पत्रकार का नाम था बालकृष्ण मेनन, घर का नाम था बालन. केरल के एरनाकुलम में पैदा हुए थे, लेकिन अंग्रेजी साहित्य से बीए और एलएलबी की पढ़ाई करने लखनऊ आए. देश पर मरना मिटना चाहते थे, क्रांतिकारी बनना चाहते थे. लखनऊ में रहने के दौरान पत्रकारिता रास आने लगी, तो पंडित नेहरू द्वारा स्थापित अखबार ‘नेशनल हेराल्ड’ से जुड़ गए. तब उनको भी कहां पता था कि एक दिन वह उस संगठन की नींव रखेंगे जो नेहरू परिवार की कई पीढ़ियों की नींद खराब कर देगा. विश्व हिंदू परिषद की स्थापना में नेशनल हेराल्ड के इस पत्रकार का बड़ा हाथ था. आज आप उन्हें ‘चिन्मय मिशन’ वाले स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती के नाम से जानते हैं.
साधुओं के ढोंग का खुलासा करने आए थे, खुद साधु बन गए
पत्रकारिता में भी बालन को हर समय या तो जनता की समस्याएं लिखने का या कोई खुलासा करने का भूत सवार रहता था. कभी डाकियों की समस्याओं पर लिखते तो कभी मोचियों की. एक बार अपने सम्पादक के रामाराव की सलाह पर वह ऋषिकेश आए और योजना थी साधुओं के अंधविश्वासों का खुलासा करने की. जा पहुंचे स्वामी शिवानंद सरस्वती के आश्रम. उन्हें शायद शिवानंद महाराज की पिछली जिंदगी के बारे में पता नहीं था, शिवानंद अच्छी अंग्रेजी बोलते थे, डॉक्टर रह चुके थे. सालों तक ब्रिटिश मलाया में अपनी सेवाएं दे चुके थे. संन्यास लेने के बाद वेदांत, योगा पर इतना अध्ययन किया कि 200 तो किताबें ही लिख डालीं. वह भी बालन की तरह दक्षिण के ही तमिलनाडु से थे. भगवद गीता पर उनकी टीकाएं आज भी बड़ी प्रामाणिक मानी जाती हैं.
उनके आश्रम में रहे तो वो सारे काम करने पड़े, जो बाकी आश्रम वासी करते थे. धार्मिक कार्यों में रुचि ना होते हुए भी गंगा पूजा, संध्या वंदन, आरती आदि में शामिल होते रहे. वहां इतनी किताबें थीं कि वो दिन भर उनका अध्ययन करने या स्वामी के प्रवचन ही सुनते रहते. धीरे-धीरे बालन के स्वभाव और सोच में परिवर्तन आने लगा, उन्हें लगा कि जिन्हें वो ढोंगी समझ रहे थे, वो तो परम ज्ञानी थे. उसके बाद उन्होंने वहीं संन्यास ले लिया, नाम हो गया स्वामी चिन्मयानंद. उनको उपनिषदों की शिक्षा के लिए शिवानंद महाराज ने तपोवन महाराज के आश्रम में उत्तरकाशी भेज दिया. स्वामी तपोवन धैर्य की कड़ी परीक्षा लेते थे, रोज बस एक घंटे का प्रवचन रखते. ऐसे वेदांत के सम्पूर्ण ज्ञान में 8 साल कब बीत गए चिन्मयानंद को पता नहीं चला.
उसके बाद वो पहाड़ों से वापस आए और आम जनता के बीच जाने लगे, पूना में ज्ञान यज्ञ की शुरुआत के बाद पूरे देश भर में वेदांत, गीता पर प्रवचन करने लगे. माना जाता है कि उन्होंने ऐसे कम से कम 18 हजार प्रवचन दिए, सैकड़ों ब्रह्मचारी तैयार किए. चिन्मय मिशन स्थापित किया, जो आज 40 देशों में है. 1963 के नवम्बर महीने में एक दिन उन्होंने एक लेख ‘तपोवन प्रसाद’ पत्रिका में लिखा और अपनी इच्छा जाहिर की कि दुनिया भर के सनातनी हिंदुओं की एक संस्था होनी चाहिए.
