रूस कोल्ड वॉर के बाद से ही दुनिया से काफी अलग-थलग रहता आया. पिछले एक दशक में यूक्रेन से लड़ाई-भिड़ाई ने उसे और अकेला कर दिया. अमेरिका समेत उसके समर्थक सारे देशों ने मॉस्को पर कई तरह के बैन लगा दिए. होना तो ये था कि इतनी आर्थिक नाकेबंदी में रूस टूट जाए, लेकिन उसकी इकनॉमी वैसी कमजोर नहीं पड़ी, जैसी पश्चिम को उम्मीद थी. तो क्या रूस ने सैंक्शन-प्रूफ मॉडल खोज रखा है?
चौबीस हजार से ज्यादा बैन लगे हुए हैं
यूरोपियन रिसर्च सेंटर कास्टेलम ने अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के लगाए हुए प्रतिबंधों पर एक स्टडी की. इसमें दावा है कि फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हमले से पहले भी रूस पर लगभग पौने तीन हजार पाबंदियां लगी हुई थीं, जो इसके बाद बढ़कर लगभग चौबीस हजार हो गईं. इसमें यूएस ने सबसे ज्यादा बैन लगाए, जबकि उसके बाद चौंकाने वाले ढंग से न्यूट्रल कहलाते स्विट्जरलैंड का नंबर है. इसके बाद ईयू से लेकर कनाडा और जापान भी शामिल हैं. ये इस साल अगस्त तक का डेटा है.
रूस के बड़े बैंक और वित्तीय संस्थान अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली से कट गए, जिससे विदेशों में लेन-देन मुश्किल हो गया. तेल और गैस के निर्यात पर भी रोक लगी. कई बड़े रूसी अधिकारियों और व्यापारियों की संपत्ति जब्त कर दी गई और उन्हें विदेश यात्रा की अनुमति नहीं है. विदेशी कंपनियां भी रूस से अपने निवेश लौटाने लगीं. इन सबका मकसद रूस की इकनॉमी और सैन्य ताकत को कमजोर करना था.
पाबंदी लगाना और कमजोर बनाना आजमाया हुआ तरीका है. लगभग डेढ़ दशक पहले ईरान पर पश्चिम ने ढेरों बैन लगा दिए क्योंकि वो न्यूक्लियर ताकत पाने की कोशिश में था. इनका असर तेल, बैंकिंग और पूरे आर्थिक क्षेत्र पर पड़ा.देश की आय घट गई, मुद्रा की कीमत गिर गई और महंगाई बढ़ गई. आम लोग परेशान होने लगे. इसी के बाद तेहरान ने घरेलू उत्पादन और खेती पर ध्यान दिया ताकि जरूरी सामान के लिए विदेशों पर निर्भरता कम हो. इससे कुछ फर्क तो पड़ा लेकिन विकास ठहर गया.
तो क्या रूस के साथ भी यही हुआ
नहीं. शुरुआत में ऐसा लगा कि युद्ध और बैन ये देश एक साथ नहीं झेल सकेगा, लेकिन फिर इकनॉमी में बूस्ट दिखने लगा. साल 2024 में वहां जीडीपी में भी 4.1 प्रतिशत ग्रोथ दिखी. वहीं बेरोजगारी दर काफी कम हो गई. यानी पाबंदियों और युद्ध जैसी चुनौतियों के बाद भी वो टिका रहा.
यहां तक आने के लिए उसने कई नए काम किए
नए व्यापारिक साझेदार खोज लिए, जो यूरोपीय कमी की भरपाई करने लगे. उसने भारत के अलावा, तुर्की और मध्य-पूर्व के साथ रिश्ते बनाए.
मॉस्को ने भी कई चीजों का घरेलू उत्पादन शुरू कर दिया, जिससे दूसरों पर उसकी निर्भरता काफी हद तक कम हो गई.
उसने साझेदारों के साथ अपनी करेंसी में व्यापार शुरू कर दिया और डॉलर-फ्री मॉडल को बढ़ावा दिया.
कुछ हद तक कहा जा सकता है कि मॉस्को ने सेन्क्शन-प्रूफ मॉडल जैसी रणनीति बना ली है, जिससे वह भारी पाबंदियों के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था को चलाए रखने में सफल रहा. कम से कम अब तक तो यही दिख रहा है.
फिर बाकी देश जहां बैन लगा है, वे क्यों कमजोर दिखने लगे
इसका एक ही जवाब है, क्योंकि क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था रूस जैसी डायवर्स नहीं. ज्यादातर देशों के पास न तो इतना तेल-गैस का भंडार है, न इतना बड़ा घरेलू उत्पादन, और न ही ऐसे मजबूत खरीदार जो प्रतिबंधों के बाद भी उनसे व्यापार जारी रखें. फिर चाहे वो ईरान हो, नॉर्थ कोरिया या फिर वेनेजुएला.
वेनेजुएला को ही लें तो यह देश सालों से अमेरिकी कहर झेल रहा है. देश की पूरी आय लगभग तेल पर निर्भर थी और कोई भी ऐसा मित्र देश नहीं था, जो यूएस के सामने खड़ा रह सके. नतीजा ये हुआ कि पाबंदी लगते ही तेल की बिक्री रुक गई और इकनॉमी भरभरा गई. घरेलू उद्योग पहले से कमजोर था. इसके बाद से उस देश में पलायन चल ही रहा है.
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