क्या पढ़े-लिखे दिमाग भी हो जाते हैं रेडिकलाइज? दिल्ली ब्लास्ट के आरोपी उमर के वीड‍ियो ने उठाया बड़ा सवाल

दिल्ली ब्लास्ट में कार से मिले बॉडी पार्ट का डीएनए टेस्ट कराने के बाद पक्का हो गया है कि कार में डॉ उमर उन नबी ही था. एक पढ़ा-लिखा व्यक्त‍ि जिसे पैसे या संसाधन का लालच देकर आत्मघाती नहीं बनाया जा सकता था. फिर कैसे उसके भीतर इतनी हिंसक सोच आई. क्या पढ़-ल‍ि‍खे इंसानों को भी ब्रेन वॉश करके कट्टर बनाया जा सकता है, ऐसे तमाम सवाल लोग सोशल मीडि‍या पर पूछ रहे हैं. हमने मनोव‍िश्लेषकों से इसका जवाब जानने की कोश‍िश की.

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डॉ उमर का वीडियो कह रहा पढ़े-लिखे कट्टरपंथ की नई कहानी? डॉ उमर का वीडियो कह रहा पढ़े-लिखे कट्टरपंथ की नई कहानी?

मानसी मिश्रा

  • नई दिल्ली,
  • 19 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:33 PM IST

दिल्ली के लाल किले के पास हुए कार धमाके के आरोपी डॉ. उमर उन नबी का एक वीडियो सोशल मीड‍िया पर तैर रहा है. साथ ही ये बहस भी कि पहले तो ये कहा जाता था कि श‍िक्षा से कट्टर सोच को बदला जा सकता है. लेकिन इतना पढ़ा लिखा डॉक्टर का ओहदा रखने वाला सुसाइड बॉम्ब‍िंग को martyrdom (शहादत) ऑपरेशन कहकर कैसे जायज ठहरा सकता है. क्या पढ़े-लिखे, सामान्य दिखने वाले युवा भी इतनी आसानी से रेडिकलाइज हो सकते हैं? आइए इसके पीछे का मनोव‍िज्ञान समझते हैं. 

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वीडियो में उमर क्या कह रहा है?

इस सेल्फ-रिकॉर्डेड वीडियो में डॉ. उमर आत्मघाती हमलों को 'बहुत गलत समझा गया विचार' बताता है और उन्हें धार्मिक दृष्टिकोण से शहादत ऑपरेशन कहता है.  वीड‍ियो में वो 'निर्धारित समय और स्थान पर मरने' की संभावना को स्वीकार करता है जैसे ये एक पूर्व निर्धारित मकसद से भरा अंत हो. वीडियो में वो अंग्रेजी में बात कर रहा है और उसकी बातों में आत्मविश्वास है. इससे साफ होता है कि उसने एक हिंसक कट्टरता से भरी विचारधारा पर काफी सोच-विचार किया है. 

क्या पढ़ाई से कट्टरता को रोक सकते हैं? 

RAND कॉर्पोरेशन, इंटरनेशनल सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ रेडिकलाइजेशन (ICSR) और UNODC की कई स्टडीज में पाया गया है कि रेडिकलाइजेशन का शिक्षा से कोई सीधा संबंध नहीं होता. इसमें अक्सर उच्च शिक्षा प्राप्त युवा ही टारगेट बनाए जाते हैं. 

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क्या हैं इसके पीछे की वजहें 

  • वे तकनीक का बेहतर उपयोग कर पाते हैं
  • विचारधारा को तर्कसंगत ढंग से पेश करने में सक्षम होते हैं
  • अकेलापन या ‘आइडेंट‍िटी क्राइस‍िस’ ज्यादा झेलते हैं
  • ऑनलाइन ग्रूमिंग के लिए अधिक वल्नरेबल होते हैं

कैसे बदलता है दिमाग, समझें इसके पीछे का तर्क 

मनोच‍िकित्सक डॉ अन‍िल स‍िंह शेखावत कहते हैं कि 18 से 30 की उम्र में युवा अक्सर ये खोजते हैं कि मैं कौन हूं, मेरे इस जीवन का उद्देश्य क्या है. चरमपंथी समूह मौका पाकर इस खाली जगह में एक उद्देश्य का ऑफर देते हैं. वो उन्हें फीड करते हैं कि तुम खास हो… तुम किसी मिशन का हिस्सा हो. 