इस पत्रकार ने खड़ी कर दी थी एक पूरी समाचार एजेंसी
विश्व हिंदू परिषद की आधारशिला से एक दूसरे पत्रकार का नाम भी जुड़ा है. उनका नाम था, शिवराम शंकर आप्टे, जिन्हें एसएस आप्टे या दादासाहेब आप्टे के नाम से भी जाना जाता है. ये बड़ोदा, गुजरात के एक मराठी परिवार में पैदा हुए थे. पत्रकार बनना चाहते थे, सो पढ़ाई पूरी करके समाचार एजेंसी यूनाइटेड प्रेस ऑफ इंडिया (यूएनआई) से जुड़ गए. तब यूएनआई को भी नहीं पता था कि एक दिन इसी व्यक्ति द्वारा खड़ी की गई संस्था की खबरें छापनी पड़ेंगी और एक दिन ये व्यक्ति यूएनआई से बड़ी समाचार एजेंसी यानी हिंदुस्तान समाचार खड़ी कर देगा.
हालांकि बाद में आप्टे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए और फिर कुछ समय बाद 1945 में उसके पूर्णकालिक प्रचारक भी बन गए. लेकिन अंदर का पत्रकार जिंदा था, सो लगातार लेख आदि लिखते रहते थे. संघ के मीडिया सम्बंधी कार्यों में भी उनकी विशेषज्ञता की उपयोगिता बनी रहती थी. ऐसे में योजना बनी कि कोई ऐसी न्यूज एजेंसी भी हो जो संघ के प्रति बिना जाने ही विद्वेष भाव ना रखती हो. इस काम में फिर आप्टे की मेहनत और अनुभव काम आए और इस तरह बम्बई (आज की मुंबई) से ‘हिंदुस्तान समाचार’ एजेंसी की शुरुआत हुई. आप्टे इसके बाद कई देशों की यात्रा पर गए, वहां रहने वाले भारतीयों की दशा दिशा देखी और उन्हें लगा कि इनको अपनी जन्मभूमि से जोड़ा जाना चाहिए, कुछ साझा समस्याओं में उनकी सहायता की भी जा सकती है और ली भी जा सकती है. नियोगी आयोग की रिपोर्ट भी उन दिनों चर्चा में रही थी.
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आप्टे ने 1961 में ‘केसरी’ में तीन लेख लिखे और विदेशों में रहने वाले हिंदुओं के बारे में भारत के हिंदुओं का ध्यान आकर्षित किया कि उनका कैसा जीवन है, कैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं वो लोग. इन्हीं लेखों में उन्होंने एक सुझाव दिया कि हिंदुओं का एक ऐसा विश्वव्यापी संगठन होना चाहिए, जो पूरे विश्व के हिंदुओं का मंच हो, जिसके जरिए पूरे विश्व के हिंदू आपस में जुड़ सकें. इनके लेख के बाद आया था स्वामी चिन्मयानंद का इसी विषय पर लेख कि कोई तो ऐसी संस्था हो, जिसके जरिए विश्व भर के हिंदू आपस में जुड़ सकें, अपनी बात, अपनी समस्याएं रख सकें. पूरे हिंदू समाज के मुद्दे उठा सकें. लेकिन खाली लेख लिखने से तो कुछ होने वाला नहीं था. जरूरी था कोई जो प्रेरणा दे सके, और कोई घटना जो इस प्रेरणा की वजह बन सके.
