संघ के 100 साल: तिरंगा, फायरिंग और मौतें... गोवा की मुक्ति में बलिदान होने वाले स्वयंसेवकों की कहानी

1955 में जब गोवा मुक्ति संग्राम शुरू हुआ तो कई स्वयंसेवक इस आंदोलन में कूद पड़े. 15 अगस्त 1955 को तिरंगा लेकर रामभाऊ गोवा में दूसरे स्वयंसेवकों के साथ गोवा में प्रवेश कर रहे थे. पुर्तगालियों ने गोली चलाने की धमकी दी, लेकिन रुकने का सवाल ही नहीं था. पहली गोली बसंतराव ओक के पैर में लगी. दूसरी गोली पंजाब के हरनाम सिंह के सीने में लगी. फिर संगीनों के सामने रामभाऊ थे. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.

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गोवा को स्वतंत्रता दिलाने की मुहिम 1955 में शुरू हुई. (Photo: AI generated) गोवा को स्वतंत्रता दिलाने की मुहिम 1955 में शुरू हुई. (Photo: AI generated)

विष्णु शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 08 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 11:19 AM IST

आम तौर पर हैदराबाद हो या गोवा का भारत में विलय, आखिरी उपाय के तौर पर भारतीय सेना के ही ऑपरेशंस को आजमाया गया और ज्यादातर लोग उन्हीं को श्रेय देते आए हैं. लेकिन हर संग्राम के कई गुमनाम नायक भी होते हैं, जिनको गोवा में तो आज तक याद किया जाता है, लेकिन बाकी देश में उनकी चर्चा कम ही होती है. RSS के भी तमाम स्वयंसेवक ऐसे थे जो वहां आजादी की अलख जगाते जगाते अपना बलिदान कर गए, चाहे वो हैदराबाद हो, गोवा हो या दादरा नागर हवेली. गोवा मुक्ति संग्राम तो वैसे भी लम्बा चला, भारत की आजादी के 15 साल तक गोवा पुर्तगालियों की गुलामी से मुक्त ही नहीं हो पाया था. गोवा और दादरा नागर हवेली के लम्बे संग्राम में संघ के जिन स्वयंसेवकों ने अहम भूमिका निभाई, आज इस लेख में आप उनके बारे में जानेंगे.

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तिरंगा फहराने के लिए रामभाऊ महाकाल ने दे दी थी अपनी जान

जो लोग RSS को तिरंगा फहराने के नाम पर सालों से घेरते रहे हैं, उनके लिए ये जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है. उन्हें यकीन ही नहीं आएगा कि कोई स्वयंसेवक तिरंगा फहराने के लिए इतना आतुर था कि गोलियां चलती रहीं और वो उसे लगती भी रहीं, लेकिन वो रुका नहीं, गिरा नहीं. सतीश दवे की किताब ‘एक भूला सा सेनानी: गोवा स्वातंत्र्य सेनानी रामभाऊ महाकाल’ से जानकारी मिलती है कि रामभाऊ महाकाल उज्जैन के ज्योर्तिंलिंग महाकाल मंदिर के पुजारी बलवंत भट्ट तेलंग महाकाल के पुत्र थे. उनकी मां का नाम अन्नपूर्णा था. उनका जन्म 26 जनवरी 1923 को हुआ था, बचपन से ही उनका वेद, उपनिषद, अन्य शास्त्रों का गहन अध्ययन शुरु हो गया था. चूंकि देश आजाद नहीं था, सो अन्य युवाओं की तरह उनका मन भी देश के लिए कुछ करने का था.