बार-बार ये बातें दोहराने से धीरे धीरे उनके भीतर इको चेंबर बन जाता है.  इस पर सोशल मीड‍िया का एल्गोरिदम भी आजकल बड़ा रोल निभाता है. साइबर एक्सपर्ट मोहित चौधरी कहते हैं कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और एक्स आद‍ि प्लेटफॉर्म का एल्गोरिदम लोगों को उन्हीं विचारों वाला कंटेंट दिखाता है जो वो पसंद करते हैं. इसे मनोवैज्ञान‍िक पहलू से देखा जाए तो धीरे-धीरे व्यक्ति टू वर्ल्ड या अपनी दो दुनिया बनाने लगता है. इसमें एक दुनिया उनकी रिएल‍िटी होती है और दूसरी दुन‍िया उनकी कम्युन‍िटी या जिस ग्रुप के प्रति उनका रुझान है, उसकी कहानी होती है. 

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पीड़ित होने की भावना (Victim Narrative)

हर चरमपंथी नेटवर्क का पहला हथियार होता है, 'हम पर जुल्म हो रहा है'. यही भावना लोगों को नफरत के लिए तैयार करती है. रिसर्च बताती है कि पहले व्यक्ति ज्यादा धार्मिक या वैचारिक कंटेंट देखता है. धीरे धीरे वो अपनी असहमति वाले लोगों को दुश्मन मानने लगता है. अंत में उन्हें हिंसा भी जायज लगने लगती है. यही क्रम अक्सर पढ़े-लिखे युवाओं में भी होता है क्योंकि भावनाएं तर्क को मात दे देती हैं. 

उमर के केस में क्या दिख रहा है?

जांच एजेंसियों के अनुसार उमर लंबे समय से कट्टर सामग्री देखता था.विदेश में रहते हुए उसकी ऑनलाइन बातचीत ऐसे ग्रुप से हुई जो हिंसा का महिमामंडन करते थे. हाल में सामने आया वीडियो बताता है कि वह पूरी तरह मानसिक रूप से 'मिशन मोड' में था. ये मामला अचानक नहीं हुआ, ये एक लंबी, धीरे-धीरे पनपी प्रोसेस का परिणाम है. 

कहां चूक जाते हैं परिवार और आसपास के लोग 

सर गंगाराम के वर‍िष्ठ मनोचिकित्सक डॉ राजीव मेहता कहते हैं कि भारत में कई ऐसे केस देखने को मिले हैं जहां युवा अपनी ऑनलाइन गतिविधियों को छिपाने लगे. ऐसे में परिवार मानसिक बदलाव को बच्चे का धार्मिक होना समझकर नजरअंदाज कर देते हैं. ऐसे में एकाकीपन उन्हें कट्टरता की तरफ और आकर्षि‍त करते हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि समाज अक्सर तब जागता है, जब बहुत देर हो चुकी होती है. 

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कट्टरता जन्मजात नहीं, पनपाई जाती है

वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. अनिल सिंह शेखावत कहते हैं कि रेडिकलाइजेशन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कई बार बचपन से शुरू हो सकती है. कट्टरता अचानक नहीं आती. किसी इंसान को बचपन से मिला माहौल, फिर उसी तरह की संगत मिलना और कट्टर धार्मिकता की तरफ बढ़ा रुझान इंसान के ब्रेन को उसी दिशा में ट्रेंड कर देता है. 

उनके मुताबिक जिस वातावरण में बच्चा बड़ा होता है, वही उसकी सोच को 'हम बनाम वे' में ढालता है. बाद में ऐसी ऑनलाइन या ऑफलाइन संगत मिलते ही कट्टरता पनप जाती है. व‍िशेषज्ञ कहते हैं कि डॉ. उमर का केस सिर्फ एक अपराधी की कहानी नहीं है. ये आज के डिजिटल युग की एक चेतावनी भी है. कट्टरता उम्र, पढ़ाई या पेशा देखकर किसी को नहीं चुनती. ये वहां पनपती है जहां आइडेंट‍िटी क्राइस‍िस हो, भावनाओं पर नियंत्रण न हो और समाज सवाल पूछना बंद कर दे.

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