पहलगाम आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान लगातार भारत को हमले की गीदड़भभकी दे रहा है. यहां तक कि सिंधु नदी समझौता स्थगित करने से पाकिस्तान पूरी तरह बौखलाया हुआ है. वहां के नेता 'पानी नहीं बहेगा तो खून बहेगा' जैसे बयान देने से भी बाज नहीं आ रहे. लेकिन पाकिस्तान एक बार नहीं, तीन-तीन बार भारत से आमने-सामने की जंग में मुंह की खा चुका है. 1965, 1971 और 1999 के युद्ध में पाकिस्तान को भारतीय सेना ने धूल चटाई थी.
भारत ने किए पाकिस्तान के टुकड़े
इनमें सबसे खास 1971 की जंग रही, जब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का जन्म हुआ था. इस जंग में पाकिस्तानी सेना के जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी समेत 93000 हजार सैनिकों ने भारतीय जांबाजों के आगे घुटने टेक दिए थे. ऐसे में आज आपको उस जंग की कहानी बताते हैं कि जिसे पाकिस्तानी सेना के इतिहास की सबसे शर्मनाक शाम में गिना जाता है.
साल 1947 में भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान बना था. पाकिस्तान में भी मुख्य रूप से दो हिस्से थे पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान. मोहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में ऐलान किया था कि पाकिस्तान के हर बाशिंदे को सिर्फ एक ही भाषा बोली चाहिए उर्दू और वह पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला बोलने वाले मुस्लिमों को अपने से छोटा मानते थे. इस तरह पाकिस्तान के भीतर ही उर्दू और बांग्ला बोलने वालों के बीच की खाई गहरी होती चली गई. पूर्वी पाकिस्तान का नेतृत्व करने वाले बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान और पश्चिमी पाकिस्तान के रहनुमा माने जाने वाले जिन्ना के बीच सियासी दांव पेच का दौर भी शुरू हो गया.
पूर्वी पाकिस्तान ने उठाई आजादी की मांग
पूर्वी पाकिस्तान में अलग देश की मांग के साथ मुक्ति वाहिनी के नेतृत्व में विद्रोह हुआ, तब इस बगावत को कुचलने के लिए जनरल टिक्का खान को ढाका रवाना कर दिया गया. भाषा के नाम पर उनके साथ लगातार अत्याचार किए गए थे. करीब दो दशक तक पूर्वी पाकिस्तान के लोग उत्पीड़न सहते रहे. लेकिन अपने शोषण से परेशान होकर 26 मार्च, 1971 को पूर्वी पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर उत्तराधिकार की मांग उठाई. भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वी पाकिस्तान का साथ दिया. उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान से निकले लोगों को शरण देने का फैसला किया और लाखों लोग अपना देश छोड़कर भारत आ गए थे.
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उधर, पाकिस्तानी सेना ने 25 और 26 की रात में ऑपरेशन सर्चलाइट में ढाका यूनिवर्सिटी पर हमला बोला और हजारों बेगुनाह लोगों को मार दिया है. ऐसे में वहां से शरणार्थी भारत आने लगे, इंदिरा गांधी ने फैसला लिया कि हमें बांग्लादेश के लोगों की मदद करनी चाहिए और इस तरह भारत इस जंग में शामिल हो गया. पूर्वी सरहद से बड़ी तादाद में पाकिस्तानी, भारत की ओर पलायन करने लगे. लाखों की तादाद में रिफ्यूजी पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम का रुख करने लगे, ऐसे में भारत के लिए भी इतनी बड़ी तादाद में शरणार्णियों को शरण देना मुश्किल हो रहा था.
इंदिरा गांधी ने किया जंग का ऐलान
इसी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शरणार्थियों की समस्या का स्थाई समाधान खोजने की जरूरत महसूस की और इसके लिए उन्होंने सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानिकशॉ को बुलाया. यह उस दौर की बात है जब पाकिस्तान में तैनात जनरल टिक्का खान अत्याचार की सारी हदें पार कर रहा था, यहां तक कि उसे बंगाल का कसाई कहा जा रहा था. इसके बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव में पाकिस्तान ने टिक्का खान को पद से हटाकर जनरल एएके नियाजी को ढाका की बागडोर थमा दी. लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार के बाद हालात बद से बदतर होते जा रहे थे और पाकिस्तान को इस बात का एहसास था कि हिंदुस्तानी फौज कभी भी धावा बोल सकती है.