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इसी दौरान उनका सम्पर्क उज्जैन में संघ के प्रचारक दिगम्बर राव तिजारे से हुआ. उनके विचारों और कार्य को देखकर रामभाऊ भी प्रभावित होने लगे, और पारम्परिक अनुष्ठान के कार्य की बजाय उन्होंने जनता की सेवा का रास्ता चुना और 1942 में वह भी संघ के प्रचारक बन गए. उनको पहले सोनकच्छ तहसील भेजा गया. वहां के लोग उनकी बहादुरी और समाजसेवा की तमाम कहानियां आज भी सुनाते हैं कि कैसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर आंदोलन के लिए वह उज्जैन से पैदल दिल्ली गए थे. उन्होंने सोनकच्छ तहसील में ही 33 शाखाएं खड़ी की थीं.      

संघ पर जब प्रतिबंध लगा तब बाकी प्रचारकों की तरह घर लौटने के बजाय उन्होंने सोनकच्छ तहसील में ही एक भोजनालय खोल लिया था, अब पुलिस उनसे कुछ कह नहीं सकती थी और सारे स्वयंसेवकों से वहीं मिलना हो जाता था. ये एक तरह से ‘भोजनालय शाखा’ थी, जिसके चलते वहां संघ का कार्य कभी बंद नहीं हुआ. 1955 में जब गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन का आह्वान हुआ तो 14 अगस्त की रात में राजाभाऊ समेत 2500 स्वयंसेवकों का जत्था सीमा पर पहुंच चुका था. देश भर के अलग अलग इलाकों से जत्थे आ रहे थे. ये सभी लोग भी पहले पुणे में इकट्ठा हुए थे. माना जाता है कि अलग अलग जत्थों में करीब 10 हजार लोग थे. कांग्रेस को छोड़कर बाकी ज्यादातर विचारधारा वाले दलों ने ‘गोवा विमोचन सहायक समिति’ नाम का संगठन बनाया था. इसी की अगुवाई में ये मार्च निकला था.    

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रामभाऊ समेत 51 की मौत की वजह से बना ये ‘गोवा का जलियांवाला बाग’

योजना पहले से तय थी कि जैसे ही लाल किले से सुबह प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होगा, जत्थे आगे बढ़ना शुरू कर देंगे. सबसे पहले बसंतराव ओक (संघ के वरिष्ठ प्रचारक) और उनके पीछे चार-चार सत्याग्रहियों के जत्थे आगे बढ़ने लगे. 2 किलोमीटर बाद ही सीमा पुलिस चौकी आ गई. पुर्तगाली सैनिक जब तक उन्हें रोकते जत्थे आगे बढ़ते चले गए, अब तिरंगा लेकर रामभाऊ सबसे आगे थे. पुर्तगालियों ने गोली चलाने की धमकी दी, लेकिन रुकने का सवाल ही नहीं था. पहली गोली बसंतराव ओक के पैर में लगी. दूसरी गोली पंजाब के हरनाम सिंह के सीने में लगी, वो गिर पड़े लेकिन आगे के लोग बढ़ते रहे. चूंकि तिरंगा रामभाऊ के हाथों में था, सो उनको घेरकर सिर में गोली मारी गई, जो उनकी आंखों और सर के बीच कहीं लगी, खून के फव्वारे फूटने लगे. लेकिन उन्होंने तिरंगा तब तक नहीं गिरने दिया, जब तक कि बाकी स्वयंसेवक नहीं आ गए. एक ने तिरंगा संभाला और बाकी ने रामभाऊ को और वहां से उठाकर अस्पताल ले गए. बीच में जब भी उन्हें होश आता, वो बस यही पूछते कि सत्याग्रह ठीक से चल रहा है ना? अन्य साथी कैसे हैं? गोवा स्वतंत्र हो गया ना? लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं पाए. 

