरित्र से पतित जात-पात के झगड़ों से शुरू से हुए स्वार्थी समाज को सुसंस्कारित करके इस समाज के एक एक व्यक्ति को देवतुल्य बनाया जाए, ऐसे महान कार्य में सहयोग देने के लिए उन्होंने परिवार का त्याग किया है. बड़ी बड़ी नौकरियों और उद्योग धंधों का मोह छोड़कर और साधु वृत्ति से काम करने के लिए आगे आए हैं, उसे कायम रखने के लिए हम अपनी शाखाओं के हर एक स्वयंसेवक को मानसिक दृष्टि से तैयार करें.” माधव राव मुल्ये ने ये बयान तब दिया था, जब उनसे पूछा था क्या संघ के स्वयंसेवकों को भी हथियार का सहारा नहीं लेना चाहिए, तब दंगों की शुरुआत ही हुई थी.
कांग्रेसी के पूर्व मुख्यमंत्री ने मांगी सुरक्षा
समय के साथ जब साम्प्रदायिक कट्टरता चरम पर पहुंच गई तो उन्होंने कुछ व्यावहारिक फैसले लिए. उन्हें इसका गंभीर एहसास तब और हुआ जब पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रसिद्ध कांग्रेस नेता गोपीचंद्र भार्गव उनके पास सुरक्षा मांगने के लिए आए. उन्होंने माधव राव से कहा कि, “हम तो कांग्रेसी हैं, हमें मुसलमान अपना शत्रु समझते हैं. और आप लोग हमें हिंदू समाज का गद्दार समझते हैं. इस पर माधव राव ने कहा कि ये संघ के प्रति कांग्रेस की नफरत है, जो ऐसा प्रचार करते हैं. हम सबको अपना मानते हैं, किसी को गद्दार नहीं मानते. हम कभी भेदभाव नहीं करते हैं. आपको हम सुरक्षा देंगे, लेकिन हमारे पास बंदूकें नहीं हैं, न तोपें हैं, हमें अपने स्वयंसेवकों पर भरोसा है कि वे अपनी जान देकर भी आपकी सुरक्षा करेंगे. इस मुलाक़ात के बाद माधव राव को भी ये लगा था कि अब कुछ कदम उठाने की ज़रूरत है जिससे कि मुस्लिम लीग के कट्टरवादी समूहों की गतिविधियों का पता लगाया जा सके कि वे आगे क्या करने वाले हैं. इसके लिए भी कुछ सूचनाएं गोपीचंद्र भार्गव ने दी थी.
मुस्लिम लीग के इलाकों में तैनात किए थे मुस्लिम नाम से RSS स्वयंसेवक
माधव राव ने कुछ स्वयंसेवकों को मुस्लिम बनाकर विभाजित पंजाब के शहरों में मुस्लिम लीग के प्रभाव वाले क्षेत्रों में तैनात कर दिया. इनमें से एक थे मुल्तान के सतपाल, ये रावलपिंडी के एक हकीम के यहां सादिक अली बनकर रहने लगे. इसी ने बताया कि कैसे पूरी तैयारी के साथ मुस्लिम लीग के लोग हिंदू बाहुल्य इलाकों की रिपोर्ट तैयार करते हैं, उसी के हिसाब से वहां के प्रमुख लोगों की सूची भी तैयार होती है. किस को पुलिस के जाल में फंसाना है, कौन से मोहल्ले में बम फोड़ना है और कौन सी गली में छुरेबाजी करनी है. ये सब जानकारी लोकहित प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित ‘संघ नींव में विसर्जित’ पुस्तक में वीरेश्वर द्विवेदी ने दी है.