इसी डर की वजह से पाकिस्तान ने 3 दिसंबर, 1971 को इंडियन एयरफोर्स के 11 स्टेशनों पर हवाई हमले शुरू कर दिए. इसके बाद भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम में सीधे तौर पर शामिल हो गई. इससे बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम भारत-पाकिस्तान जंग में तब्दील हो गया. इंदिरा गांधी ने आधी रात को ऑल इंडिया रेडियो से इस जंग का ऐलान किया था.
इंडियन नेवी का 'ऑपरेशन ट्राइडेंट'
कराची पोर्ट पर 4 दिसंबर, 1971 को भारतीय नौसेना ने 'ऑपरेशन ट्राइडेंट' लॉन्च कर दिया. इस दौरान भारत की जल सीमा घूम रही पाकिस्तानी पनडुब्बी को नष्ट करने का जिम्मा एंटी सबमरीन फ्रिगेट INS खुखरी और कृपाण को सौंपा गया. इस टास्क की जिम्मेदारी 25वीं स्क्वॉर्डन कमांडर बबरू भान यादव को दी गई थी. 'ऑपरेशन ट्राइडेंट' के तहत 4 दिसंबर, 1971 को भारतीय नौसेना ने कराची नौसैनिक अड्डे पर भी हमला बोल दिया और हथियार की सप्लाई करने वाले शिप समेत कई जहाजों को तबाह कर दिया. हमले में पाकिस्तान के ऑयल टैंकर भी नष्ट हो गए थे. कई दिनों तक कराची पोर्ट पर तेल के भंडार से आग की लपटे उठती रहीं, जिन्हें करीब 60 किलोमीटर दूर से भी देखा जा सकता था.
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बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ लड़ने के लिए भारतीय सेना के साथ हाथ मिला लिया था. युद्ध के दौरान दक्षिणी कमान ने पाकिस्तान की किसी भी कार्रवाई के खिलाफ देश की सीमाओं की रक्षा की. दक्षिणी कमान वाले इलाके में भी जंग शुरू हो गई थी. लोंगेवाला और परबत अली में भी पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी. भारतीय सेना ने पाकिस्तान के बख्तरबंद बलों को तबाह कर दिया. लेफ्टिनेंट कर्नल (बाद में ब्रिगेडियर) भवानी सिंह के नेतृत्व में 10 पैरा कमांडो बटालियन के सैनिकों ने पाकिस्तानी गांव छाछरो पर धावा बोला था.
PAK ने अमेरिका से लगाई थी गुहार
पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या कम नहीं थी, जनरल नियाजी ने पहले सभी कम्यूनिकेशन सेंटर्स पर पूरी तरह अपना कब्जा मजबूत किया और फिर अहम शहरों को किले में तब्दील कर दिया. लेकिन ढाका को लेकर शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारतीय फौज ढाका तक पहुंच सकती है. भारतीय सेना अंतिम लक्ष्य की ओर देख रही थी और हर मोर्चे पर हमारे सैनिक आगे बढ़ रहे थे. जब पाकिस्तान को अपनी हार दिखने लगी तो वह अमेरिका के पास गुहार लेकर पहुंचा.
उस वक्त अमेरिका को पाकिस्तान का पूरा साथ मिलता था और भारत की दोस्ती तब भी रूस के साथ मजबूत थी. अमेरिका युद्ध में पाकिस्तान का पक्ष ले रहा था. लेकिन भारतीय फौज के पराक्रम को देखते हुए उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के माथे पर पसीना आ रहा था. वह आखिर तक यही चाहते थे कि भारत अपने कदम वापस खींच लें. ऐसे में अमेरिका ने हिंदुस्तान की उत्तरी सीमा पर चीन के हमले की खबर फैलानी शुरू कर दी. वह जानता था कि ऐसी अफवाह सुनकर पाकिस्तानी सैनिकों में जोश भर जाएगा. लेकिन हकीकत में चीन ने कभी हमला किया ही नहीं था. उस वक्त जून में अमेरिकी दूत जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने UNSC में युद्ध विराम और भारतीय सेना के वापस लौटने का प्रस्ताव पेश कर दिया. इस बीच भारत के दोस्त रूस को भरोसा था कि भारत यह जंग जरूर जीतेगा और उसने इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया.