त्रिनिनाद का सांसद गोलवलकर को ढूंढते आया और इतिहास बन गया
इस लक्ष्य को पूरा करने की प्रेरणा देने वाले, उसकी रूप रेखा बनाने वाले और सबको एक सूत्र में बांधने वाले थे संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर. दरअसल स्वामी विवेकानंद के जन्म शताब्दी वर्ष में एकनाड रानडे को विवेकानंद शिला जैसा लक्ष्य सौंपने के बाद सारे देश में स्वामी विवेकानंद से जुड़े कार्यक्रम हो रहे थे और उनमें से कई जगह खुद गुरु गोलवलकर जा रहे थे. 24 नवम्बर 1963 का दिन था और गोलवलकर उस दिन कर्नाटक के बेलगाम में थे. उन्हें सूचना मिली कि त्रिनिनाद के एक सांसद उनसे मिलना चाहते हैं. उनका नाम था शम्भूनाथ कपिलदेव. दरअसल 18वीं सदी में अंग्रेज बहुत सारे भारतीयों को दुनिया भर के कई देशों में मजदूर के तौर पर उठा ले गए थे. जब ये देश आजाद हुए तो हिंदुओं ने अपना धर्म नहीं छोड़ा और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी अपनी अच्छी जगह बना ली.
वहां ईसाइयत का बोलबाला था, ये लोग अपनी हिंदू परम्पराएं छोड़ना नहीं चाहते थे और अपनी जड़ों से भी जुड़ना चाहते थे. कई इस तरह के धार्मिक या सांस्कृतिक सवाल होते थे, जिनके लिए वो भारत से निर्देशन लेना चाहते थे या सलाह करना चाहते थे. इसलिए शम्भूनाथ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आय़ा, लेकिन सरकार से जुड़े लोगों ने उनसे ये कहकर पल्ला झाड़ लिया कि ये देश तो सेकुलर देश है. कई जगह ठोकरें खाईं, तो किसी ने बताया कि आपको गुरु गोलवलकर से मिलना चाहिए, वो मदद कर सकते हैं. शम्भूनाथ फौरन झंडेवालान में दिल्ली के संघ कार्यालय पहुंचे. वहां से सूचना लेकर बम्बई रवाना हो गए. वहां से सूचना मिली कि वो तो कर्नाटक में हैं. बंगलौर कार्यालय फोन लगाया तो पता चला कि कल बेलगाम में रहेंगे. ऐसे में शम्भूनाथ कैसे भी बेलगाम ही आ पहुंचे.
बेलगाम में पूरे दिन से लेकर रात के भोजन तक शम्भूनाथ ने गुरु गोलवलकर से तीन बार बातचीत की. जड़ों से जुड़ने की उनकी बैचेनी गोलवलकर समझ भी रहे थे. लगभग हर मुद्दे पर शम्भूनाथ ने बातचीत की. शम्भूनाथ इस बात से भी हैरान थे कि इतना बड़े संगठन का कर्ताधर्ता औऱ स्टेज के चारों तरफ बस एक-एक स्वयंसेवक डंडा लेकर सुरक्षा में हैं, और कोई नहीं. अगली सुबह जाने से पहले फिर उनसे मिले और उन्हें दंडवत प्रणाम करके विदा ली. लेकिन जाने से पहले गुरु गोलवलकर की दो तस्वीरों पर हस्ताक्षर भी लिए, एक देवनागरी में और दूसरा अंग्रेजी में, ताकि लोगो को यकीन दिला सकें कि गुरु गोलवलकर से मिलकर आए हैं. यही वो घटना थी, जिसमें इस सांसद की जड़ों से जुड़ने की ललक ने गुरु गोलवलकर को ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या जो चर्चा विदेशों में दौरा करने वाले प्रचारक लक्ष्मण राव भिड़े औऱ दीनदयाल उपाध्याय बताते रहे हैं, और आप्टे और चिन्मयानंद के लेखों में पुरजोर तरीके से उठाई गई है, उस संकल्प के रूप में साधने का वक्त आ गया है.