सतपाल की तरह ही रावलपिंडी के स्वयंसेवक जानकीदास को माधवराव जी ने लाहौर में तैनात किया था, जो मुगलपुरा के एक कारखाने में जावेद मियां के नाम से काम करते थे. जबकि मुल्तान में नियुक्त किए गए थे डॉक्टर सूरज प्रकाश, उन्होंने मुल्तान छोड़कर जाने वाले डॉ परमानंद की दुकान डॉक्टर सलीम के नाम से खरीद ली थी और खुद बन बैठे थे डॉक्टर सलीम. उनके पास हर तबके का मरीज आता था, जिससे काफी जानकारी मिल जाती थी. हालांकि माधव राव तक सूचना भेजना भी खतरे का काम था, सो सूचना लेने आने वाला भी मरीज बनकर ही आता था. ऐसे सैकड़ों स्वयंसेवकों के चलते ही हजारों लोगों की जान बचाई जा सकी थी, क्योंकि सूचना समय से मिल गई थी.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
इधर मुस्लिम लीग के लोग भी ऐसे सब लोगों की सहायता ले रहे थे, जो पाकिस्तान में रहें ना रहें लेकिन ये जरूर चाहते थे कि पाकिस्तान बने जरूर. इनमें सबसे आगे थे अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के कट्टर छात्रों का गुट, जो ना केवल अविभाजित बंगाल में भी सक्रिय था, बल्कि पंजाब में भी उतना ही सक्रिय था. उनके छात्रों के कई जत्थे रावलपिंडी, लायलपुर, मियांवाली, जेहलम-वजीराबाद, पेशावर व मुल्तान आदि जगहों पर भेजे गए थे. हालांकि सीमांत क्षेत्रों में अब्दुल गफ्फार खान का संगठन लाल कुर्ती उन्हें कई बार सबक सिखाने का काम करता था.
नई पीढ़ी को ये जानकर हैरत हो सकती है कि आज के पाकिस्तान के कई शहरों में उस वक्त RSS इतना सक्रिय था कि आराम से मुस्लिम इलाकों के बीच हिंदू स्वयंसेवक मुस्लिम बनकर रह रहे थे और किसी को कानोंकान खबर नहीं थी. इसकी वजह थे माधव राव मुल्ये, जिन्होंने अपना पूरा जीवन पंजाब प्रांत में संघ के कार्य विस्तार में लगा दिया था, उस वक्त अविभाजित पंजाब शायद सबसे बड़ा क्षेत्र था क्योंकि उसमें ना केवल भारत-पाकिस्तान के पंजाब का क्षेत्र, हिमाचल, हरियाणा और जम्मू कश्मीर (संघ की दृष्टि से) भी आता था.
कभी लगाने पड़े थे साइकिलों के पंक्चर
जिन माधवराव के कहने पर डॉक्टर जैसे पेशे वाले युवा भी सबकुछ छोड़कर दूसरे धर्म का नाम लेकर खतरे वाले इलाके में काम करने पहुंच जाते थे, उन माधव राव की जिंदगी का एक ऐसा भी दौर था जब रोजी रोटी के लिए साइकिल के पंक्चर तक लगाने पड़े थे. यूं माधव राव अपनी दादी के पक्ष से संघ के दूसरे सरसंघचालक और उनके नाम राशि माधव सदाशिवराव गोलवलकर से जुड़े थे और मां के पुरखे द्वारिकाधीश मंदिर (गुजरात) के पुरोहित हुआ करते थे, मां के पितामह बड़ौदा के गायकवाड़ महाराज के राजपुरोहित थे, फिर भी उनके घर की माली हालत अच्छी नहीं थी. माधव राव रत्नागिरी जिले के ओझरखाल गांव में पैदा हुए थे. पिता का साया सर से जल्दी उठ गया तो 6 बहनों और 2 भाइयों का ये परिवार मुश्किल में आ गया था. 1923 में वह अपनी बड़ी बहन दुर्गाबाई के पास रहने-पढ़ने नागपुर आ गए.
यहीं उनका सम्पर्क संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार से हुआ. हालांकि वो पढ़-लिख कर बड़ा उद्योगपति बनना चाहते थे. लेकिन हेडगेवार के सम्पर्क में आते ही उनका जीवन लक्ष्य समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित हो गया. 1931 में माधव डॉ हेडगेवार के साथ महाराष्ट्र प्रवास पर निकल पड़े और इसी दौरान उनका मिलना नारायण सावरकर, विश्वनाथ केलकर जैसे लोगों से हुआ तो उनके विचार और मजबूत होते गए. हालांकि घर की माली हालत खराब थी, दबाव पड़ा तो फिर घर वापसी कर ली.