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RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

महिलाएं भी पीछे नहीं थी, 40 वर्षीया सुभद्रा बाई ने तो झांसी की रानी जैसी ही वीरता दिखाई थी, आपने पुरुष सत्याग्रही से झण्डा छीनकर स्वयं छाती पर गोली खाई. इस गोली कांड को गोवा का जलियां वाला बाग कहा जाता है, माना जाता है कि 51 लोगों की मौत हुई थी. जिनमें से ज्यादातर स्वयंसेवक थे. जिन स्वयंसेवकों का बलिदान हुआ, उन्हें पुणे लाया गया, हालांकि प्रशासन ने धारा 144 लगा दी, लेकिन सड़कों पर राजाभाऊ व अन्य लोगों के लिए भीड़ का सैलाब उतर आया. उनको मुखाग्नि उनके मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने दी थी. बाद में उनकी अस्थियों को लेकर बड़ा जुलूस उके शहर उज्जैन में निकाला गया था. बाद में सोनकच्छ तहसील में उनकी मूर्ति भी लगाई गई. संघ का जो भी अधिकारी वहाँ जाता है, उनकी मूर्ति को प्रणाम जरूर करता है.

राष्ट्र सेविका समिति ने भी इस आंदोलन में महती भूमिका निभाई थी, बाद में संगठन की दूसरी संचालिका रहीं सरस्वती ताई आप्टे ने आंदोलन के लिए जरूरी सामानों खासकर भोजन की व्यवस्था पर ध्यान दिया. पुणे, बेलगांव आदि में उनकी व्यवस्था की चर्चा होती है. इसके अलावा उनके संगठन की कई स्वयंसेविकाओं ने आंदोलन में भाग भी लिया था.

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22 अगस्त 1955 का ‘पांचजन्य’ लिखता है, इस संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि, “गोवा में पुलिस कार्रवाई करने और गोवा को मुक्त कराने का इससे ज्यादा अच्छा अवसर कोई न आएगा. इससे हमारी अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और आसपास के जो राष्ट्र सदा हमें धमकाते रहते हैं, उन्हें भी पाठ मिल जाएगा. भारत सरकार ने गोवा मुक्ति आन्दोलन का साथ न देने की घोषणा करके मुक्ति आन्दोलन की पीठ में छुरा मारा है. भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय नागरिकों पर हुए इस अमानुषिक गोलीबारी का प्रत्युत्तर दे और मातृभूमि का जो भाग अभी तक विदेशियों की दासता में सड़ रहा है, उसे अविलम्ब मुक्त करने के उपाय करे.”

गोवा मुक्ति संग्राम का ये नायक बाद में बना था सांसद

“'कर्नाटक केसरी' जगन्नाथ राव जोशी जी ने गोवा मुक्ति संग्राम का सत्याग्रह कर परमिट राज समाप्त करने हेतु अनेक यातनाएं सही। राष्ट्र के प्रति समर्पण, विचारधारा के प्रति अटूट प्रतिबद्धता और अपने संगठन कौशल से युवाओं में राष्ट्रभक्ति जगाने वाले ऐसे महान स्वयंसेवक को उनकी जयंती पर नमन.“ अमित शाह जैसे दिग्गज नेता जगन्नाथ राव जोशी की जयतीं, पुण्यतिथि पर हर बार ट्वीट या फेसबुक पोस्ट करके याद करते हैं. 

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1857 के स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर बसे कर्नाटक के नार्गुंड में पैदा हुए जगन्नाथ राव  जोशी. लेकिन संघ से उनका परिचय पुणे में तब हुआ था, जब वह यहां पढ़ने आए थे.  पुणे से बाजीराव, तिलक, फड़के औऱ सावरकर जैसे लोगों का जुड़ाव उस शहर में आने वाले हर युवा को उनके रंग में रंग देता था, वहीं जगन्नाथ राव के साथ हुआ. संघ के बाद वो जनसंघ से जुड़ गए. देश भर में उनका प्रवास होने लगे, कहा जाता है कि उनको आठ भाषाएं आती थीं. 