ऐसे में गुरु गोलवलकर ने दोनों पूर्व पत्रकारों आप्टेजी और स्वामी चिन्मयानंद से भविष्य के इस संगठन को लेकर चर्चाएं शुरू कर दीं. गुरु गोलवलकर ने एसएस आप्टे को देश भर के दौरे पर भेज दिया, जहां वो समाज की सैकड़ों प्रमुख हस्तियों व 50 के करीब संस्थाओं, विभिन्न मठों, पंथों के प्रमुखों से मिले. विश्व हिंदू परिषद नेता और राम मंदिर ट्रस्ट, अयोध्या के महासचिव चम्पत राय ऑर्गनाइजर के एक लेख में ऐसे सभी नामों की एक सूची देते हैं, जिनमें कांची कामकोटि और शारदा पीठम के शंकराचार्य, केएम मुंशी, संत तुकडोजी महाराज, डॉ सम्पूर्णानंद, लद्दाख के कुशक बाकुला, जस्टिस बीपी सिन्हा, बाबू जगजीवन राम, जैन साधु मुनि सुशील कुमार महाराज, ज्ञानी भूपेन्द्र सिंह, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ आचार्य विश्वबंधु, सदगुरु जगजीत सिंह नामधारी, प्रभुदत्ता ब्रह्मचारी, सर सीताराम राय, श्रीप्रकाश, हनुमान प्रसाद पोद्दार, जुगल किशोर बिरला, स्वामी नारायण पंश के योगीराज महाराज आदि शामिल हैं. चम्पतराय लिखते हैं कि आप्टे करीब 600 लोगों से व्यक्तिगत तौर पर मिले और 40 संस्थाओं का दौरा किया.
संदीपनी आश्रम में हुई ‘विश्व हिंदू परिषद’ की स्थापना
आखिरकार 29 अगस्त 1964 को पवई (मुंबई) के स्वामी चिन्मयानंद के संदीपनी आश्रम में एक नए संगठन ‘विश्व हिंदू परिषद’ की स्थापना हुई. इसमें समाज के करीब 150 प्रमुख चेहरे उपस्थित थे. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी चिन्मयानंद ने की और समापन वक्तव्य गुरु गोलवलकर ने दिया. इस बैठक में कई बड़े निर्णय किए गए, पहला था कि 1966 में लगने वाले प्रयाग कुम्भ में 22 से 24 जनवरी के बीच विश्व हिंदू सम्मेलन होगा. इसमें एक धर्म संसद भी आयोजित की जाएगी, जिसमें सभी पंथों के प्रतिनिधि भाग लेंगे. इस सम्मेलन में ‘विविधता में एकता’ पर जोर दिया जाएगा. वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक हिंदू धर्म के प्रसार को लेकर एक प्रदर्शनी भी इस सम्मेलन में लगाई जाएगी.
22-23 दिसंबर को आचार्य लोकेश चंद्रा के आवास पर हुई बैठक में मैसूर के वाडियार महाराज को विश्व हिंदू परिषद का पहला अध्यक्ष चुना गया और सर सीपी रामास्वामी नायकर को उपाध्यक्ष बनाया गया. तय किया गया कि प्रयाग के सम्मेलन में दलाई लामा व मंगोलिया और जापान के बौद्ध भिक्षुओं को भी आमंत्रित किया जाएगा. 27-28 मई 1965 की बैठक में तय किया गया कि जिन देशों में हिंदू जनता ज्यादा है, वहां विश्व हिंदू परिषद की इकाइयां शुरू की जाएंगी.
प्रयाग की पहली धर्म संसद काफी ऐतिहासिक रही, मंदिरों और गायों की सुरक्षा के अलावा ये भी संकल्प पारित किया गया कि जो भी लोग हिंदू धर्म से किसी और धर्म में चले गए हैं, उनकी घर वापसी के लिए प्रयास किए जाएंगे. घर वापसी का मुद्दा आज भी मरा नहीं है, लगातार ये मुद्दा बनता रहा है. धीरे धीरे विश्व हिंदू परिषद का दायरा बढ़ता चला गया. बजरंग दल, दुर्गावाहिनी जैसे तमाम संगठन इसके विस्तार में शामिल होते चले गए. राम मंदिर आंदोलन विश्व हिंदू परिषद के इतिहास में बड़ा मील का पत्थर बना.
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विष्णु शर्मा