चिपलूण में एक दुकान शुरू करने के साथ साथ उन्होंने युवाओं से सम्पर्क बढाना शुरू कर दिया, क्रिकेट खेलने लगे, मलखम्भ, कुश्ती, तलवारबाजी सीखने के साथ साथ तरुणों को सिखाने भी लगे. माना जाता है कि माधव अच्छे विकेटकीपर थे. उनको भजन गाने, तबला बजाने का भी शौक था, मंदिरों-मेलों की झांकियों में भी नाचने गाने लगे. जब युवाओं से अच्छी दोस्ती हो गई तो 1933 में उन्होंने चिपलूण में भी शाखा शुरू कर दी. एक बैंड भी घोष के लिए तैयार कर दिया और 1935 में 60 स्वयंसेवकों का घोष मार्च शहर में निकाला तो हेडगेवार प्रभावित हुए और खुद शाखा पर आए. उस शहर में कई शाखाएं शुरू हो गई थीं. संघ का काम तो बढ़ने लगा था लेकिन दुकान पर समय ना दे पाने के चलते कमाई कम होती जा रही थी. लेकिन अब माधव मन बना चुके थे, उन्होंने उसे किराए पर उठाया और परिवार को मना कर के संघ को ही समर्पित हो गए.
1938 में नागपुर संघ शिक्षा वर्ग आए तो उस वक्त गुरु गोलवलकर उस वर्ग के सर्वाधिकारी थे. 1940 में गोलवलकर जब संघचालक बने तो उन्हें पंजाब की जिम्मेदारी देकर कुल 28 साल की उम्र में लाहौर भेज दिया. दूसरी तरफ उनके बड़े भाई यशवंतराव को आर्थिक कठिनाइयों के चलते किसी घर में रसोइए तक का काम करना पड़ा था. लेकिन अब माधव को परेशान नहीं किया. इधर माधव ऐसा रमे पंजाब और जम्मू कश्मीर में कि तभी वापस लौटे जब गुरु गोलवलकर का देहांत हुआ यानी 33 साल बाद. 1973 में उन्हें सरकार्यवाह बना दिया गया यानी संघ में सीधे नंबर 2.
1959 में उनको क्षेत्र प्रचारक बना दिया गया था, हालांकि नए प्रांत प्रचारक रामचंद्र गोखले के 1962 में आने तक वो उनका काम भी देखते रहे थे. 70 के आसपास उन्हें सह-सरकार्य़वाह बना दिया गया था. जब वो पंजाब आए तब यहां आर्यसमाज का बोलबाला था. आर्यसमाजी लोग प्राय: शाखा में आते नहीं थे, आते थे तो ‘ध्वज प्रणाम’ नहीं करते थे और प्रार्थना के अंत में ‘भारत माता की जय’ बोलने में भी उन्हें दिक्कत होती थी. लेकिन धीरे धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी, लोगों को समझ आने लगा कि ये हिंदू महासभा नहीं है, ये संघ है. तो लोगों के विचार संघ को लेकर बदलने लगे.
पंजाब और कश्मीर: संघ की इकलौती कड़ी थे माधव राव
देश की आजादी का समय निकट आने लगा तो ऐसा लगा कि उस वक्त के दो सबसे बड़े मुद्दों में माधव राव की भूमिका बेहद अहम होने वाली है. एक कश्मीर का मुद्दा, जहां राजा हरि सिंह नेहरू से मतभेदों के चलते भारत या पाक किसी में भी मिलने के तैयार नहीं थे, दूसरा मुद्दा पंजाब का था, जिसका कि विभाजन होना था और कट्टरवादी मुस्लिमों ने प्रस्तावित पाकिस्तान के क्षेत्रों में हिंदुओं को डराना धमकाना शुरू कर दिया था. पंजाब और कश्मीर दोनों के ही क्षेत्र माधव राव मुल्ये के प्रभाव क्षेत्र में आते थे. ऐसें में पूरे देश के संघ कार्यकर्ताओं की नजरें माधव राव पर ही थीं और नागपुर के केन्द्रीय अधिकारियों की. तभी इन सभी क्षेत्रों में गुरु गोलवलकर और बाला साहब देवरस जैसे दिग्गजों के दौरे लगने लगे थे और माधव राव को ही सारे इंतजाम करने होते थे. कश्मीर में उनकी मेहनत के चलते कई प्रचारक भी निकले थे.