इधर आजादी से पहले गोवा की मुक्ति के लिए राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज औऱ आजादी के बाद 1947 में गांधीजी ने भी काफी कोशिश की थी. दरअसल गोवा में पुर्तगालियों से मुक्ति के प्रयास तो कई बार हुए थे, लेकिन चूंकि आधी जनता को वो ईसाई बनाकर अपने रंग में रंग चुके थे, उस जनता के भी आधे लोग पुर्तगाली शासन के ही समर्थक थे, तो बहुत सारे उनसे आजादी चाहते थे, लेकिन भारत में गोवा को मिलाने के विरोध में थे. जो भारत में मिलाना चाहते थे, उनकी बीच आंदोलन चलाने के तरीकों पर मतभेद था, कुछ गांधीजी की तरह सत्याग्रह चाहते थे तो आजाद गोमांतक दल जैसे लोग क्रांतिकारियों के नक्श एक कदम पर चल रहे थे. इस दल में समाजवादी और संघ विचार, दोनों तरह के लोग थे. 

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गोवा की मुक्ति की लड़ाई में सुर साधिका लता मंगेश्कर भी साथ आईं. (Photo: AI generated)

ऐसे में आंदोलनकारी एकमत नहीं हो पा रहे थे, इसी का फायदा पुर्तगाली उठाते आए थे. वहीं पंडित नेहरू बल प्रयोग के खिलाफ थे. हालांकि वो यूएन गए, पुर्तगाल से बैठकें की, वहां अपना दूतावास भी बंद कर दिया लेकिन पुर्तगाल नहीं माना. तब जगन्नाथ राव जोशी ने एक नारा दिया था, “नेहरू जी अब क्या करें, पुलिस लेकर गोवा चलें, पुलिस लेकर गोवा चलें”. 

लेकिन नेहरूजी राजी नहीं हुए तो संघ और जनसंघ ने मोर्चा खोल दिया, इसमें गोवा के समूह भी शामिल हो गए. पहले बंगलौर में जुलूस निकाला गया और लोगों के बीच संदेश गया कि गोवा भारत में शामिल होना चाहिए. उन दिनों गोवा में जाने के लिए वैसे ही परमिट लगता था, जैसे कश्मीर में लगता था. जगन्नाथ राव जोशी ने उसके खिलाफ आवाज उठाई और बिना परमिट गोवा में घुसे, उनको गिरफ्तार करके फोर्ट अगोड़ा की जेल में डाल दिया गया. उससे पहले जज ने उनसे पूछा था कि आप बिना परमिट गोवा क्यों आए? तो उनका जवाब था, ये मेरी मातृभूमि का ही एक अंग है, सवाल तो आपसे होना चाहिए कि आप पुर्तगाली लोग मेंरे देश में बिना परमिट के कैसे आए?

उनके इस बयान को जब मीडिया ने छापा तो काफी चर्चा हुई थी. उनकी बहादुरी को देखकर लोग उन्हें ‘कर्नाटक केसरी’ तक कहने लगे थे. दरअसल 13 जून सन् 1955 को जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्याग्रह की शुरुआत की‌ थी, सत्याग्रह में राष्ट्रवाद की रणभेरी मेरा रंग दे बसंती चोला, वंदेमातरम और भारत माता के जयकारों से गूँज उठी. इस अभियान में जगन्नाथ राव जोशी के साथ लगभग 3 हजार की संख्या में ‘गोवा मुक्ति’ के लिए संघ स्वयंसेवकों का एक दल कूच करने गया था. पुरुषों के साथ-साथ इस अभियान में महिलाओं ने भी बढ़- चढ़कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इन सबको गिरफ्तार कर लिया गया था और इनमें से कई को 10-10 साल तक की सजा सुनाई गई थी. इस जत्थे के दो सत्याग्रहियों की भयंकर यातनाओं के परिणाम स्वरूप मृत्यु भी हो गई थी. इन बलिदानियों में से एक मथुरा के अमीरचंद गुप्त भी थे, तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने तत्कालीन गृहमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को तार भेजकर अमीरचंद की मृत्यु की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए जगन्नाथ राव जोशी आदि सत्याग्रहियों की सुरक्षा की माँग की थी.  जगन्नाथ राव जोशी 1967 में भोपाल से और 1971 में शाजापुर से जनसंघ की टिकट पर लोकसभा सांसद चुने गए थे. 1978 से 1984 तक राज्यसभा सदस्य भी रहे थे.