ढाका में एयरफोर्स का अटैक
भारत हर मोर्चे पर पाकिस्तान की चालबाजी का जवाब दे रहा था और उसका फोकस ढाका पर था. बमों से लैस भारतीय वायु सेना के चार विमानों ने अचानक ढाका की उस इमारत पर हमला कर दिया, जहां पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर बैठक कर रहे थे. बमबारी से मुख्य हॉल की छत गिर गई और गवर्नर इस कदर डर गए कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके हमले के बाद पाकिस्तानी अफसर न्यूट्रल जोन की तरफ भागने लगे, जिसे रेड क्रॉस ने बनाया था. भारत की ओर से की गई बमबारी का मकसद किसी को मारना नहीं था, इसका मकसद सिर्फ दुश्मनों को डराना था.
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उधर, हिंदुस्तानी फौज ढाका की ओर आगे बढ़ती जा रही थी और नियाजी युद्धविराम के लिए बार-बार गिड़गिड़ा रहा था. ऐसे में भारत ने शर्त रख दी कि अगर पाकिस्तान युद्ध खत्म करना चाहता है तो उसे 16 दिसंबर की शाम तक आत्मसमर्पण करना होगा. इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने 15 दिसंबर को ही सरेंडर का प्रोसेस शुरू कर दिया. लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी जो पाकिस्तानी सेना की ओर से ढाका में सर्वोच्च कमांडर था, उसका मनोबल टूट चुका था.
जिंदा रहने के लिए PAK सेना का सरेंडर
जब ढाका में 3000 भारतीय सैनिक दाखिल हुए थे उस वक्त वहां पाकिस्तानी सैनिकों की तादाद 30 हजार थी. उनके पास गोलियां इतनी थीं कि एक महीने और लड़ सकते थे और भारत के पास न सिर्फ सैनिक कम थे बल्कि असलहा भी सिर्फ चार दिन का था. यहां पर पाकिस्तान थोड़ा घबराया हुआ था कि उसे यह एहसास ही नहीं है था कि जिस लक्ष्य के साथ भारत युद्ध भूमि में आया था उसे पूरा होने में अब चंद घंटों का वक्त रह गया है. 16 दिसंबर की सुबह जनरल सैम मानिकशॉ ने पूर्वी मोर्चे पर तैनात जनरल जेएफआर जैकब को फोन लगाया और आदेश दिया कि वह जनरल नियाज़ी के पास सरेंडर के दस्तावेज लेकर जाएं और उनके साइन लेकर आएं.
इसके बाद ऑफिसर कमांडिंग लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने सरेंडर से पहले पाकिस्तानी जनरल नियाजी को भरोसा दिलाया कि हम आपकी और आपके सैनिकों की देखभाल करेंगे. लेकिन अगर हमारी शर्तें नहीं मानी तो फिर हमारी जिम्मेदारी नहीं होगी, सोच लीजिए हम आपको आधे घंटे का वक्त देते हैं. इसके बाद जब जनरल नियाजी कैंप से वापस लौटे तो सरेंडर का दस्तावेज टेबल पर पड़ा था हुआ था. नियाजी को पाकिस्तान में बैठे हुक्मरानों से कोई भरोसा नहीं मिल रहा था और अमेरिका भी चुप बैठा हुआ था. यानी नियाज़ी के पास कोई रास्ता बचा ही नहीं था. जान बचानी थी और सरेंडर करना था.
नियाजी से सौंप दी अपनी पिस्तौल
इसके बाद पाकिस्तान की इंटरनेशनल बेइज्जती का वक्त आ गया. जब एक-एक कर पाकिस्तानी सैनिक अपने हथियार डाल रहे थे. जनरल नियाजी ने भी अपनी पिस्तौल सौंपी थी. सरेंडर के साथ भारत आए शरणार्थियों को वापस भेजने पर भी सहमति बनी थी. इस तरह ढाका में तिरंगा तक नहीं फहराया और 93 हजार पाकिस्तानियों को युद्धबंदी बनाया गया. लेकिन उन्हें भारत में किसी तरह की यातना नहीं दी गई और युद्धबंदियों को बंगाल समेत देश की अलग-अलग जेलों में रखा गया था. इस तरह 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश का जन्म एक नए राष्ट्र के रूप में हुआ और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) पाकिस्तान के कब्जे आजाद हो गया.
इस जंग को भारत के लिए ऐतिहासिक युद्ध माना जाता है. इसी वजह से 16 दिसंबर को पूरे देश में पाकिस्तान पर भारत की विजय को 'विजय दिवस' के रूप में मनाया जाता है. कहा जाता है कि 1971 के युद्ध में लगभग 3,900 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और लगभग 9,851 घायल हुए थे. पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने 16 दिसंबर, 1971 को आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर साइन किए थे.
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