पंजाब में लड़ाई बड़ी लम्बी चलने वाली थी, पहले यही योजना थी कि हिंदू इन इलाकों को छोड़कर नहीं जाएंगे, स्वयंसेवक निडर होकर उनका सामना करेंगे. किसी क्षेत्र से हिंदुओं को निकालना जुरूरी है तो स्वयंसेवक ही सबसे आखिर में जाएंगे. एक पंजाब रिलीफ कमेटी भी बना दी गई थी. अनेक स्थानों पर शरणार्थी शिविर खोल दिए गए थे. अकेले तरनतारन में ही 35 हजार लोग ऐसे शिविर में लोग भोजन कर रहे थे. फिरोजपुर, फजिल्का, अबोहर में भी ये संख्या 30-30 हजार रोज की थी तो जलालाबाद, मोगा, तलवंडी, मलौट, गुरुसहाय मंडी आदि में भी 3 हजार रोज से कम शरणार्थी खाना नहीं खाते थे. बाल स्वयंसेवक हर घर से पांच से दस रोटियां मांग कर लाते थे. माधव राव की प्रेरणा से ही जम्मू में भी पं प्रेमनाथ डोगरा की अध्यक्षता में एक रिलीफ कमेटी बनाई गई थी. 30 हजार मुस्लिमों को भी भोजन करवा कर कठुआ से सीमा पार कर बाद में पाकिस्तान भेजा गया था.
कई मोर्चों पर था संघ स्वयंसेवकों का पंजाब-कश्मीर में काम
एक तरफ शरणार्थियों को भोजन, आवास, कपड़े व दवाइयां देनी थीं, दूसरी तरफ कई इलाकों से हिंदुओं को सुरक्षित निकालकर भारत भेजना था. हर जगह से लड़कियों को उठाकर ले जा रहे थे, जबरन धर्मांतरण हो रहा था, स्थानीय दबंग हिदुओं व भारतीय सेना की मदद से उनको रोका जा रहा था. श्रीनगर जम्मू जैसे हवाई अड्डों को विमान उतरने लायक बनाने, वर्फ हटाने के लिए भी स्वयंसेवकों की टीमें बना दी गई थीं. पुंछ में हवाई पट्टे बनाने में भी स्वयंसेवकों ने सेना की मदद की थी.
आजादी के बाद भी जब राजा हरि सिंह को भारत विलय में तैयार करने के लिए जब सरदार पटेल ने गुरु गोलवलकर से आग्रह किया तो राजा हरि सिंह से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में गुरु गोलवलकर के साथ माधव राव मुल्ये भी शामिल थे. तब श्रीनगर के डीएवी कॉलेज में गुरु गोलवलकर का एक कार्य़क्रम संघ के स्वयंसेवकों के साथ रखा गया था. आज श्रीनगर में 1 हजार स्वयंसेवकों की सभा करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन तब माधव राव के खड़े किए हजारों स्वयंसेवक घाटी में काम कर रहे थे.
गांधीजी की हत्या के बाद पूरे देश में दंगे भड़के, महाराष्ट्र में तो सैकड़ों लोगों की लिंचिंग हो गईं. लेकिन संघ कार्यकर्ताओं ने संघ पर प्रतिबंध के खिलाफ जेलें भर दीं, लेकिन पंजाब में माहौल नहीं खराब हो पाया तो उसकी वजह थे माधव राव मुल्ये. पंजाब इन सब दंगों की आग से अछूता रहा. लेकिन जब 1956 में अलग पंजाबी सूबे की मांग ने क्षेत्रीय भावनाएं ऐसी उभारीं कि आज तक वहां अलगाववाद पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है.
इमरजेंसी में भी सक्रिय रहे माधव राव, स्वामी समेत कई को भेजा विदेश
उनकी उम्र हो चली थी, बीमार भी रहते थे लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं थी. सभी बड़े नेता जब इमरजेंसी के दौरान जेल चले गए तो जिम्मेदारी सरकार्यवाह के तौर पर माधव राव के जिम्मे आ गई, वो भूमिगत रहकर लोक संघर्ष समिति के अघोषित संचालक बन गए. उस वक्त संघ प्रमुख बाला साहब देवरस यरवडा जेल में बंद थे, वहां से भी एक सम्पर्क उनके ऐसा बनाया कि लगातार निर्देश और सुझाव उनसे लेते रहे कि क्या करना है, या मैं ये कर रहा हूं. देसी मीडिया पर सरकार का कब्जा था, सो सुब्रह्मण्यम स्वामी, केदारनाथ साहनी, मकरंद देसाई जैसे कई लोगों को चुपचाप निकालकर विदेश भी पहुंचाया ताकि विदेशी मीडिया के जरिए बात प्रसारित हो सके. खैर उनकी मेहनत रंग लाई. इमरजेंसी खत्म हुई, और जनता पार्टी की सरकार के गठन और जनसंघ के जनता पार्टी में विलय तक तमाम बड़े मामलों में माधव राव की अहम भूमिका संघ ने देखी.
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विष्णु शर्मा