संगीतकार सुधीर फड़के ‘बाबूजी’ ने तो ‘गोवा मुक्ति फंड’ के लिए लताजी तक से गाना गवाया

गोवा के स्वातंत्र्य यज्ञ में – उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक सुधीर फड़के ‘बाबूजी’ ने भी अहम भूमिका निभाई. गोवा आंदोलन के दौरान उनके रचे गीत, आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ाने का काम करते थे. दादरा नागर हवेली को मुक्त करवाने के लिए जब धन की कमी थी तो संगीतकार फड़के ने पुणे में लता मंगेशकर का एक कार्यक्रम कराया और उससे प्राप्त धन से आंदोलनकारियों की मदद की थी. मराठी सिनेमा में सुधीर फडके को ‘स्वरगंधर्व’ के नाम से पहचाना जाता है. सुधीर फड़के कोल्हापुर के रहने वाले थे. साल 1941 में एचएमवी के साथ अपना करियर शुरू करने के बाद सुधीर फडके ने साल 1946 में प्रभात फिल्म कंपनी की फिल्म 'गोकुल' से संगीत निर्देशक के रूप में करियर की शुरुआत की. अपने जीवनकाल में उन्होंने 111 फिल्मों में संगीत दिया जिनमें से हिंदी फिल्में भी शामिल है. कवि जीडी माडगुलकर के छंदों पर आधारित 56 गीतों वाली 'गीत रामायण' सुधीर फडके की सबसे लोकप्रिय कृतियों में से एक है. इन गीतों को लता मंगेशकर, वसंतराव देशपांडे, उषा अत्रे जैसे कई दिग्गजों ने आवाज दी थी, खुद फड़के ने भी आवाज दी थी. 'गीत रामायण' का पहला प्रसारण ऑल इंडिया रेडियो पुणे पर 1 अप्रैल 1955 को रामनवमी के दिन किया गया और एक साल  तक प्रत्येक रविवार को 'गीत रामायण' का एक नया गीत प्रसारित किया गया. सावरकर के जीवन पर एक हिंदी फिल्म का भी निर्माण भी किया था.

दादरा और नागर हवेली की आजादी में संघ स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका

पुर्तगालियों ने दादरा को 1783 में और नागर हवेली को 1785 में कब्जा किया था. ये दोनों ही गोवा से काफी पहले 1954 में ही आजाद हो गए थे, तो इसमें संघ के स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका थी. इन दोनों को मिलाकर कुल 72 गांव आते थे और जनसंख्या लगभग 42000 थी. जब गोवा का मुक्ति संग्राम शुरू हुआ तो उसके आंदोलनकारियों का ध्यान इन पुर्तगालियों के कब्जे के इन दो छोटे द्वीपों की तरफ भी गया. उस वक्त संघ के कुछ स्वयंसेवकों ने क्रांतिकारी तरीके अपनाते हुए आजाद गोमांतक दल का गठन किया था. 

31 जुलाई 1954 को आजाद गोमांतक दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवी कार्यकर्ता दादरा-नगर हवेली को पुर्तगाल शासन से मुक्त कराने के लिए आगे बढ़ चले. रात में भीषण बारिश होने के बावजूद भी अपने अदम्य साहस और शौर्य के चलते पुर्तगाली सैनिकों को परास्त किया. 2 अगस्त सन् 1954 को दादर-नागर हवेली में भारत का तिरंगा ध्वज फहराकर पुर्तगालियों की गुलामी से मुक्ति मिली‌. इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में 40-50 संघ के स्वयंसेवकों और आजाद गोमांतक दल के प्रभाकर विट्ठल सेनारी और प्रभाकर वैद्य के नेतृत्व में आए कार्यकर्ताओं की थी. मुक्ति के बाद परिस्थितियां सामान्य होने पर 15 अगस्त सन् 1954 को दादर और नागर हवेली में पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया गया.   

