क्या कभी आपको किसी चीज को लेकर 'गट फीलिंग' आती है? या फिर जब कोई मुश्किल फैसला लेना हो, तो खुद को इधर-उधर चलते देखा हो? ऐसा सिर्फ एंग्जाइटी की वजह से नहीं होता है, बल्कि यह बताता है कि जब आपके दिमाग में कोई बात होती है तो दिमाग के साथ ही आपका पूरा शरीर उस चीज के बारे में सोच रहा होता है.
मनोवैज्ञानिक बारबरा टवर्स्की का कहना है कि सोच केवल दिमाग तक सीमित नहीं है. हमारे शरीर का भी इस सोच प्रक्रिया में बड़ा हिस्सा होता है. तो हां, जो शरीर आप लेकर चलते हैं, उसमें भी एक तरह का दिमाग चलता है.
अपने हाथ-पांव और रीढ़ की हड्डी के साथ सोचें
टवर्स्की ने इसका नाम दिया है, 'एम्बॉडीड कॉग्निशन" यानी शरीर के जरिए सोचने की प्रक्रिया. ये एक ऐसा तरीका है जो आप शायद रोज करते हैं लेकिन आपको इसका एहसास नहीं होता. जब आप किसी बात को समझाने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करते हैं तो ये आपकी सोच को और साफ बनाता है. फिर जब आप चलने लगते हैं ताकि दिमाग साफ हो जाए तो ये सिर्फ मूड ठीक करने की बात नहीं होती, बल्कि सच में आपकी सोच को बेहतर बनाने का तरीका है. आपका शरीर सिर्फ दिमाग की नहीं सुन रहा होता, बल्कि सोचने के प्रोसेस में एक्टिव रूप से हिस्सा लेता है.'
दिमाग और बॉडी अलग नहीं है-
हम सभी ये मानते आए हैं कि दिमाग हमारे पूरे शरीर को कंट्रोल करता है और शरीर बस एक साधन की तरह काम करता है. यानी दिमाग जो कुछ भी कहेगा उसका पालन शरीर को करना होता है. अगर आप भी यही सोचते हैं तो आप गलत हैं. दिमाग और शरीर 2 को-पायलट की तरह हैं. आपकी सोच किसी बादल की तरह सिर्फ ऊपर नहीं रहती है बल्कि आपकी मसल मेमोरी, इंद्रियों और यहां तक कि आपके शरीर के पोश्चर में भी जमी होती है.
अगर आप इस चीज को महसूस करना चाहते हैं तो सीधे खड़े होकर देखें. जब आप सीधा खड़े होते हैं तो आप अपने शरीर में आत्मविश्वास महसूस करते हैं लेकिन जब आप झुककर बैठे रहते हैं तो आपको अपने अंदर आत्मविश्वास महसूस नहीं होता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपको दिमाग और शरीर एक साथ काम करते हैं.
सोनल मेहरोत्रा कपूर