के आर मलकानी अपनी किताब ‘द आरएसएस स्टोरी’ में लिखते हैं, “On 2 August 1954, some 200 RSS workers led by Nana Kajrekar and Sudhir Phadke, liberated Dadra and Nagar Haveli, Portuguese enclaves, and put to flight 175 soldiers armed with rifles, Bren guns and Sten guns.”.  लेखिका सुचित्रा कुलकर्णी अपनी किताब ‘RSS-BJP Symbiosis: On the Cusp of Culture and Politics’ में लिखती हैं कि इस संघर्ष में संघ के कुछ स्वयंसेवकों की जान भी चली गई थी, वो लिखती हैं, “The RSS played an important role in the liberation of Dadra and Nagar Haveli in 1954-55 and later in 1961, in the liberation of Goa from the Portuguese rule… Several swayamsevaks lost their lives and many were injured in the firings by the Portuguese forces.” इस घटना के 57 साल बाद 2011 में दादरा नागर हवेली की मुक्ति के लिए लड़ने वाले सभी स्वयंसेवकों का एक कार्य़क्रम में सम्मान किया गया, उस वक्त 103 में से केवल 55 ही जिंदा थे. 

दादरा और नागर हवेली के बाद गोवा मुक्ति योजना में गुरु गोलवलकर भी शामिल

संगीतकार सुधीर बाबू फड़के ने दादरा और नागर हवेली की स्वतंत्रता के बाद अब गोवा की मुक्ति की भी योजनाएं बनानी शुरू कर दीं. रंगा हरि अपनी किताब ‘Shree Guruji-Pioneer of A New Era’ में आगे की जानकारी देते हैं, “Shri Phadke says that this group of youngmen had prepared a similar plan for Goa’s liberation also around 1962. He and some other youths were in close liaison with Goa freedom fighters like Dr. Pundalik Gaitonde, Shri Mohan Ranade and others. Dr. Gaitonde had just returned to Bharat from England and intensely desired to see areas freed. Finally, a plan was chalked out to liberate some areas adjoining Bharat on the strength of arms and establish there an independent administration under Dr. Gaitonde’s leadership”.

चूंकि फड़के और गायतुंडे दशकों से संघ के स्वयंसेवक रहे थे, सो योजना बनी कि संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर से भी सलाह और सहायता ली जाए. रंगा हरि आगे लिखते हैं कि, “Shri Guruji was consulted and he too agreed to this plan. He was also prepared to provide man-power and funds. In this connection, Shri Sudhir Phadke met Shri Guruji thrice. On this occasion too Shri Guruji’s alertness was in evidence. Dr. Gaitonde and Prime Minister Nehru were on close terms. So Shri Guruji instructed Phadke to ask Dr. Gaitonde to state clearly if he was prepared to lead the plan despite Nehru’s opposition. Only when the reply was received in the affirmative did Shri Guruji give the green signal.”

ये भी वायदा लिया जाना था कि जब तक स्वयंसेवक पुर्तगाली प्रशासित सीमा में नहीं घुस जाएंगे, भारत सरकार उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करेगी और उनकी सहायता ही करेगी. रंगा हरि दावा करते हैं कि अपनी योजना को स्वयंसेवक जब तक किसी अमल में लाते भारत की सेना गोवा में घुस चुकी थी. तब मीडिया में छपा भी था कि चूंकि रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन लोकसभा उम्मीदवार थे, सो उनको चुनावों में फायदा दिलवाने के लिए आनन फानन में ये कदम उठाया गया था. लेकिन ऐसी खबरों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय उस वक्त गुरु गोलवलकर ने इस एक्शन का स्वागत किया था.  

पिछली कहानी: हैदराबाद की आजादी के लिए लड़ने वाला स्वयंसेवक, जिनसे CM ने मांगी थी सुरक्षा 

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